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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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महाभारत युद्ध के 18 गुप्त रहस्य

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अनिरुद्ध जोशी

प्राचीन भारत का इतिहास है #महाभारत।श्रीकृष्ण द्वैपायन नाम के वेदव्यास ने यह ग्रंथ श्रीगणेशजी की मदद से लिखा था। जीवन के रहस्यों से भरे इस ग्रंथ को 'पंचम वेद' कहा गया है। यह ग्रंथ हमारे देश के मन-प्राण में बसा हुआ है। यह भारत की राष्ट्रीय गाथा है। इस ग्रंथ में तत्कालीन भारत का समग्र इतिहास वर्णित है। यह ग्रंथ अपने आदर्श स्त्री-पुरुषों के चरित्रों से हमारे देश के जन-जीवन को यह प्रभावित करता रहा है। इसमें सैकड़ों पात्रों, स्थानों, घटनाओं तथा विचित्रताओं व विडंबनाओं का वर्णन है। प्रत्येक हिंदू के घर में महाभारत होना चाहिए।
तीन चरणों में लिखी  #mahabharat  : वेदव्यास की महाभारत को बेशक मौलिक माना जाता है, लेकिन वह तीन चरणों में लिखी गई। पहले चरण में 8,800 श्लोक, दूसरे चरण में 24 हजार और तीसरे चरण में एक लाख श्लोक लिखे गए। वेदव्यास की महाभारत के अलावा भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे की संस्कृत महाभारत सबसे प्रामाणिक मानी जाती है। अंग्रेजी में संपूर्ण महाभारत दो बार अनूदित की गई थी। पहला अनुवाद 1883-1896 के बीच किसारी मोहन गांगुली ने किया था और दूसरा मनमंथनाथ दत्त ने 1895 से 1905 के बीच। 100 साल बाद डॉ. देबरॉय तीसरी बार संपूर्ण महाभारत का अंग्रेजी में अनुवाद कर रहे हैं।
 
28वें वेदव्यास ने लिखी महाभारत : ज्यादातर लोग यह जानते हैं कि महाभारत को वेदव्यास ने लिखा है लेकिन यह अधूरा सच है। वेदव्यास कोई नाम नहीं, बल्कि एक उपाधि थी, जो वेदों का ज्ञान रखने वाले लोगों को दी जाती थी। कृष्णद्वैपायन से पहले 27 वेदव्यास हो चुके थे, जबकि वे खुद 28वें वेदव्यास थे। उनका नाम कृष्णद्वैपायन इसलिए रखा गया, क्योंकि उनका रंग सांवला (कृष्ण) था और वे एक द्वीप पर जन्मे थे।
 
महाभारत में कई घटना, संबंध और ज्ञान-विज्ञान के रहस्य छिपे हुए हैं। महाभारत का हर पात्र जीवंत है, चाहे वह कौरव, पांडव, कर्ण और कृष्ण हो या धृष्टद्युम्न, शल्य, शिखंडी और कृपाचार्य हो। महाभारत सिर्फ योद्धाओं की गाथाओं तक सीमित नहीं है। महाभारत से जुड़े शाप, वचन और आशीर्वाद में भी रहस्य छिपे हैं। आओ जानते हैं कि ऐसे कौन कौन से रहस्य महाभारत में छुपे हुए हैं। महाभारत युद्ध और उससे जुड़े 18 रहस्यों का एक अद्भुत आलेख...। दावा है कि आप निश्चित ही चौंक जाएंगे। साथ ही इस 18 पेज को पढ़ने के बाद आप महाभारत के संबंध में सब कुछ जान जाएंगे।
 
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अगले पन्ने पर पहला रहस्य...

महाभारत के योद्धा किसके पुत्र या अवतार थे? महाबली बलराम शेषनाग के अंश थे। आठ वसुओं में से एक 'द्यु' नामक वसु ने ही भीष्म के रूप में जन्म लिया था। देवगुरु बृहस्पति ने ही द्रोणाचार्य के रूप में जन्म लिया था। गुरु द्रोणाचार्य के अश्‍वत्थामा को महादेव, यम, काल और क्रोध के सम्मिलित अंश से उत्पन्न किया गया था। देवताओं में सबसे प्रमुख सूर्यदेव के पुत्र कर्ण थे। कर्ण सूर्य के अंशावतार थे। दुर्योधन कलियुग का तथा उसके 100 भाई पुलस्त्य वंश के राक्षस के अंश थे।
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अर्जुन के धर्मपिता पांडु थे, लेकिन असल में वे इन्द्र-कुंती के पुत्र थे। भीम को पवनपुत्र कहा जाता है। हनुमानजी भी पवनपुत्र ही थे। युधिष्ठिर धर्मराज-कुंती के पुत्र थे। युधिष्ठिर के धर्मपिता पांडु थे और वे 5 पांडवों में से सबसे बड़े भाई थे। नकुल और सहदेव 33 देवताओं में से 2 अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे। ये दो अश्‍विनी कुमार थे- 1. नासत्य और 2. दस्त्र।
 
रुद्र के एक गण ने कृपाचार्य के रूप में अवतार लिया। द्वापर युग के अंश से शकुनि का जन्म हुआ। अरिष्टा के पुत्र हंस नामक गंधर्व धृतराष्ट्र तथा उसका छोटा भाई पाण्डु के रूप में जन्मे। सूर्य के अंश धर्म ही विदुर के नाम से प्रसिद्ध हुए। कुंती और माद्री के रूप में सिद्धि और धृतिका का जन्म हुआ था। मति का जन्म राजा सुबल की पुत्री गांधारी के रूप में हुआ था। राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मणी के रूप में लक्ष्मीजी व द्रौपदी के रूप में इंद्राणी उत्पन्न हुई थीं। अभिमन्यु चंद्रमा के पुत्र वर्चा का अंश था।
 
मरुतगण के अंश से सात्यकि, द्रुपद, कृतवर्मा व विराट का जन्म हुआ था। अग्नि के अंश से धृष्टधुम्न व राक्षस के अंश से शिखंडी का जन्म हुआ था। विश्वदेवगण द्रौपदी के पांचों पुत्र प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, शतानीक और श्रुतसेव के रूप में पैदा हुए थे।  दानवराज विप्रचित्ति जरासंध व हिरण्यकशिपु शिशुपाल का अंश था। कालनेमि दैत्य ने ही कंस का रूप धारण किया था।  इंद्र की आज्ञानुसार अप्सराओं के अंश से 16 हजार स्त्रियां उत्पन्न हुई थीं।  
 
अगले पन्ने पर दूसरा रहस्य...
 

