Hanuman Chalisa

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

श्रीकृष्ण ने क्यों दिया पांडवों का साथ, जबकि धर्म के मार्ग पर वे भी नहीं थे?

Advertiesment
हमें फॉलो करें mahabharata

अनिरुद्ध जोशी

कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने धर्म व सत्य का साथ दिया। उन्होंने कौरवों का साथ नहीं दिया, क्योंकि माना जाता था कि कौरव पापी और अधर्मी थे। कौरव जिद्दी, छली और कामी थे, लेकिन क्या पांडव ये सब नहीं थे?
 
 
कौरव पक्ष के कर्म-
भीष्म ने गांधारी की इच्छा के विरुद्ध धृतराष्ट्र से उसका विवाह करवाया था। दूसरी ओर काशी नरेश की 3 पुत्रियों का अपहरण कर उनका बलपूर्वक विचित्रवीर्य से विवाह करवाया था जिसमें से एक अम्बा ने आत्महत्या कर ली थी। भरी सभा में जब द्रौपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था तब भीष्म चुप थे। इसी तरह दुर्योधन ने अनगिनत पाप किए हैं। कहते हैं कि दुर्योधन ने भी भानुमति से बलपूर्वक विवाह किया था। दूसरा उसने छल से भीम को कालकूट विष पिला दिया था। पांडवों को बिना किसी अपराध के उसने ही तो जलाकर मारने की योजना को मंजूरी दी थी।
 
 
दुर्योधन और उसके सभी भाई निरंकुश थे। महाभारत में दुर्योधन के अनाचार और अत्याचार के किस्से भरे पड़े हैं। दुर्योधन की जिद, अहंकार और लालच ने लोगों को युद्ध की आग में झोंक दिया था इसलिए दुर्योधन को महाभारत का खलनायक कहा जाता है। कहते हैं कि दुर्योधन कलियुग का अंश था तो उसके 100 भाई पुलस्त्य वंश के राक्षस के अंश से थे। शकुनि ने दुर्योधन को भड़काया और पांडवों को जुआ खेलने पर मजबूर किया। उन्होंने ही गांधारी के परिवार को कैद कर रखा था। जब गांधारी गर्भ से थी तब धृतराष्ट्र ने अपनी ही सेविका के साथ सहवास किया जिससे उनको युयुत्सु नाम का एक पुत्र मिला। वयोवृद्ध और ज्ञानी होने के बावजूद धृतराष्ट्र के मुंह से कभी न्यायसंगत बात नहीं निकली। पुत्रमोह में उन्होंने कभी गांधारी की न्यायोचित बात पर ध्यान नहीं दिया। इस तरह देखें तो कौरव पक्ष में कई ऐसे लोग थे, जो कि पापी और अनाचारी थे।
 
 
पांडव पक्ष के कर्म-
द्यूत क्रीड़ा करना एक व्यसन और पाप कर्म था लेकिन यह जानते हुए भी युधिष्‍ठिर ने इसे खेला। इन्द्रप्रथ का निर्माण करने के बाद युधिष्ठिर उस समय राजसूय यज्ञ के पश्चात चक्रवर्ती सम्राट बन गए थे व उन्हें अपने अथाह धन व कीर्ति पर गर्व था। जब उनके पास सबकुछ था तब भी उन्होंने क्यों जुआ खेलने का कर्म किया? युधिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगाया और वे हार गए। क्या अपनी पत्नी को जुए में दांव पर लगाना अनैतिक और अधर्म नहीं था?
 
 
इससे पहले क्या किसी महिला को सभी भाइयों की पत्नी बना देना धर्मसम्मत है? क्या युधिष्‍ठिर और कुंती इसका विरोध नहीं कर सकते थे? फिर द्रौपदी के होते हुए सभी पांडवों ने दूसरी महिलाओं से अलग-अलग विवाह किया, क्या यह भी उचित था?
 
श्रीकृष्ण ने क्यों दिया पांडवों का साथ?
दरअसल, द्यूत क्रीड़ा एक बुराई है यह जानते हुए भी युधिष्‍ठिर ने इससे खेलने को स्वीकार किया। शकुनि और दुर्योधन ने उन्हें सार्वजनिक रूप से इसका निमंत्रण भेजा था और उस दौर में यह क्रीड़ा क्षत्रियों में ज्यादा प्रचलित थी। दुर्योधन का द्यूत का निमंत्रण भेजने के पीछे मात्र एक मकसद था। बिना युद्ध किए पांडवों से उनका राज्य व संपत्ति हड़प लेना।
 
 
द्यूत का निमंत्रण रिश्तेदारों के साथ सौहार्दपूर्ण वातावरण में मैत्री की भावना से खेले जाने वाले खेल के रूप में आया था। यह निमंत्रण धृतराष्ट्र की ओर से विदुर लेकर आए थे। यानी हर तरह से दुर्योधन ने यह सुनिश्चित कर लिया था कि बिना उपहास का पात्र बने युधिष्ठिर इसे अस्वीकार न कर सकें। सहदेव के रोकने पर व स्वयं अपने दुराग्रह के उपरांत भी युधिष्ठिर ने इसे स्वीकार कर लिया। द्यूत से पहले पांडवों का भव्य स्वागत हुआ, सौहार्द व मित्रता की नदियां बहीं और युधिष्ठिर को यह आभास ही नहीं होने दिया गया कि वे एक मछली हैं, जो फंस गई है।

