भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलरामजी को ही बलदाऊ और बलभद्र भी कहते हैं। योगमाया द्वारा देवकी के पेट से सप्तम गर्भ को खींचकर निकालकर उसे रोहिणी के गर्भ में डालने की इस क्रिया को संकर्षण कहा जाता है। गर्भ से खींचे जाने के कारण ही बलरामजी का एक नाम संकर्षण पड़ा। वे शेषनाग के अवतार हैं।
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श्रीकृष्ण और बलराम के पास नारदजी पहुंचते हैं और बताते हैं कि तीनों लोकों में आपकी नगरी की चर्चा हो रही है प्रभु। तब श्रीकृष्ण कहते हैं इसलिए हमने इसे चार धामों से एक धाम और सात पुरियों में से एक पुरी का पद प्रदान किया है।...फिर नारदजी कहते हैं कि प्रभु आप विवाह कब करेंगे? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं दाऊ भैया के पहले मैं कैसे विवाह कर सकता हूं, परिवेत्ता कहलाऊंगा। इस पर नारदजी कहते हैं कि दाऊ भैया कि चिंता आप न करें प्रभु। आपकी होने वाली भाभी इस समय पृथ्वी लोक की ओर ही आ रही है उनके स्वागत की तैयारियां कीजिये। तब श्रीकृष्ण पूछते हैं कौन आ रहा है और कब आ रहा है?
यह सुनकर नारदजी कहते हैं सबकुछ जानते हुए भी मुझी से पूछते हैं तो सुनिये, जब में ब्रह्मालोक पहुंचा तो मैंने देखा कि आनतनंदन सम्राट रैवत के पुत्र महाराज कुकुदनी अपनी पुत्री रेवती के साथ ब्रह्मलोक चले गए। जब वे वहां पहुंचे तो उसी समय मैं भी वहां पहुंचा और देखा कि ब्रह्माजी की सभा में संगीत गोष्ठी चल रही थी।
संगीत सभा समाप्त होने के बाद ब्रह्माजी की नजरें उनकी ओर जाती है तो वे कहते हैं आओ वत्स। कहो मृत्युलोक से यहां तक आने का कारण क्या है? तब महाराज ककुदनी उन्हें प्रणाम करके कहते हैं कि हे पितामह मेरी ये पुत्री यज्ञकुंड से उत्पन्न हुई है इस दिव्य कन्या के योग्य कोई भी वर मुझे सारी पृथ्वी में दिखाई नहीं दिया। इसलिए आपकी सेवा में यह पूछने आया हूं कि इसके लिए योग्य वर किस लोक में मिलेगा और वो कौन है?
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तब ब्रह्माजी कहते हैं कि इसका वर तुम्हें पृथ्वी लोक में ही मिलेगा। यह सुनकर राजा कहते हैं परंतु पितामह वहां तो कोई भी राजकुमार या राजा मुझे दिखाई नहीं दिया। यह सुनकर ब्रह्माजी कहते हैं कि तुम जिस राजकुमार और राजाओं की बात कर रहे हो उनमें से कोई भी इस समय जीवित नहीं है। यह सुनकर राजा कुकुदनी कहते हैं मैं समझा नहीं पितामह।
तब ब्रह्माजी कहते हैं वत्स मृत्युलोक और ब्रह्मलोक के काल की गति अलग-अलग होती है। धरा पर काल इतना शीघ्रगामी होता है कि ब्रह्मलोक के एक दिन में पृथ्वी पर कई चतुर्युग बित जाते हैं। सो ब्रह्मलोक में तुमने जो क्षण बिताएं हैं उतने में पृथ्वी पर तीन युग बित गए हैं। यह सुनकर राजा चौंक जाता है।....राजन अब और देर ना करो शीघ्रता से पृथ्वी पर लौट जाओ, तुम्हारे जाने तक वहां द्वापर युग का अंत होने वाला है। उस समय भगवान शेषनाग मनुष्य रूप में अवतार लेकर श्रीकृष्ण के साथ धरती पर लीला कर रहे होंगे। तुम्हारी पुत्री रेवती वास्तव में भगवान शेषनाग की पत्नी और नित्य सहचरी देवी नाग लक्ष्मी के अंश से ही मृत्युलोक में अपने पति भगवान अनंत की सेवा में प्रकट हुई है। आप इस कन्या का हाथ उनके हाथ में देकर न केवल अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाएंगे वरन प्रभु की कृपा से मोक्ष की प्राप्ति होगी।
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यह बातें बताकर नारदजी कहते हैं ब्रह्माजी से सुनकर मैं आपके पास चला आया हूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आपसे ये समाचार सुनकर मेरा तो रोम-रोम प्रफुल्लित हो गया है मुनिवर।...नारायण-नारायण कहते हुए नारदमुनि अंतरिक्ष की ओर देखते हैं तो उन्हें महाराज कुकुदनी और रेवती दिखाई देती हैं तो वे कहते हैं उधर देखिये महाप्रभु अनंत लोकों की यात्रा करते हुए आपकी भाभी और उनके पिता आ रहे हैं। अब आप और दाऊ भैया इनके स्वागत की तैयारियां करिये..मैं तो चला...नारायण-नारायण।
उधर, कृष्ण और बलराम सुंदर से उद्यान में टहल रहे होते हैं तभी उन्हें आकाश में महाराज ककुदनी और रेवती नजर आते हैं। फिर राजा ककुदनी दोनों को प्रणाम करके बताते हैं कि ब्रह्मा ने आप दोनों का रहस्य बता दिया है और मैं सतयुग में पैदा हुआ महाराज रैवत का पुत्र
कुकुदनी हूं और ये मेरी पुत्री यज्ञकुंड से जन्मी हैं। ब्रह्माजी ने ये आदेश दिया है कि मैं अपनी ये
पुत्री रेवती शेष भगवान को प्रदान करूं। क्योंकि ये आपकी नित्य सहचरी देवी नागमणि के अंश से ही उत्पन्न हुई है। सो मेरी इस पुत्री का पाणिग्रहण करके मुझे कृतार्थ करें।
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यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे सूर्यवंश से उत्पन्न महाराज आपके बारे में नारदजी ने हमें पहले ही सूचना दे दी थी। हम दोनों आपकी ही प्रतीक्षा ही कर रहे थे। इसलिए मैं अपने अग्रज दाऊ भैया कि ओर से इस संबंध को स्वीकार करता हूं।
फिर महाराज ककुदनी अपनी पुत्री का हाथ बलराम के हाथों में सौंप देते हैं। बलराम कहते हैं कि मैं आपको वचन देते हूं कि अपने सुख, ऐश्वर्य और वैभव में इनको बराबर का भागिदार बनाऊंगा, ये मेरे घर की स्वामिनी होंगी और हमारी गृहस्थी का सारा व्यापार इनकी इच्छा के अनुकूल ही होगा। फिर बलराम अपने हल को रेवती के सिर पर रखकर उनकी हाईट को कम करके अपने समान कर देते हैं।
फिर महाराज ककुदनी दोनों को आशीर्वाद देकर तपस्या करने चले जाते हैं।...फिर बलराम और रेवती का विधिवत रूप से विवाह होता है और नगर में इस विवाह उत्सव की धूम रहती है।