18 का रहस्य : कहते हैं कि महाभारत युद्ध में 18 संख्‍या का बहुत महत्व है। महाभारत की पुस्तक में 18 अध्याय हैं। कृष्ण ने कुल 18 दिन तक अर्जुन को ज्ञान दिया। 18 दिन तक ही युद्ध चला। गीता में भी 18 अध्याय हैं। कौरवों और पांडवों की सेना भी कुल 18 अक्षोहिनी सेना थी जिनमें कौरवों की 11 और पांडवों की 7 अक्षोहिनी सेना थी। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी 18 थे। इस युद्ध में कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे थे। सवाल यह उठता है कि सब कुछ 18 की संख्‍या में ही क्यों होता गया? क्या यह संयोग है या इसमें कोई रहस्य छिपा है?
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कुल 18 अध्याय हैं- अर्जुनविषादयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, ज्ञानकर्मसंन्यासयोग, कर्मसंन्यासयोग, आत्मसंयमयोग, ज्ञानविज्ञानयोग, अक्षरब्रह्मयोग, राजविद्याराजगुह्ययोग, विभूतियोग, विश्वरूपदर्शनयोग, भक्तियोग,  क्षेत्र, क्षेत्रज्ञविभागयोग, गुणत्रयविभागयोग, पुरुषोत्तमयोग, दैवासुरसम्पद्विभागयोग, श्रद्धात्रयविभागयोग और मोक्षसंन्यासयोग।  
 
महाभारत ग्रंथ में कुल 18 पर्व हैं- आदि पर्व, सभा पर्व, वन पर्व, विराट पर्व, उद्योग पर्व, भीष्म पर्व, द्रोण पर्व, अश्वमेधिक पर्व, महाप्रस्थानिक पर्व, सौप्तिक पर्व, स्त्री पर्व, शांति पर्व, अनुशासन पर्व, मौसल पर्व, कर्ण पर्व, शल्य पर्व, स्वर्गारोहण पर्व तथा आश्रम्वासिक पर्व।  मालूम हो क‍ि ऋषि वेदव्यास ने 18 पुराण भी रचे हैं। 
 
अगले पन्ने पर तीसरा रहस्य...
 

कौरवों का जन्म एक रहस्य : कौरवों को कौन नहीं जानता। धृतराष्ट्र और गांधारी के 99 पुत्र और एक पुत्री थीं जिन्हें कौरव कहा जाता था। कुरु वंश के होने के कारण ये कौरव कहलाए। सभी कौरवों में दुर्योधन सबसे बड़ा था। गांधारी जब गर्भवती थी, तब धृतराष्ट्र ने एक दासी के साथ सहवास किया था जिसके चलते युयुत्सु नामक पुत्र का जन्म हुआ। इस तरह कौरव सौ हो गए। युयुत्सु एन वक्त पर कौरवों की सेना को छोड़कर पांडवों की सेना में शामिल हो गया था।
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गांधारी ने वेदव्यास से पुत्रवती होने का वरदान प्राप्त कर किया। गर्भ धारण कर लेने के पश्चात भी दो वर्ष व्यतीत हो गए, किंतु गांधारी के कोई भी संतान उत्पन्न नहीं हुई। इस पर क्रोधवश गांधारी ने अपने पेट पर जोर से मुक्के का प्रहार किया जिससे उसका गर्भ गिर गया। वेदव्यास ने इस घटना को तत्काल ही जान लिया। वे गांधारी के पास आकर बोले- 'गांधारी! तूने बहुत गलत किया। मेरा दिया हुआ वर कभी मिथ्या नहीं जाता। अब तुम शीघ्र ही सौ कुंड तैयार करवाओ और उनमें घृत (घी) भरवा दो।'
 
वेदव्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांस पिण्ड पर अभिमंत्रित जल छिड़का जिससे उस पिण्ड के अंगूठे के पोरुये के बराबर सौ टुकड़े हो गए। वेदव्यास ने उन टुकड़ों को गांधारी के बनवाए हुए सौ कुंडों में रखवा दिया और उन कुंडों को दो वर्ष पश्चात खोलने का आदेश देकर अपने आश्रम चले गए। दो वर्ष बाद सबसे पहले कुंड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। फिर उन कुंडों से धृतराष्ट्र के शेष 99 पुत्र एवं दु:शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ।
 
अगले पन्ने पर चौथा रहस्य...
 

महाभारत काल में विमान और परमाणु अस्त्र थे? : मोहन जोदड़ो में कुछ ऐसे कंकाल मिले थे जिसमें रेडिएशन का असर था। महाभारत में सौप्तिक पर्व के अध्याय 13 से 15 तक ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिए गए हैं। हिंदू इतिहास के जानकारों के मुताबिक 3 नवंबर 5561 ईसापूर्व छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र परमाणु बम ही था?
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महाभारत में इसका वर्णन मिलता है- ''तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम।।'' ''सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम। चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा।।'' 8 ।। 10 ।।14।।
 
अर्थात ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने के बाद भयंकर वायु जोरदार तमाचे मारने लगी। सहस्रावधि उल्का आकाश से गिरने लगे। भूतमातरा को भयंकर महाभय उत्पन्न हो गया। आकाश में बड़ा शब्द हुआ। आकाश जलाने लगा पर्वत, अरण्य, वृक्षों के साथ पृथ्वी हिल गई।
 
अब सवाल यह उठता है कि क्या सचमुच ही हमारी आज की टेक्नोलॉजी से कहीं ज्यादा उन्नत थी महाभारतकालीन टेक्नोलॉजी?
 
अगले पन्ने पर पांचवां रहस्य...
 

महान योद्धा बर्बरीक और घटोत्कच : भीम के पुत्र घटोत्कच और पौत्र बर्बरिक के बारे में कहा जाता है कि इन दोनों की सामान्य मानवों से कई गुना ज्यादा ऊंचाई थी। माना जाता है कि कद-काठी के हिसाब से भीम पुत्र घटोत्कच इतना विशालकाय था कि वह लात मारकर रथ को कई फुट पीछे फेंक देता था और सैनिकों तो वह अपने पैरों तले कुचल देता था। भीम की असुर पत्नी हिडिम्बा से घटोत्कच का जन्म हुआ था।
 
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जन्म लेते समय उसके सिर पर केश (उत्कच) नहीं थे इसलिए उसका नाम घट-हाथी का मस्तक + उत्कच= केशहीन अर्थात घटोत्कच रखा गया। इसका मस्तक हाथी के मस्तक जैसा और केशशून्य होने के कारण यह घटोत्कच नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह अत्यंत मायावी निकला और जन्म लेते ही बड़ा हो गया। उसमें जहां शारीरिक बल था वहीं वह मायावी भी था। चूंकि घटोत्कच की माता एक राक्षसी थी, पिता एक वीर क्षत्रिय था इसलिए इसमें मनुष्य और राक्षस दोनों के मिश्रित गुण विद्यमान थे। वह बड़ा क्रूर और निर्दयी था।
 
घटोत्कच ने युद्ध में अपने विशाल शरीर से हाहाकार मचा रखा था। वे एक ही बार में अपनी पैरों के नीचे कई सैनिकों को कुचल कर मार देते थे जिससे घबराकर दुर्योधन ने कर्ण को अमोघ अस्त्र चलाने का आदेश दिया। इस अस्त्र से घटोत्कच वीरगति को प्राप्त हुए। दूसरी ओर बर्बरीक दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे। बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरवों और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। 
 
युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य बिन्दु एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा। बर्बरीक की इस घोषणा से कृष्ण चिंतित हो गए थे। तब भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण का भेष बनाकर सुबह बर्बरीक के शिविर के द्वार पर पहुंच गए और दान मांगने लगे। बर्बरीक ने कहा- मांगो ब्राह्मण! क्या चाहिए? ब्राह्मणरूपी कृष्ण ने कहा कि तुम दे न सकोगे। लेकिन बर्बरीक कृष्ण के जाल में फंस गए और कृष्ण ने उससे उसका शीश मांग लिया।
 
बर्बरीक द्वारा अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु स्वेच्छा के साथ शीशदान कर दिया गया। बर्बरीक के इस बलिदान को देखकर दान के पश्चात श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को कलियुग में स्वयं के नाम से पूजित होने का वर दिया। आज बर्बरीक को खाटू श्याम के नाम से पूजा जाता है। जहां कृष्ण ने उसका शीश रखा था उस स्थान का नाम खाटू है।
 
अगले पन्ने पर छठा रहस्य...
 