धीरे-धीरे युधिष्‍ठिर और पांडव पक्ष को दुर्योधन और शकुनि ने अपने जाल में फांस लिया। अब ऐसे में असहाय युधिष्ठिर अपनी मति खोकर किसी भी तरह पुन: अपना सबकुछ जीतकर वापस लेना चाहते थे। ऐसे में ही उन्होंने नीति का ध्यान रखे बगैर अपनी पत्नी को भी दांव पर लगा दिया। यहां युधिष्ठिर का नैतिक पतन हुआ, यह सत्य है। उन्होंने वो किया जो एक राजा, एक परिवार का मुखिया व एक बड़ा भाई होने के नाते उन्हें कदापि नहीं करना चाहिए था। क्रोध, अपमान, ग्लानि व लालच ने उनके विवेक को हर लिया था।
 
 
यहां धर्मराज धर्म के मार्ग से विमुख हो गए थे। लेकिन उस वक्त यदि दुर्योधन में अंशमात्र भी धर्म की भावना होती तो वह पांडवों को मुक्त कर वहां से जाने देता, चाहे उनका राज्य रख लेता। कभी भी द्रौपदी का चीरहरण नहीं करता। किंतु वह पापी था। उसके मन में पाप था और पांडव पक्ष उसके जाल में फंस गए थे। युधिष्ठिर औरदुर्योधन दोनों गलत हैं किंतु दोनों की मंशा में बहुत अंतर है और इसी अंतर से एक धर्म के प्रतिकूल जाकर भी धर्मराज बना रहा व दूसरा धर्म से बहुत नीचे गिर गया।
 
 
दूसरी बात द्रौपदी स्वयंवर की प्रतियोगिता तो अर्जुन ने ही जीती थी लेकिन कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं कि न चाहते हुए भी पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करना पड़ा। इसके पीछे कई कारण थे। पहला तो भगवान शिव का द्रौपदी को दिया गया वरदान और दूसरा कुंती के कारण द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी बनी। इसके अलावा स्वयंवर में अर्जुन द्वारा प्रतियोगिता जीतने के बाद द्रौपदी का विवाह अर्जुन से होने वाला था। लेकिन युधिष्ठिर और द्रुपद के संवाद के बीच वहां वेदव्यासजी आए और उन्होंने राजा द्रुपद को एकांत में ले जाकर समझाया और उन्हें भगवान शिव के वरदान के बारे में बताया। तब द्रुपद मान गए और उन्होंने सभी पांडवों के साथ द्रौपदी का विवाह करना स्वीकार कर लिया।
 
 
इस तरह हमने देखा कि पांडवों ने धर्म का मार्ग तो कभी छोड़ा नहीं था लेकिन उनके समक्ष हर बार धर्म संकट जैसी स्थिति खड़ी होती गई। दरअसल, पांडवों की नीयत कभी खराब नहीं रही। उन्होंने धर्म और सत्य के लिए ही कार्य किया, लेकिन कौरवों ने छलपूर्वक उनकी संपत्ति और स्त्री को हड़पने का कार्य किया और छलपूर्वक उन्हें वनवास भेज दिया गया। उनका प्रारंभिक जीवन भी कष्ट में बीता और 14 वर्ष वनवास में रहकर उन्होंने कष्ट ही झेला। लेकिन जब वे वनवास से लौटे तब उन्हें उनका हक मिलना था लेकिन कौरवों ने उन्हें उनका हक नहीं दिया जिसके परिणामस्वरूप युद्ध हुआ।
 
 
युद्ध में स्वाभाविक था कि श्रीकृष्ण को किसी एक का साथ तो देना ही था। भगवान श्रीकृष्‍ण के लिए दुर्योधन और अर्जुन दोनों ही उनके रिश्‍तेदार थे। श्रीकृष्‍ण का पुत्र साम्ब दुर्योधन का दामाद था। बलराम की भी अर्जुन और दुर्योधन से गहरी रिश्‍तेदारी और मित्रता थी। ऐसे में बलराम के लिए तो धर्मसंकट ही था। बलराम ने श्रीकृष्ण को समझाया भी था कि तुम्हें दोनों की लड़ाई के बीच में नहीं पड़ना चाहिए, लेकिन कृष्ण ने बलराम की नहीं सुनी।
 
 
श्रीकृष्ण ने दोनों ही पक्षों का विश्लेषण किया और वे जानते थे कि कौन सही और कौन गलत है? जब उन्होंने अर्जुन से कहा कि युद्ध में तुम्हें मुझे या मेरी नारायणी सेना में से किसी एक को चुनना होगा तो अर्जुन से श्रीकृष्ण को चुना था। इस चुनाव से दुर्योधन बहुत खुश हुआ था, क्योंकि दुर्योधन तो चाहता ही था कि मेरी ओर से श्रीकृष्ण की सेना लड़ाई लड़े।

इससे पहले ऐसे कई मौके आए, जब पांडवों ने श्रीकृष्‍ण के प्रति अपनी भक्ति को प्रकट किया और दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की अपमान ही किया था। कौरव पक्ष ने कभी भी श्रीकृष्ण की बातों का मान नहीं रखा, जैसे जब वे संधि प्रस्ताव लेकर गए थे तब भी दुर्योधन ने उनके समक्ष अभद्रतापूर्ण क्रोध का प्रदर्शन किया था। अत: ऐसे कई कारण थे कि जिससे यह पता चलता है कि कौरव पक्ष अधर्मी था और पांडव पक्ष धर्मी।

 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi