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मौलाना साहब, मैं रोज-सवेरे कुरान शरीफ पढ़ता हूं.....'बापू, कुरान और मुसलमान' पर पढ़ें विशेष आलेख

हमें फॉलो करें मौलाना साहब, मैं रोज-सवेरे कुरान शरीफ पढ़ता हूं.....'बापू, कुरान और मुसलमान' पर पढ़ें विशेष आलेख
फिरोज बख्त अहमद
 
वर्तमान परिदृष्य को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो गांधीजी का भारत में जन्म हुआ ही नहीं हो। चारों ओर बेईमानी का चलन हो गया है। क्षेत्र चाहे राजनीति हो या कुछ और बजाय योग के भोग की आदत पड़ गई है लोगों को। अधिक से अधिक पैसा बनाना हर व्यक्ति की दिनचर्या का महत्वपूर्ण अंग बन गया है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह पैसा हलाल की कमाई का है या हराम की कमाई का।

वैसे सच्चाई तो यह है कि ईमानदारी से काम करने वाले के हाथ सदा खाली ही रहते हैं। ऐसे में गांधीजी की बड़ी याद आती है। अब तो गांधीजी को याद करना भी एक औपचारिकता ही रह गया है। हम हिन्दुस्तानियों का यह सौभाग्य था कि गांधीजी यहां जन्मे, मगर यह दुर्भाग्य रहा कि उनके बताए रास्ते पर चलने की बजाय हमने उनकी खिल्ली उड़ानी शुरू कर दी।
 
एक बार सवेरे लगभग पौने पांच बजे मौलाना आजाद गांधीजी के निवास पर फज्र की नमाज के बाद गए तो देखा कि गांधीजी कुरान पढ़ रहे हैं। पहले तो मौलाना साहब को विश्वास ही नहीं हुआ मगर जब उनके मुख से शुद्ध अरबी उच्चारण में 'सूरा-ए-इख्लास' सुनी तो वे स्तब्ध रह गए।

मौलाना साहब की इस असमंजस वाली स्थिति को देखते हुए गांधीजी बोले, 'मौलाना साहब, मैं रोज सवेरे कुरान शरीफ पढ़ता हूं और तरजुमे से पढ़ता हूं। इससे मुझे मन की अभूतपूर्व शांति प्राप्त होती है।' मौलाना साहब को अब तक यह पता नहीं था कि गांधीजी को उर्दू, अरबी और फारसी का सटीक ज्ञान था और यह कि बचपन में मौलाना अब्दुल कादिर अहमदाबादी नक्शबंदी से उन्होंने यह ज्ञान गुजरात में ही प्राप्त किया था। उस दिन से मौलाना की नजरों में गांधीजी का कद और भी ऊंचा हो गया था।
 
आजादी से थोड़ा पहले ही संपूर्ण बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम दंगे प्रारंभ हो गए थे। गांधीजी के वे दिन अवसादपूर्ण व निराशा से भरे थे। जब वे नोआखाली के बाबू बाजार में शांति यात्रा पर घर-घर जा रहे थे तो एक बंगाली मुसलमान भीड़ में से आया और उनका गला दबाते हुए उन्हें जमीन पर गिरा दिया और बोला- 'काफिर ! तेरी हिम्मत कैसे हुई यहां कदम रखने की?' गांधीजी तो पहले ही उपवास रख कर जीर्ण-शीर्ण हो चुके थे, इस वार को न सह सके और गिरते-गिरते उन्होंने 'सूरा-ए-फातिहा' पढ़ी।

यह देख वह बंगाली मुसलमान, जिसकी बड़ी चमकदार दाढ़ी थी, भौंचक्का रह गया और यह सोचकर शर्म से पानी-पानी हो गया कि ऐसे सदोगुणी प्रवृत्ति वाले महात्मा पर उसने हाथ उठाया। उसने गांधीजी के पांव पकड़ लिए और क्षमा याचना की। गांधीजी ने उसे माफ कर दिया। यही नहीं, अपने साथ चल रहे हिन्दू व मुसलमान हिमायतियों के रोष को भी उन्होंने ठंडा किया। इस घटना के पश्चात वह व्यक्ति, जिसका नाम अल्लाहदाद खान मोंडल था, गांधीजी का पक्का अनुयायी बन गया और प्रत्येक व्यक्ति से यही कहा करता था कि गांधीजी की एक बात उसके मन पर लिख गई।