श्रीकृष्ण का जीवन एक रहस्य : महाभारत की प्रत्येक घटना को श्रीकृष्ण ही संचालित करते हुए नजर आते हैं। दुर्योधन को माता के समक्ष नग्न जाने से रोकना, कर्ण को कवच कुंडलों को इंद्र द्वारा दान में मांग लेना, बर्बरिक से दान में उसका शीम मांग लेना और युक्ति पूर्वक कर्ण, द्रोण और भीष्म को युद्ध में मारवा देना यह सभी श्रीकृष्ण की नीति से ही संभव होता है। श्रीकृष्ण के कारण ही यह युद्ध हुआ और उन्हीं ने इस युद्ध को पांडवों के पक्ष में वीजित किया।
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श्रीकृष्ण और आठ का अंक : भविष्यवाणी के अनुसार विष्णु को देवकी के गर्भ से कृष्ण के रूप में जन्म लेना था, तो उन्होंने अपने 8वें अवतार के रूप में 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के 7 मुहूर्त निकल गए और 8वां उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न उपस्थित हुआ। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में लगभग 3112 ईसा पूर्व (अर्थात आज से 5126 वर्ष पूर्व) को हुआ हुआ। ज्योतिषियों के अनुसार रात 12 बजे उस वक्त शून्य काल था। श्रीकृष्ण के आठ पन्नियां थीं। उनके जीवन में आठ नगरों का महत्व ज्यादा रहा। मथुरा, गोकुल, गोवर्धन, वृंदावन, अवंतिका, हस्तिनापुर, द्वारिका और प्रभाष क्षेत्र।
 
अगले पन्ने पर सातवां रहस्य...
 

विचित्र शक्तियों से संपन्न योद्ध : महाभारत में एक से एक बढ़कर योद्धा थे जो शक्तिशाली होने के साथ ही विचित्र किस्म की सिद्धियों और चमत्कारों से भी संपन्न थे। श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान विष्णु थे, लेकिन उनके समक्ष और सामने जो योद्धा लड़ रहे थे वे भी कम नहीं थे। 
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*सहदेव भविष्य में होने वाली हर घटना को पहले से ही जान लेते थे। वे जानते थे कि महाभारत होने वाली है और कौन किसको मारेगा और कौन विजयी होगा। लेकिन भगवान कृष्ण ने उसे शाप दिया था कि अगर वह इस बारे में लोगों को बताएगा तो उसकी मृत्य हो जाएगी।

*बर्बरीक दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर थे। बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरवों और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य बिन्दु एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा। लेकिन श्रीकृष्ण से उसे भी ठीकाने लगा दिया।
 
*महाभारत युद्ध में संजय वेदादि विद्याओं का अध्ययन करके वे धृतराष्ट्र की राजसभा के सम्मानित मंत्री बन गए थे। आज के दृष्टिकोण से वे टेलीपैथिक विद्या में पारंगत थे। कहते हैं कि गीता का उपदेश दो लोगों ने सुना, एक अर्जुन और दूसरा संजय।
 
*गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा हर विद्या में पारंगत थे। वे चाहते तो पहले दिन ही युद्ध का अंत कर सकते थे, लेकिन कृष्ण ने ऐसा कभी होने नहीं दिया। कृष्‍ण यह जानते थे कि पिता-पुत्र की जोड़ी मिलकर ही युद्ध को समाप्त कर सकती है।
 
*कर्ण से यदि कवच-कुंडल नहीं हथियाए होते, यदि कर्ण इन्द्र द्वारा दिए गए अपने अमोघ अस्त्र का प्रयोग घटोत्कच पर न करते हुए अर्जुन पर करता तो आज भारत का इतिहास और धर्म कुछ और होता।
*कुंती-वायु के पुत्र थे भीम अर्थात पवनपुत्र भीम। भीम में हजार हाथियों का बल था। युद्ध में भीम से ज्यादा शक्तिशाली उनका पुत्र घटोत्कच ही था। घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक था। 
 
*माना जाता है कि कद-काठी के हिसाब से भीम पुत्र घटोत्कच इतना विशालकाय था कि वह लात मारकर रथ को कई फुट पीछे फेंक देता था और सैनिकों तो वह अपने पैरों तले कुचल देता था। भीम की असुर पत्नी हिडिम्बा से घटोत्कच का जन्म हुआ था।
 
*शांतनु-गंगा के पुत्र भीष्म का नाम देवव्रत था। उनको इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। 
 
*दुर्योधन का शरीर वज्र के समान कठोर था, जिसे किसी धनुष या अन्य किसी हथियार से छेदा नहीं जा सकता था। लेकिन उसकी जांघ श्रीकृष्ण के छल के कारण प्राकृतिक ही रह गई थी। इस कारण भीम ने उसकी जांघ पर वार करके उसके शरीर के दो फाड़ कर दिए थे। 
 
*जरासंघ का शरीर दो फाड़ करने के बाद पुन: जुड़ जाता था। तब श्रीकृष्ण ने भीम को इशारों में समझाया की दो फाड़ करने के बाद दोनों फाड़ को एक दूसरे की विपरित दिशा में फेंक दिया जाए।  
                  
अगले पन्ने पर आठवां रहस्य...

महाभारत में न तो कौरवों ने युद्ध लड़ा और न पांडवों ने : आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि महाभारत में न तो कौरवों ने युद्ध लड़ा और न ही पांडवों ने। कौरव उसे कहते हैं जो कुरुवंश का हो। कुरुवंश के दो योद्धा भीष्म। उसी तरह जब पांडु का कोई पुत्र था ही नहीं तो कैसे पांचों कुंती पुत्र को पांडव कहेंगे?
 
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कौन थे 100 कौरव : कौरव महाभारत में हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र और गांधारी के पुत्र थे। ये संख्या में 100 थे तथा कुरू के वंशज थे। सभी कौरवों में दुर्योधन सबसे बड़ा था। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या सभी कौरव और पांडव कुरू के वंशज थे? यदि नहीं थे तो फिर वे किसके वंशज थे। दूसरा सवाल यदि धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव नहीं थे तो फिर कौरव कौन थे?
 
पुराणों के अनुसार ब्रह्माजी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानंदन पुरुरवा का जन्म हुआ। पुरुरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पुरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरू हुए। कुरू के वंश में शांतनु का जन्म हुआ। कुरू से वंशजों को कौरव कहा जाता है।
 
महाराजा शांतनु की पत्नी का नाम था गंगा। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया। यह कुरूवंश की एक शाखा का अंतिम राजा था। बाद में राजा शांतनु का निषाद जाति की एक महिला सत्यवती से प्रेम हो गया। सत्यवती के कारण देवव्रत को आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा लेना पड़ी।
 
शांतनु को सत्यवती से दो पुत्र मिले चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद युद्ध में मारा गया जबकि विचित्रवीर्य का विवाह भीष्म ने काशीराज की पुत्री अंबिका और अंबालिका से कर दिया। लेकिन विचित्रवीर्य को कोई संतान नहीं हो रही थी तब चिंतित सत्यवती ने कुंवारी अवस्था में पराशर मुनि से उत्पन्न अपने पुत्र वेद व्यास को बुलाया और उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी कि अंबिका और अंबालिका को कोई पुत्र मिले। अंबिका से धृतराष्ट्र और अंबालिका से पांडु का जन्म हुआ जबकि एक दासी से विदुर का। इस तरह देखा जाए तो पराशर मुनि का वंश चला।
 
