कहते हैं कि युधिष्ठिर ही एकमात्र ऐसे पांडव थे जिन्होंने सशरीर स्वर्ग में प्रवेश किया था। स्वर्ग जाकर युधिष्ठिर ने जब अपने भाइयों को नहीं देखा तो देवताओं से कहा कि मेरे भाई तथा द्रौपदी जिस लोक में गए हैं, मैं भी उसी लोक में जाना चाहता हूं। मुझे उनसे अधिक उत्तम लोक की कामना नहीं है। तब देवताओं ने कहा कि यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है तो आप इस देवदूत के साथ चले जाइए। यह आपको आपके भाइयों के पास पहुंचा देगा।
युधिष्ठिर उन दो देवदूत के साथ चले गए। देवदूत युधिष्ठिर को ऐसे मार्ग पर ले गए, जो बहुत खराब था। उस मार्ग पर घोर अंधकार था। उसके चारों ओर से दुर्गंध आ रही थी, इधर-उधर शव पड़े हुए दिखाई दे रहे थे। लोहे की चोंच वाले कौए और गीध मंडरा रहे थे। वह असिपत्र नामक नरक था। वहां की दुर्गंध से परेशान होकर युधिष्ठिर ने देवदूत से पूछा कि हमें इस मार्ग पर और कितनी दूर चलना है और मेरे भाई कहां हैं? युधिष्ठिर की बात सुनकर देवदूत बोले कि देवताओं ने कहा था कि जब आप थक जाएं तो आपको हम वापस स्वर्ग ले आएं। यदि आप थक गए हों तो हम पुन: लौट चलते हैं। कुछ सोचकर युधिष्ठिर ने ऐसा ही करने का निश्चय किया।
लेकिन जैसे ही युधिष्ठिर वापस लौटने लगे तो उन्हें दुखी लोगों की आवाज सुनाई दी। वे युधिष्ठिर से कुछ देर वहीं रुकने के लिए कह रहे थे। कहते रहे थे कि हे कुंतिनंदन आपके आने से हमें सुकून मिला है अत: आप कुछ देर और यहीं रुक जएं। युधिष्ठिर ने जब उनसे उनका परिचय जाना तो उन्होंने कर्ण, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव व द्रौपदी के रूप में अपना परिचय दिया। यह सुनकर युधिष्ठिर को बहुद दुख हुआ और सोचने लगे कि मेरे भाइयों और द्रौपदी ने ऐसा कौन सा पाप किया था जो इन्हें नरक देखना पड़ रहा है?
बहुत दुखी होकर युधिष्ठिर ने उस देवदूत से कहा कि तुम पुन: देवताओं के पास लौट जाओ क्योंकि मेरे यहां रहने से यदि मेरे भाइयों को सुख मिलता है तो मैं इस दुर्गम और दुर्गंधयुक्त स्थान पर ही रहूंगा। देवदूतों ने यह बात जाकर देवराज इंद्र को बता दी।
युधिष्ठिर को उस स्थान पर अभी एक मुहूर्त बीता बीता ही था कि सभी देवता वहां आ गए। देवताओं के आते ही वहां सुगंधित हवा चलने लगी, मार्ग पर प्रकाश छा गया। तब देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि तुमने अश्वत्थामा के मरने की बात कहकर छल से द्रोणाचार्य को उनके पुत्र की मृत्यु का विश्वास दिलाया था। इसी के परिणाम स्वरूप तुम्हें भी छल से ही कुछ देर नरक के दर्शन पड़े। अब तुम मेरे साथ स्वर्ग चलो। वहां तुम्हारे भाई व अन्य वीर पहले ही पहुंच गए हैं।
देवराज इंद्र के कहने पर युधिष्ठिर ने देवनदी गंगा में स्नान किया। स्नान करते ही उन्होंने मानव शरीर त्याग करके दिव्य शरीर धारण कर लिया। इसके बाद बहुत से महर्षि उनकी स्तुति करते हुए उन्हें उस स्थान पर ले गए जहां उनके चारों भाई, कर्ण, भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रौपदी आदि आनंदपूर्वक विराजमान थे। युधिष्ठिर ने वहां भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किए। अर्जुन उनकी सेवा कर रहे थे। युधिष्ठिर को आया देख श्रीकृष्ण व अर्जुन ने उनका स्वागत किया।
युधिष्ठिर ने देखा कि भीम पहले की तरह शरीर धारण किए वायु देवता के पास बैठे थे। कर्ण को सूर्य के समान स्वरूप धारण किए बैठे देखा। नकुल व सहदेव अश्विनी कुमारों के साथ बैठे थे। देवराज इंद्र ने युधिष्ठिर को बताया कि ये जो साक्षात भगवती लक्ष्मी दिखाई दे रही हैं। इनके अंश से ही द्रौपदी का जन्म हुआ था। इसके बाद इंद्र ने महाभारत युद्ध में मारे गए सभी वीरों के बारे में युधिष्ठिर को विस्तार पूर्वक बताया। इस प्रकार युधिष्ठिर अपने भाइयों व अन्य संबंधियों को वहां देखकर बहुत प्रसन्न हुए।
संदर्भ : महाभारत महाप्रास्थानिक पर्व