गांधीजी ने अल्लाहदाद मोंडल से कहा था- "देखो खुदा के निकट मैं तुमसे अच्छा मुसलमान हूं।" इस घटना के तुरंत बाद गांधीजी ने अपने साथ चल रहे लोगों को सख्त आदेश दिया था कि कोई भी इस बात का वर्णन आगे कहीं न करे। गांधीजी के स्थान पर अन्य कोई और नेता होता तो अवश्य सांप्रदायिक आग की लपटें भड़क उठतीं मगर गांधीजी सदा उन लोगों में से थे जिन्होंने आग पर हमेशा पानी ही डाला।
 
विभाजन के तुरंत बाद गांधीजी ने तनाव की खबरें आने पर फिर नोआखाली जाने का मन बनाया परंतु परिस्थिति को देखते हुए वे कलकत्ता छोड़ नहीं पाए। अविभाजित बंगाल के प्रधानमंत्री एचएस सुहरावर्दी ने गांधीजी से अनुरोध किया था कि जब तक कलकत्ता में पूर्ण रूप से शांति न हो जाए, तब तक वे कलकत्ता में ही रहें। गांधीजी मान गए परंतु उन्होंने शर्त रखी कि सुहरावर्दी भी उनके साथ ही एक ही छत के नीचे रहें। 
 
कलकत्ता में जिस घर में गांधीजी रह रहे थे वह किसी बूढ़ी मुस्लिम महिला का था। यह मकान एक ऐसे मुहाने पर था जिस पर आसानी से आक्रमण किया जा सकता था। हिन्दू नवयुवक बहुत नाराज थे क्योंकि वे मानते थे कि गांधीजी मुसलमानों को अपना संरक्षण दे रहे हैं। उनका कहना था कि एक वर्ष पूर्व जब मुसलमानों ने हिन्दुओं का कत्ल किया था तब गांधीजी कहां थे? गांधीजी के लिए यह परिस्थिति कोई नई नहीं थी और वे भली- भांति इससे परिचित थे। मगर बावजूद इसके उन्होंने किसी भी सशस्त्र पुलिस की सहायता लेने से इंकार कर दिया था।
 
एक बार तो उत्सुक भीड़ उतावली हो उठी और लोगों ने "गांधी वापस जाओ" के नारे लगाने शुरू कर दिए। लेकिन सुहरावर्दी के मना करते रहने पर भी वे दरवाजे पर आए और क्रुद्ध भीड़ का सामना किया। अंत में जब वे घर के भीतर आए तो भीड़ ने पथराव शुरू कर दिया। घर के शीशे आदि तोड़ दिए गए और घर के अंदर पत्थरों की बारिश हो रही थी। गांधीजी ने प्रदर्शनकारियों के पास अपना संदेश भेजा कि वे उनकी जान लेना चाहते हैं तो इस शर्त पर लें कि उसके बाद वे सुहरावर्दी या उनके साथियों का बाल भी बांका नहीं करेंगे। गांधीजी के इस संदेश का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा उस भीड़ पर और थोड़ी देर में ही लोग वहां से चले गए। उसके बाद सद्भावना की ऐसी बारिश हुई कि एक आमसभा में हिन्दू और मुस्लिम युवकों ने एक ही मंच से भारत की आजादी का संकल्प लिया।
 
गांधीजी एक साथ हजरत मुहम्मद, कृष्ण, गुरु नानक और ईसा मसीह से प्रभावित थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद ने अपने अनेक पत्रों में गांधीजी की इस्लाम के प्रति जिज्ञासा का वर्णन किया है। "अल-अहरार" संस्था के मौलाना हबीब-उर-रहमान लुधियानवी को एक पत्र में उन्होंने लिखा कि हरिजनों से प्यार व छुआछूत से दूरी गांधीजी ने हजरत मुहम्मद सल्ल से सीखी, जिन्होंने सभी इंसानों को बराबर समझा।

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