वेद व्यासजी ने महाभारत को लिखा था। वेद व्यास कौन थे? वेद व्यास सत्यवती के पुत्र थे और उनके पिता ऋषि पराशर थे। सत्यवती जब कुंवारी थी, तब वेद व्यास ने उनके गर्भ से जन्म लिया था। बाद में सत्यवती ने हस्तिनापुर महाराजा शांतनु से विवाह किया था। वेद व्यास का असली नाम कृष्ण द्वैपायन था।
 
पांडु की पत्नी कुंती के पुत्र युधिष्ठिर के जन्म का समाचार मिलने के बाद धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी के मन में भी पुत्रवती होने की इच्छा जाग्रत हुई, लेकिन धृतराष्ट्र के लाख प्रयासों के बावजूद कोई पुत्र जन्म नहीं ले पा रहा था तब एक बार फिर से वेद व्यास को बुलाया गया और वेद व्यास की कृपा से गांधारी ने गर्भ धारण किया।
 
गर्भ धारण के पश्चात 2 वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी जब पुत्र का जन्म नहीं हुआ तो क्रोधवश गांधारी ने अपने पेट में मुक्का मारकर अपना गर्भ गिरा दिया। योगबल से वेद व्यास को इस घटना को तत्काल जान लिया और उन्होंने गांधारी के पास आकर अपने क्रोध को प्रकट किया। फिर उन्होंने कहा कि तुरंत ही 100 कुंड तैयार कर उसमें घृत भरवा दो।
 
गांधारी ने उनकी आज्ञानुसार 100 कुंड बनवा दिए। तब वेद व्यास ने गांधारी के गर्भ से निकले मांसपिंड पर अभिमंत्रित जल छिड़का जिसके चलते उस पिंड के अंगूठे के पोर बराबर 100 टुकड़े हो गए। वेद व्यास ने उन टुकड़ों को गांधारी के बनवाए 100 कुंडों में रखवा दिया और उन कुंडों को 2 वर्ष पश्चात खोलने का आदेश दे अपने आश्रम चले गए। 2 वर्ष बाद सबसे पहले कुंड से दुर्योधन की उत्पत्ति हुई। दुर्योधन के जन्म के दिन ही कुंती के पुत्र भीम का भी जन्म हुआ। दुर्योधन जन्म लेते ही गधे की तरह रेंकने लगा।
 
ज्योतिषियों से इसका लक्षण पूछे जाने पर उन लोगों ने धृतराष्ट्र को बताया, 'राजन्! आपका यह पुत्र कुल का नाश करने वाला होगा।' फिर उन कुंडों से क्रमश: शेष 99 पुत्र एवं दुश्शला नामक एक कन्या का जन्म हुआ। गांधारी गर्भ के समय धृतराष्ट्र की सेवा में असमर्थ हो गई थी अतएव उनकी सेवा के लिए एक दासी रखी गई। धृतराष्ट्र के सहवास से उस दासी का भी युयुत्सु नामक एक पुत्र हुआ। युवा होने पर सभी राजकुमारों का विवाह यथायोग्य कन्याओं से कर दिया गया। दुश्शला का विवाह जयद्रथ के साथ हुआ।
 
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पांडव नहीं थे पांडु पुत्र : एक बार राजा पांडु अपनी दोनों पत्नियों कुंती तथा माद्री के साथ वन में आखेट के लिए निकले। वहां उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोड़ा दिखाई दिया। पांडु ने तत्काल उस मृग को एक बाण मार दिया। मरते हुए मृग ने पांडु को शाप दिया, 'राजन! तुम्हारे समान क्रूर पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। तूने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी भी मृत्यु हो जाएगी।'
 
इस शाप से पांडु अत्यंत दुःखी हुए और अपनी रानियों से बोले, 'अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग करके इस वन में ही रहूंगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ।' दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, 'हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रहने दीजिए।' पांडु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया।
 
एक दिन पांडु अपनी पत्नी से बोले, 'हे कुंती! मेरा जन्म लेना ही व्यर्थ हो रहा है, क्योंकि संतानहीन व्यक्ति पितृ-ऋण, ऋषि-ऋण, देव-ऋण तथा मनुष्य-ऋण से मुक्ति नहीं पा सकता क्या तुम पुत्र प्राप्ति के लिए मेरी सहायता कर सकती हो?' 
 
कुंती बोली, 'हे आर्य! दुर्वासा ऋषि ने मुझे ऐसा मंत्र प्रदान किया है जिससे मैं किसी भी देवता का आह्वान करके मनोवांछित वस्तु प्राप्त कर सकती हूं। आप आज्ञा करें मैं किस देवता को बुलाऊं?' 
 
इस पर पांडु ने धर्म को आमंत्रित करने का आदेश दिया। धर्म ने कुंती को पुत्र प्रदान किया जिसका नाम युधिष्ठिर रखा गया। कालांतर में पांडु ने कुंती को पुनः दो बार वायुदेव तथा इन्द्रदेव को आमंत्रित करने की आज्ञा दी। वायुदेव से भीम तथा इन्द्र से अर्जुन की उत्पत्ति हुई। बाद में कुंती ने माद्री को उक्त मंत्र की दीक्षा दे दी। माद्री ने अश्वनीकुमारों को आमंत्रित किया किया और इस तरह नकुल तथा सहदेव का जन्म हुआ।
 
एक दिन राजा पांडु माद्री के साथ वन में सरिता के तट पर भ्रमण कर रहे थे। सहसा वायु के झोंके से माद्री का वस्त्र उड़ गया। इससे पांडु का मन चंचल हो उठा और वे मैथुन में प्रवृत्त हुए ही थे कि शापवश उनकी मृत्यु हो गई। बाद में माद्री उनके साथ सती हो गई। ऐसे में सभी पुत्रों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी कुंती पर आ गई और इस तरह कुंती ने हस्तिनापुर लौटकर अपने पुत्रों के हक की लड़ाई लड़ी।
 
इस तरह पांडवों की मां दो थी और छह पिता थे। कुंती के चार पुत्र कर्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम थे जबकि माद्री के पुत्र नकुल और सहदेव थे।
 
अगले पन्ने पर नौवां रहस्य...
 

महाभारत के मृत या जीवित बचे योद्ध : लाखों लोगों के मारे जाने के बाद लगभग 24,165 कौरव सैनिक लापता हो गए थे। जबकि महाभारत के युद्ध के पश्चात कौरवों की तरफ से 3 और पांडवों के तरफ से 15 यानी कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे थे। माना जाता है कि महाभारत युद्ध में एकमात्र जीवित बचा कौरव युयुत्सु था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार 18 थे जिनके नाम इस प्रकार हैं- धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दुशासन, कर्ण, शकुनि, भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, अश्वस्थामा, कृतवर्मा, श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी एवं विदुर।
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कुछ यादव युद्ध में और बाद में गांधारी के शाप के चलते आपसी युद्ध में मारे गए। पांडव पक्ष के विराट और विराट के पुत्र उत्तर, शंख और श्वेत, सात्यकि के दस पुत्र, अर्जुन पुत्र इरावान, द्रुपद, द्रौपदी के पांच पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, कौरव पक्ष के कलिंगराज भानुमान्, केतुमान, अन्य कलिंग वीर, प्राच्य, सौवीर, क्षुद्रक और मालव वीर।
 
