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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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स्मृतियों के झरोखे में मेरी माँ

आज भी गूँजते हैं माँ के पवित्र मंत्रोच्चार

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रवींद्र व्यास

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मैं जब भी माँ के बारे में सोचता हूँ मुझे मटके में ताजा पानी भरने की आवाज सुनाई देती है। उसकी उम्र उसकी झुर्रियों से ज्यादा उन बर्तनों की खनखनाहट में थी जिसे वह सालों से माँजती चली आ रही थी। भरे-पूरे परिवार के लोगों के कपड़ों के रंग उड़ चुके रेशों में उसकी उम्र धुंधला चुकी थी। कपड़ों को लगातार रगडती-धोती वह उठती तो अपने घुटनों पर हाथ धरकर उठती । एक हलकी सी टसक के साथ।

हम भाई बहन जब सुबह सो कर उठते तब तक झकाझक धुले सबके कपड़े तार पर सूख रहे होते। पटली पर रखे बर्तन चमाचम चमक रहे होते। सिगड़ी पर दाल उकल रही है और परात में आटा गूँथा हुआ रखा है। मटके में ताजा पानी भरा हुआ है।

माँ जब भी उठती अपने घुटनों पर हाथ रखती हुई उठती। उसके घुटनों से हलकी सी आवाज निकलती और वहीं दम तोड़ देती। कई बार ऐसा होता कि आटा गूँथा हुआ रखा होता तो माँ की उँगलियों के निशान गूँथे आटे पर छूट जाते।

माँ घर में इतना मर खप गई थी कि कुल मिलाकर उसके चेहरे की झुर्रियों और अंदर धँस चुकी आँखों में हमसे लगी उम्मीदें बाकी रह गईं थीं। पिता इतने चुप रहते कि उनकी चुप्पी में उनका दुःख बजता रहता। वे अक्सर चुप रहते और कोई न कोई दुःख उनके कंधे पर बैठा रहता। किसी पालतू पक्षी की तरह। वह पक्षी अजर-अमर था। पिता को अपना दुःख दिखाई नहीं देता और माँ का दुःख उनसे देखा नहीं जाता।

हमारा घर मेनरोड पर था। मकानों की दीवारें बदरंग थीं। कहीं कहीं काली-भूरी। कच्चे मकान धूप में चमकते हुए और भी बदरंग दीखते। मेनरोड से आने-जाने वाले वाहनों से निकलता धुँआ और उड़ती हुई धूल मकानों की दीवारों पर चिपकती रहतीं।

यही नहीं, धूल और धुँआ उड़ता हुआ रसोई घर तक आ जाता । घरों में रहती तमाम चीजों पर यह धूल-धुँआ बैठ जाता। रजाई, गादी, कम्बलों और दरियों पर यह धूल-धुआँ जमता रहता। रात को बिस्तर बिछाने से पहले माँ दरी, रजाई गादी औऱ कम्बलों को खूब झटकारती। यह धूल धुआँ झरता और फिर थोड़ी देर हवा में रूककर वापस जम जाता।

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माँ जब भी कचरा बुहारती मैं माँ को बहुत ध्यान से देखता। माँ मुझे देखती और धीरे से हँसने लगती। कहती इस घर में जगह जगह दुःख बिखरे पड़े हैं। मैं पूछता कहाँ हैं दुःख। तो माँ दीवारों पर धीरे धीरे हाथ फेरती। दीवारों से झरती धूल को देखती। टूटे कप-बशी के टुकड़ों, पिता के कुरते के टूटे बटनों, सुई, हमारी पेम के टुकड़ों, को देखती रहती।

मैं माँ को कचरा बुहारते अक्सर देखा करता। माँ बहुत धीरे धीरे कचरा बुहारती। लगाव और प्रेम के साथ। कभी कभी रूककर धूल या कचरे में पड़ी चीजों को ध्यान से देखती। कचरे में कभी उसे ब्लैड मिलती, कभी सुई बटन या स्टोव की पिन। कभी धागे का कोई टुकड़ा। वह उन्हें निकालती और सावधानी से किसी कोने या आलिये में रख देती।

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हम सुबह उठते तो हमेशा यह देखते माँ चाय बनाने के साथ ही खाना बनाने की तैयारी भी कर रही है। एक सिगड़ी और एक स्टोव था और उसी पर सब काम होता था। चाय भी उसी पर बनती, नहाने का पानी भी उसी पर गर्म होता और दाल-भात भी उसी पर बनते। चाय के साथ खाना बनाने की जल्दबाजी में कई बार चाय ढुलती और उसके हाथ झुलस जाते। वह तुरंत हाथ पानी में डाल देती। कभी कभी कपबशी हाथ से छूटकर टूटते-फूटते।

सुबह की हड़बड़ाहट और जल्दबाजी में वह बड़बड़ाती। बड़बड़ाने के साथ उसका काम करना रूकता नहीं। हाथ पर हाथ धरे वह बैठी नहीं रहती। औऱ न कभी सिर पक़ड़ कर बैठ जाती। उसका बड़बड़ाना स्टोव की आवाज में मिल जाता।

माँ की बडबड़ाहट और स्टोव की आवाज मिल जाने से घर में अजीब सी आवाजें गूँजती। पिता इस आवाज को सुनते और चुप रहते। माँ की आवाज स्टोव की आवाज की तरह थी। कभी तेज, कभी धीमी, और कभी लगभग बंद होती हुई। अंत में जैसे स्टोव बंद हो जाने की एक लंबी सीटी की आवाज निकलती वैसी ही माँ की रूलाई फूटती। पहले धीरे फिर तेज और फिर धीरे होती हुई अचानक बंद हो जाती।

स्टोव की हवा बार-बार निकल जाती। वह बार-बार भरती। हवा भरने के बाद भी स्टोव की लौ ठीक तरह से जलती नहीं। वह पिन ढूँढ़ती। ताकि स्टोव की लौ तेज हो सके। पिन न मिलने पर उसकी चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती। वह बहुत देर तक चिड़चिड़ाती रहती। हमें डाँटती और कहती कि इस स्टोव को पूरी तरह ठीक क्यों नहीं करा लाते।

उसी कमरे के एक कोने में पिता पूजा कर रहे होते। वे एक एक भगवान की मूर्तियों को तरभाणे में रखते। पहले पानी से अभिषेक करते फिर दूध से और फिर पानी से। मूर्तियों को पोंछकर यथा स्थान रखते। अष्टगंध निकालकर चंदन के साथ घीसते। मूर्तियों को चंदन लगाते। अक्षत चढ़ाते। फूल की पंखुरियाँ लगाते। अगरबत्ती लगाते। असली घी का दीपक लगाना नहीं भूलते। दही, दूध, शहद, घी और शकर से पंचामृत बनाते। फिर मंत्रोच्चार करते। फिर आरती होती। कर्पूर जलाया जाता। पुष्पांजलि के बाद आरती ली जाती। पंचामृत देते और प्रसाद बाँटते।

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जितनी देर में पिता पूजा करते उतनी देर में माँ हमें नहला-धूलाकर खाना भी तैयार कर देती। पिता चिल्लाते ' नैवेद्य ला।' माँ थाली परोसकर पिता को नैवेद्य लगाने के लिए देती। पिता तुलसी पत्र तोड़ते, पानी से धोते और भात पर रखकर नैवेद्य लगाते।

कई बार ऐसा होता कि माँ को खाना बनाने में देर हो जाती। और उसका बड़बड़ाना भी शुरू हो जाता। कभी उसे पिन नहीं मिलती, कभी घासलेट खत्म हो जाता। कभी कोयले नहीं तो कभी लकड़ी नहीं सुलगती। कभी कभी ऐसा होता कि माँ की बड़बड़ाहट और पिता के मंत्रोच्चार मिल जाते। इससे घर में अजीब सी आवाज पैदा होती। ये आवाजें अजब ढंग से गड्ड-मड्ड हो जातीं।

मुझे लगता मानो माँ तो मंत्रोच्चार कर रही है और पिता बड़बड़ा रहे हैं!

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