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महाभारत के युद्ध में ऐन वक्त पर युयुत्सु ने क्यों बदल लिया था पाला?

हमें फॉलो करें महाभारत के युद्ध में ऐन वक्त पर युयुत्सु ने क्यों बदल लिया था पाला?

अनिरुद्ध जोशी

, शनिवार, 23 नवंबर 2019 (14:28 IST)
गांधारी जब गर्भवती थी तब धृतराष्ट्र की सेवा आदि कार्य करने के लिए एक वणिक वर्ग की दासी रखी गई थी। धृतराष्ट्र ने उस दासी से ही सहवास कर लिया। सहवास के कारण दासी भी गर्भवती हो गई। उस दासी से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम युयुत्सु रखा गया। उल्लेखनीय है कि धृतराष्ट्र ने एक और दासी के साथ संयोग किया था जिससे विदुर नामक विद्वान पुत्र का जन्म हुआ। दोनों को ही राजकुमार जैसा सम्मान, शिक्षा और अधिकार मिला था, क्योंकि वे धृतराष्ट्र के पुत्र थे।
 
 
इसमें से विदुर ने तो युद्ध में भाग नहीं लिया था लेकिन युयुत्सु कौरवों की ओर से युद्ध लड़ने कुरुक्षेत्र गए थे। वे कौरवों के भाई थे लेकिन उन्होंने चीरहरण के समय कौरवों का विरोध कर पांडवों का साथ दिया था। वे हर समय कौरवों की अनैतिक हरकतों का विरोध करते रहे थे। यह बाद युधिष्ठिर अच्छी तरह जानते थे।
 
 
युयुत्सु एक धर्मात्मा था, इसलिए दुर्योधन की अनुचित चेष्टाओं को बिल्कुल पसन्द नहीं करता था और उनका विरोध भी करता था। इस कारण दुर्योधन और उसके अन्य भाई उसको महत्त्व नहीं देते थे और उसका हास्य भी उड़ाते थे। युयुत्सु ने महाभारत युद्ध रोकने का अपने स्तर पर बहुत प्रयास किया था लेकिन उसकी नहीं चलती थी। जब युद्ध प्रारंभ हुआ तो पहले तो वह कौरवों की ओर ही था।
 
युद्ध के प्रारंभ होने वाले दिन एन वक्त पर युधिष्ठिर ने उसे समझाया कि तुम अधर्म का साथ दे रहे हो। ऐसे में युयुत्सु ने विचार किया और वह डंका बजाते हुए कौरवों की सेना से पांडवों की सेना की ओर आ गया।
 
 
हालांकि किस्सा यह था कि युद्ध प्रारम्भ होने से ठीक पहले युधिष्ठिर ने कौरव सेना को सुनाते हुए घोषणा की- "मेरा पक्ष धर्म का है। जो धर्म के लिए लड़ना चाहते हैं, वे अभी भी मेरे पक्ष में आ सकते हैं। मैं उसका स्वागत करूंगा।" इस घोषणा को सुनकर केवल युयुत्सु कौरव पक्ष से निकलकर आया और पांडव के पक्ष में शामिल हो गया। युधिष्ठिर ने गले लगाकर उसका स्वागत किया।
 
 
अपने खेमे में आने के बाद युधिष्ठिर ने एक विशेष रणनीति के तहत युयुत्सु को सीधे युद्ध के मैदान में नहीं उतारा बल्कि एक महत्वपूर्ण कार्य सौंपा। युधिष्ठिर जानते थे कि वह इस कार्य में सबसे योग्य है। युधिष्ठिर ने उसकी योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया। पांडवों की 7 अक्षौहिणी (9 लाख के आसपास) सेना थी। युयुत्सु ने अपने इस दायित्व को बहुत जिम्मेदारी के साथ निभाया और अभावों के बावजूद पांडव पक्ष को हथियारों और रसद की कमी नहीं होने दी। उल्लेखनीय है कि उडुपी के राजा को भोजन व्यवस्था सौंपी गई थी।
 
 
युद्ध में बच गए 18 योद्धाओं में युयुत्सु भी एक थे। युद्ध के बाद महाराजा युधिष्ठिर ने उन्हें अपना मंत्री बनाया था। जब युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग जाने लगे तब उन्होंने परीक्षित को राजा और युयुत्सु को उनका संरक्षक बना दिया था। धृतराष्ट्र की मृत्यु के उपरान्त युयुत्सु ने ही उन्हें मुखाग्नि दे कर पुत्र धर्म निभाया। यह माना जाता है कि उत्तर प्रदेश के पश्चिमी और राजस्थान के पूर्वी भागों में रहने वाले जाट जाति के लोग उन्हीं महात्मा युयुत्सु के वंशज हैं।
 

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