कौरवों की ओर से धृतराष्ट्र के दुर्योधन सहित सभी पुत्र, भीष्म, त्रिगर्त नरेश, जयद्रथ, भगदत्त, द्रौण, दुःशासन, कर्ण, शल्य आदि सभी युद्ध में मारे गए थे।  बच गए योद्धा : महाभारत के युद्ध के पश्चात कौरवों की तरफ से 3 और पांडवों की तरफ से 15 यानी कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे थे जिनके नाम हैं- कौरव के : कृतवर्मा, कृपाचार्य, युयुत्सु और अश्वत्थामा, जबकि पांडवों की ओर से युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, कृष्ण, सात्यकि आदि।
 
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रहस्यमयी जन्म : महाभारत में किसी भी व्यक्ति का सामान्य रूप में जन्म नहीं हुआ। श्रीकृष्ण का जन्म जहां कारावास में बहुत कठिन परिस्थितियों में हुआ। वहीं, उससे पूर्व भीष्म का जन्म गंगा की शर्त के उल्लंघन स्वरूप हुआ। शांतनु से गंगा का विवाह हुआ। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा नदी में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया। भीष्म ने जब ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले ली तो वंश को आगे बढ़ाने का संकट उत्पन्न हुआ। शांतनु की दूसरी पत्नीं सत्यवती के दो पुत्र हुए। इसमें से जीवित बचे विचित्रवीर्य की 2 पत्नियां अम्बिका और अम्बालिका ने निगोद द्वारा अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और दासी से विदुर का जन्म हुआ। 
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इसी तरह धृतराष्ट्र और पाण्डु को जब कोई पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ तो फिर से यही वेदव्यास काम आए। अब आप सोचिए इन्हीं 2 पुत्रों में से एक धृतराष्ट्र के यहां जब कोई पुत्र नहीं हुआ तो वेदव्यास की कृपा से ही 99 पुत्र और 1 पुत्री का जन्म हुआ। दूसरी ओर पांडु की दो पत्नियां कुंती और माद्री थीं। दोनों से ही पांडु पुत्र उत्पन्न नहीं कर सके। तब कुंती ने क्रमश: धर्मराज, इन्द्र और पवनदेव का आह्‍वान किया तो युद्धिष्ठिर, अर्जुन भीम उत्पन्न हुए। उसी तरह माद्री ने दो अश्विन कुमारों का आह्‍वान किया तो उनसे नकुल और सहदेव उत्पन्न हुए।
 
इसी तरह द्रौपदी का जन्म भी एक रहस्य ही है। कहते हैं कि उसका असली नाम यज्ञसेनी है। यज्ञसेनी इसलिए कि वह यज्ञ से उत्पन्न हुई थी। दौपदी नाम महाराज द्रुपद की पुत्री होने के कारण था। इसी तरह गौतम ऋषि के पुत्र शरद्वान और शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य का जन्म भी एक रहस्य ही है। कृपाचार्य की माता का नाम नामपदी था। नामपदी एक देवकन्या थी। इन्द्र ने शरद्वान को साधना से डिगाने के लिए नामपदी को भेजा था। देवकन्या नामपदी (जानपदी) के सौंदर्य के प्रभाव से शरद्वान इतने कामपीड़ित हो गए कि उनका वीर्य स्खलित होकर एक सरकंडे पर गिर पड़ा। वह सरकंडा दो भागों में विभक्त हो गया जिसमें से एक भाग से कृप नामक बालक उत्पन्न हुआ और दूसरे भाग से कृपी नामक कन्या उत्पन्न हुई। यह कृप ही कृपाचार्य कहलाए।
 
महर्षि भारद्वाज मुनि का वीर्य किसी द्रोणी (यज्ञकलश अथवा पर्वत की गुफा) में स्खलित होने से जिस पुत्र का जन्म हुआ, उसे द्रोण कहा गया। ऐसे भी उल्लेख है कि भारद्वाज ने गंगा में स्नान करती घृताची को देखा भारद्वाज ने गंगा में स्नान करती घृताची को देखा और उसे देखकर वे आसक्त हो गए जिसके कारण उनका वीर्य स्खलन हो गया जिसे उन्होंने द्रोण (यज्ञकलश) में रख दिया। बाद में उससे उत्पन्न बालक द्रोण कहलाया।  
 
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महाभारत का सबसे बड़ा नायक और खलनायक : कुरुक्षेत्र में लड़ा गया महाभारत का युद्ध भयंकर युद्ध था। इससे भारत का पतन हो गया। इस युद्ध में संपूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के राजाओं ने भी भाग लिया और सब के सब वीरगति को प्राप्त हो गए। लाखों महिलाएं विधवा हो गईं। इस युद्ध के परिणामस्वरूप भारत से वैदिक धर्म, समाज, संस्कृति और सभ्यता का पतन हो गया। इस युद्ध के बाद से ही अखंड भारत बहुधर्मी और और बहुसंस्कृति का देश बनकर खंड-खंड होता चला गया।
 
अब सवाल यह उठता है कि आखिर कौन इस युद्ध का जिम्मेदार था और कौन इस युद्ध का सबसे बड़ा नायक और खलनायक था? कहते हैं कि महाभारत का सबसे बड़ा नायक भीष्म थे जबकि श्रीकृष्ण ने तो इस युद्ध को रोकने का रह संभव प्रयास किया लेकिन जब युद्ध शुरू ही हो गया तब वे सबसे बड़े नायक बनकर उभरे। विश्लेषकों के अनुसार इस युद्ध का सबसे बड़ा खलनायक मामा शकुनी को माना जाता है। हालांकि बहुत से ऐसे मौके भी थे जबकि भीष्म ने खलनायक भी भूमिका निभाई। ऐसे में नायक श्रीकृष्ण ही सर्वसम्मति से घोषित होते हैं।
 
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महाभारत के ये उलझे हुए रिश्ते...: महाभारत में एक ओर जहां धर्म और नीति की बाते हैं वहीं अधर्म और अनीति के कई कांड मिल जाएंगे। महाभारत कालीन रिश्ते और उनके द्वंद्व, जिसमें छल, ईर्ष्या, विश्वासघात और बदले की भावना का बाहुल्य है, लेकिन इसी में प्रेम-प्यार, अकेलापन और बलिदान भी है।
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सोचीए पांडु का अपनी पत्नियां कुंती और माद्री के साथ सिर्फ प्रेम का ही रिश्ता था। कुंती और माद्री के जो पुत्र थे वे तो पांडु के नहीं थे फिर भी वे पांडु पुत्र कहलाते थे। दूसरी ओर अपने कुंवारेपन में कुंती ने एक और पुत्र को सूर्यदेव के सहयोग से जन्म दिया था जिसे कर्ण कहा जाता है। उसी तरह दूरी ओर धृतराष्ट्र के पुत्र उनके नहीं थे वे तो ऋषि वेदव्यास के थे तब भी वे कौरव कहलाए। ऐसे में जीस कौरवों के साम्राज्य के लिए यह युद्ध हुआ वह कौरव और पांडवों के बीच नहीं लड़ा गया। यदि ये सभी कौरव या पांडु पुत्र नहीं थे तो क्या इन्हें फिर भी हस्तिनापुर की गद्दी पर अधिकार था? 
 
कहते हैं कि गांधारी ने धृतराष्‍ट्र से मजबूरीवश विवाह किया था। इसका कारण भीष्म थे।  द्रौपदी का अपने पांच पतियों से कैसा रिश्ता था। एक स्त्री पांच पुरुषों से कैसे विवाह कर सकती है, जबकि एक पुरुष पांच स्त्रियों से विवाह कर सकता था। प्राचीन काल से ही स्त्रियों का ऐसा करना वर्जित माना गया है।  महाभारत में द्रौपदी ही एकमात्र ऐसी स्त्री थीं जिसने पांच पुरुषों को अपना पति बनाया था। पांचों पांडवों द्वारा इनसे जन्मे पांच पुत्र (क्रमशः प्रतिविंध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ती, शतानीक व श्रुतकर्मा) उप-पांडव नाम से विख्यात थे।
 
महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण के सखा थे अर्जुन। लेकिन अर्जुन ने जब श्रीकृष्ण की बहिन से विवाह किया तो वे उनके जीजा भी बन गए थे। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन से ही नहीं बल्कि दुर्योधन से भी करीबी रिश्ता था। कृष्ण की आठ पत्नियां थीं जिसमें से एक का नाम जामवंती था जो रामायण काल के जामवंतजी की पुत्री थी। इसी जामवंती से श्रीकृष्ण को एक पुत्र मिला जिसका नाम साम्ब था। इस साम्ब ने दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा से विवाह किया था। इस तरह दुर्योधन और श्रीकृष्ण दोनों एक दूसरे के समधी थे। इस तरह हम देखते हैं कि महाभारत में और भी ऐसे रिश्ते हैं जो आपस में उलझे और गुथे हुए हैं फिर भी सभी एक दूसरे के खिलाफ युद्ध के मैदान में इकट्ठे हो जाते हैं।
 
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महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में ही क्यों लड़ा गया? 
भगवान श्रीकृष्ण को डर था कि भाई-भाइयों के, गुरु-शिष्यों के व संबंधी कुटुंबियों के इस युद्ध में एक दूसरे को मरते देखकर कहीं ये संधि न कर बैठें।  इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुनने का फैसला लिया गया जहां क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। तब श्रीकृष्ण ने कई दूत अनेकों दिशाओं में भेजे और उन्हें वहां की घटनाओं का जायजा लेने को कहा।
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एक दूत ने सुनाया कि कुरुक्षेत्र में बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ टूटने पर बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। उसने साफ इनकार कर दिया। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहां से पानी निकल रहा था वहां उस लाश को पानी रोकने के लिए लगा दिया। इस कहानी को सुनकर श्रीकृष्ण ने तय किया कि यही भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है। जब श्रीकृष्ण आश्वस्त हो गए कि इस भूमि के संस्कार यहां पर भाइयों के युद्ध में एक दूसरे के प्रति प्रेम उत्पन्न नहीं होने देंगे तब उन्होंने युद्ध कुरूक्षेत्र में करवाने की घोषणा की। 
 
कुरु का क्षेत्र : दूसरी कहानी अनुसार कहते हैं कि जब कुरु इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इसका कारण पूछा। कुरु ने कहा कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर मारा जाए, वह पुण्य लोक में जाए, ऐसी मेरी इच्छा है। इन्द्र उनकी बात को हंसी में उड़ाते हुए स्वर्गलोक चले गए। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने अन्य देवताओं को भी ये बात बताई। देवताओं ने इन्द्र से कहा कि यदि संभव हो तो कुरु को अपने पक्ष में कर लो। तब इन्द्र ने कुरु के पास जाकर कहा कि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर या युद्ध करके इस स्थान पर मारा जायेगा तो वह स्वर्ग का भागी होगा। ये बात भीष्म, कृष्ण आदि सभी जानते थे, इसलिए महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया।
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श्रवण कुमार की कहानी : मातृ और पितृ भक्त श्रवण कुमार की कहानी तो आपने सुनी ही होगी। श्रवण कुमार जैसे पितृभक्त खोजना मुश्किल है। वे अपने अंधे माता-पिता की सेवा पूरी तत्परता से करते थे, उन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देते थे। एक बार माता-पिता ने तीर्थ यात्रा की इच्छा की और वे उन्हें कांवर में बिठाकर तीर्थ यात्रा को चल दिए। बहुत से तीर्थ करा लेने पर एक दिन अचानक उसके मन में यह भाव आया कि पिता-माता को पैदल क्यों न चलाया जाए? उन्होंने कांवर जमीन पर रख दी और उन्हें पैदल चलने को कहा।
 
अंधे माता और पिता पैदल चलने तो लगे पर उन्होंने साथ ही यह भी कहा- बेटा इस भूमि को जितनी जल्दी हो सके पार कर लेना चाहिए। वे तेजी से चलने लगे जब वह भूमि निकल गई तो श्रवणकुमार को माता-पिता के साथ इस तरह का व्यवहार करने पर बड़ा पश्चाताप हुआ और उसने पैरों में गिरकर क्षमा मांगी तथा फिर से दोनों को कांवर में बिठा लिया। उनके अंधे पिता ने कहा- पुत्र इसमें तुम्हारा दोष नहीं। उस भूमि पर किसी समय मय नामक एक असुर रहता था उसने जन्मते ही अपने ही पिता-माता को मार डाला था, उसी के संस्कार उस भूमि में अभी तक बने हुए हैं इसीसे उस क्षेत्र में गुजरते हुए तुम्हें ऐसी बुद्धि उपजी।
 
विरोधाभास : महाभारत के वनपर्व के अनुसार, कुरुक्षेत्र में आकर सभी लोग पापमुक्त हो जाते हैं और जो ऐसा कहता है कि मैं कुरुक्षेत्र जाऊंगा और वहीं निवास करुंगा। यहां तक कि यहां की उड़ी हुई धूल के कण पापी को परम पद देते हैं। नारद पुराण में आया है कि ग्रहों, नक्षत्रों एवं तारागणों को कालगति से (आकाश से) नीचे गिर पड़ने का भय है, किन्तु वे, जो कुरुक्षेत्र में मरते हैं पुन: पृथ्वी पर नहीं गिरते, अर्थात् वे पुन:जन्म नहीं लेते। भगवद्गीता के प्रथम श्लोक में कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र कहा गया है।
 
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महाभारत के शाप : महाभारत में जितनी महिमा वरदान की है उतनी ही शाप की भी। यदि यह शाप नहीं दिये जाते तो महाभारत होती ही नहीं। एक बार 'द्यु' नामक वसु ने वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु का हरण कर लिया। इससे वशिष्ठ ऋषि ने द्यु से कहा कि ऐसा काम तो मनुष्य करते हैं इसलिए   तुम आठों वसु मनुष्य हो जाओ। यह सुनकर वसुओं ने घबराकर वशिष्ठजी की प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि अन्य वसु तो वर्ष का अंत होने पर मेरे   शाप से छुटकारा पा जाएंगे, लेकिन इस 'द्यु' को अपनी करनी का फल भोगने के लिए एक जन्म तक मनुष्य बनकर पीड़ा भोगना होगी। यही 'द्यु' गंगा पुत्र कहलाए। यही गंगा पुत्र भीष्म कहलाए।
 
*सत्यवती के गर्भ से महाराज शांतनु को चित्रांगद और विचित्रवीर्य नाम के 2 पुत्र हुए।  विचित्रवीर्य के युवा होने पर भीष्म ने बलपूर्वक काशीराज की 3 पुत्रियों का हरण कर लिया और वे उसका विवाह विचित्रवीर्य से करना चाहते थे, क्योंकि भीष्म चाहते थे कि किसी भी तरह अपने पिता शांतनु का कुल बढ़े। लेकिन बाद में बड़ी राजकुमारी अम्बा को छोड़ दिया गया, क्योंकि वह शाल्वराज को चाहती थी, लेकिन शाल्वराज के पास जाने के बाद अम्बा को शाल्वराज ने स्वीकार करने से मना कर दिया। अम्बा के लिए यह दुखदायी स्थिति हो चली थी। अम्बा ने अपनी इस दुर्दशा का कारण भीष्म को समझकर उनकी शिकायत परशुरामजी से की। परशुरामजी में अम्बा की मदद करने असमर्थ सिद्ध हुए तब म्बा ने बहुत ही द्रवित होकर भीष्म को कहा कि 'तुमने मेरा जीवन बर्बाद कर दिया और अब मुझसे विवाह करने से भी मना कर रहे हो। मैं निस्सहाय स्त्री हूं और तुम शक्तिशाली।  तुमने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया। मैं तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती, लेकिन मैं पुरुष के रूप दोबारा जन्म लूंगी और तब तुम्हारे अंत का कारण बनूंगी।'  गौरतलब है कि यही अम्बा प्राण त्यागकर शिखंडी के रूप में जन्म लेती है और ‍भीष्म की मृत्यु का कारण बन जाती है।
 
* महाभारत के अनुसार पांडु अम्बालिका और ऋषि वेदव्यास के पुत्र थे। वे पांडवों के धर्मपिता और धृतराष्ट्र के छोटे भाई थे। धृतराष्ट्र के अंधे होने के कारण पांडु को हस्तिनापुर का शासक बनाया गया।  एक बार राजा पांडु अपनी दोनों रानियों कुंती और माद्री के साथ आखेट कर रहे थे कि तभी उन्होंने मृग होने के भ्रम में बाण चला दिया, जो एक ऋषि को जाकर लगा। उस समय वह ऋषि अपनी पत्नी के साथ सहवास कर रहे थे और उसी अवस्था में उन्हें बाण लग गया इसलिए उन्होंने पांडु को श्राप दे दिया कि जिस अवस्था में उनकी मृत्यु हो रही है उसी प्रकार जब भी पांडु अपनी पत्नियों के साथ सहवासरत होंगे तो उनकी भी मृत्यु हो जाएगी। यही कारण था कि पांडु अपनी दोनों पत्नियों के साथ सहवास नहीं कर सके और उनका कोई पुत्र नहीं हो सकता।
 
*परशुराम से ब्रह्मास्त्र सिखने के लिए कर्ण ने एक ब्राह्मणपुत्र का वेशधारण कर उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। लेकिन जब परशुराम को यह पता चला की कर्ण में उनसे झूठ बोला है तो उन्होंने कर्ण को शाप दे दिया कि तुमने मुझसे जो भी विद्या सीखी है वह झूठ बोलकर सीखी है इसलिए जब भी तुम्हें इस विद्या की सबसे ज्यादा आवश्यकता होगी, तभी तुम इसे भूल जाओगे। कोई भी दिव्यास्त्र का उपयोग नहीं कर पाओगे।
 
*अर्जुन सशरीर इन्द्र-सभा में गया तो उसके स्वागत में उर्वशी, रंभा आदि अप्सराओं ने नृत्य किए। अर्जुन के रूप सौंदर्य पर मोहित हो उर्वशी उसके निवास स्थान पर गई और प्रणय निवेदन किया,  साथ ही 'इसमें कोई दोष नहीं लगता' इसके पक्ष में अनेक दलीलें भी दीं, किंतु अर्जुन ने अपने दृढ़ इन्द्रिय-संयम का परिचय देते हुए इस निवेदन को नकार दिया। अर्जुन ने कहा कि मेरी दृष्टि में कुंती, माद्री और शची का जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम पुरु वंश की जननी होने के कारण आज मेरे लिए परम गुरुस्वरूप हो। उर्वशी अपने कामुक प्रदर्शन और तर्क देकर अपनी काम-वासना तृप्त करने में असफल रही तो क्रोधित होकर उसने अर्जुन को 1 वर्ष तक नपुंसक होने का शाप दे दिया। इस शाप के चलते अज्ञातवास के समय अर्जुन ने विराट के महल में नर्तक वेश में रहकर विराट की राजकुमारी को संगीत और नृत्य विद्या सिखाई थी, तत्पश्चात वे शापमुक्त हो गए थे।  
 
* गांधारी अपने 100 पुत्रों की मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थीं। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे 100 पुत्रों का नाश हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारे वंश का भी आपस में एक-दूसरे को मारने के कारण नाश हो जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने गांधारी से कहा- देवी, मैं आपके दुख को समझ सकता हूं। यदि मेरे वंश के नाश से तुम्हे आत्मशांति मिलती है तो ऐसा ही होगा।
 
*महाभारत के युद्ध में अश्वत्‍थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया था जिसके चलते लाखों लोग मारे गए थे।  अश्वत्थामा के इस कृत्य से कृष्ण क्रोधित हो गए थे और उन्होंने अश्वत्थामा को शाप दिया था कि 'तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ 3,000 वर्ष तक निर्जन स्थानों में   भटकेगा। तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी। तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा।' व्यास ने श्रीकृष्ण के वचनों का अनुमोदन किया।
 
*बार महर्षि मैत्रेय हस्तिनापुर पधारे। धृतराष्ट्र महर्षि मैत्रेय के आते ही अपने पुत्रों सहित उनकी सेवा व सत्कार करने लगे। विश्राम के बाद धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों से उनकी वार्तालाप हुई। उन्होंने इसी बीच दुर्योधन से कहा, तुम जानते हो पाण्डव कितने वीर और शक्तिशाली हैं। तुम्हें उनकी शक्ति का अंदाजा नहीं है। शायद इसलिए तुम ऐसी बात कर रहे हो इसलिए तुम्हें उनके साथ मेल कर लेना चाहिए मेरी बात मान लो। गुस्से में ऐसा अनर्थ मत करो।  महर्षि मैत्रेय की बात सुनकर दुर्योधन को क्रोध आ गया और वह व्यंग्यपूर्ण मुस्कुराते हए पैर से जमीन कुरेदने लगा और हद तो तब हो गई, जब उसने अपनी जांघ पर हाथ से ताल ठोंक दी। दुर्योधन की यह उद्दण्डता देखकर महर्षि को क्रोध आया। तब उन्होंने दुर्योधन को शाप दिया। तू मेरा तिरस्कार करता है, मेरी बात शांतिपूर्वक सुन नहीं सकता। जा उद्दण्डी जिस जंघा पर तू ताल ठोंक रहा है, उस जंघा को भीम अपनी गदा से तोड़ देगा। 
 
*जब घटोत्कच पहली बार अपने पिता भीम के राज्य में आया तो अपनी मां (हिडिम्बा) की आज्ञा के अनुसार उसने द्रौपदी को कोई सम्मान नहीं दिया। द्रौपदी को अपमान महसूस हुआ और उसे बहुत गुस्सा आया और शाप दे दिया कि जा दुष्‍ट तेरा जीवन बहुत छोटा होगा तथा तू बिना किसी लड़ाई के मारा जाएगा।
 
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महाभारत के स्थान : महाभारत में कुछ ऐसे स्थान हैं जहां महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थी। जैसे महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में हुआ था। यहीं पर भगावन श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया था। यह स्थान हरियाणा में स्थित है।...लाक्षागृह बरनावा या वारणावत नामक स्थान मेरठ जिले में स्थित है। यहां पर पांडवों की मारने के लिए लाख का घर बनाया गया था। लाक्षागृह से निकलने पर भटकते हुए पांडव वर्तमान नगालैंड में पहुंच गए थे।...जिस स्थान पर भीम नहीं उठा पाएं थे हनुमानजी की पूंछ वह स्थान गंधमादन पर्वत पर स्थित है।  सुमेरू पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों में से एक को उस काल में गंधमादन पर्वत कहा जाता था।  हिमालय के कैलाश पर्वत के उत्तर में (दक्षिण में केदार पर्वत है) स्थित गंधमादन पर्वत कुबेर के राज्यक्षेत्र में था।
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*बर्बरीक का सिर काटकर जहां रखा था उस स्थान को वर्तमान में खाटू श्याम के नाम से जाना जाता है। राजस्थान के शेखावाटी के सीकर जिले में स्थित है परमधाम खाटू। खाटू का श्याम मंदिर बहुत ही प्राचीन है।...उत्तर प्रदेश में स्थित मथुरा नगरी भगवान श्रीकृष्ण की जन्म स्थली होने के कारण यह महाभारत की घटनाओं का प्रमुख केंद्र रहा है। महाभारत काल में इस नगरी पर जरासंध ने कई आक्रमण किए थे। बिहार की राजधानी पटना से करीब 100 किमी दूर स्थित पांच पहाडि़यों से घिरा राजगीर प्रसिद्धा धार्मिक तीर्थस्थल है। यहीं पर जरासंध का अखड़ा आज भी देखा जा सकता है।
 
*बिहार की राजधानी पटना से करीब 100 किमी दूर स्थित पांच पहाडि़यों से घिरा राजगीर प्रसिद्धा धार्मिक तीर्थस्थल है। यहां महाभारत के रचनाकार महर्षि वेद व्यासजी की गुफा है। इसके समीप ही गणेश गुफा है, मान्यता है की इसी गुफा में व्यासजी ने महाभारत को मौखिक रूप दिया था और गणेशजी ने उसे लिखा था।..कहते हैं कौरवों से अपना राज्य हारने के बाद भगवान श्रीकृष्‍ण के कहने पर अर्जुन मनाली के प‌िरनी में तप करने चले गए थे। उस स्थान को अर्जुन गुफा के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान पर भगवान शिव ने अर्जुन को अर्जुन को पशुपताशस्‍त्र द‌िया था।
 
*दिल्ली को उस काल में इन्द्रप्रस्थ कहा जाता था और मेरठ को हस्तीनापुर। दिल्ली में पुराना किला इस बात का सबूत है। खुदाई में मिले अवशेषों के आधार पर पुरातत्वविदों का एक बड़ा वर्ग यह मानता है कि पांडवों की राजधानी इसी स्थल पर रही होगी। पुराना किला दिल्ली में यमुना नदी के पास स्थित है, जिसे पांडवों ने बनवाया था। बाद में इसका पुनरोद्धार होता रहा। महाभारत के अनुसार यह पांडवों की राजधानी थी। दूसरी ओर कुरु देश की राजधानी गंगा के किनारे हस्तिनापुर में स्थित थी।
 
*कहते हैं कि महाभारत युद्ध के पश्चात द्वारिका पर अंजान शक्तियों ने हमला किया था जिसके चलते वह नष्ट हो गई थी और कालांतर में यह समुद्र में डूब गई थी। द्वारिका उस काल में महाभारत काल का प्रमुख केंद्र हुआ करता था जो कई प्राचीन और ऐतिहासिक घटनाओं का केंद्र था। गुजरात के पश्चिमी तट पर समुद्र में डूबे 7000-3500 वर्ष पुराने शहर खोजे गए हैं, जिनको महाभारत में वर्णित द्वारका के सन्दर्भों से जोड़ा गया है। हालांकि द्वारिका पर पहले प्राचीन शहर कुशस्थली था। ययाति ने यह संपूर्ण क्षेत्र अपने पुत्र यदु को सौंपा था। इसीलिए श्रीकृष्ण अपने अट्ठारह कुल के बंधु बांधवों के लेकर द्वारिका में बस गए थे।
 
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महाभारत युद्ध के नियम और सेना की स्थिति : महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों ने अपनी सेना का पड़ाव कुरुक्षेत्र के पश्चिमी क्षेत्र में सरस्वती नदी के दक्षिणी तट पर बसे समंत्र पंचक तीर्थ के पास हिरण्यवती नदी (सरस्वती नदी की सहायक नदी) के तट पर डाला। कौरवों ने कुरुक्षेत्र के पूर्वी भाग में वहां से कुछ योजन की दूरी पर एक समतल मैदान में अपना पड़ाव डाला।
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*दोनों ओर के शिविरों में सैनिकों के भोजन और घायलों के इलाज की उत्तम व्यवस्था थी। हाथी, घोड़े और रथों की अलग व्यवस्था थी। हजारों शिविरों में से प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यंत्र और कई वैद्य और शिल्पी वेतन देकर रखे गए। दोनों सेनाओं के बीच में युद्ध के लिए 5 योजन (1 योजन= 8 किमी की परिधि, विष्णु पुराण के अनुसार 4 कोस या कोश= 1 योजन= 13 किमी से 16 किमी)= 40 किमी का घेरा छोड़ दिया गया था।
 
*कौरवों की ओर थे सहयोगी जनपद:- गांधार, मद्र, सिन्ध, काम्बोज, कलिंग, सिंहल, दरद, अभीषह, मागध, पिशाच, कोसल, प्रतीच्य, बाह्लिक, उदीच्य, अंश, पल्लव, सौराष्ट्र, अवन्ति, निषाद, शूरसेन, शिबि, वसति, पौरव, तुषार, चूचुपदेश, अशवक, पाण्डय, पुलिन्द, पारद, क्षुद्रक, प्राग्ज्योतिषपुर, मेकल, कुरुविन्द, त्रिपुरा, शल, अम्बष्ठ, कैतव, यवन, त्रिगर्त, सौविर और प्राच्य।
 
*कौरवों की ओर से ये यौद्धा लड़े थे : भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा, मद्रनरेश शल्य, भूरिश्र्वा, अलम्बुष, कृतवर्मा, कलिंगराज, श्रुतायुध, शकुनि, भगदत्त, जयद्रथ, विन्द-अनुविन्द, काम्बोजराज, सुदक्षिण, बृहद्वल, दुर्योधन व उसके 99 भाई सहित अन्य हजारों यौद्धा।
 
*पांडवों की ओर थे ये जनपद : पांचाल, चेदि, काशी, करुष, मत्स्य, केकय, सृंजय, दक्षार्ण, सोमक, कुन्ति, आनप्त, दाशेरक, प्रभद्रक, अनूपक, किरात, पटच्चर, तित्तिर, चोल, पाण्ड्य, अग्निवेश्य, हुण्ड, दानभारि, शबर, उद्भस, वत्स, पौण्ड्र, पिशाच, पुण्ड्र, कुण्डीविष, मारुत, धेनुक, तगंण और परतगंण।
 
*पांडवों की ओर से लड़े थे ये यौद्धा : भीम, नकुल, सहदेव, अर्जुन, युधिष्टर, द्रौपदी के पांचों पुत्र, सात्यकि, उत्तमौजा, विराट, द्रुपद, धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, पाण्ड्यराज, घटोत्कच, शिखण्डी, युयुत्सु, कुन्तिभोज, उत्तमौजा, शैब्य और अनूपराज नील।
 
*तटस्थ जनपद : विदर्भ, शाल्व, चीन, लौहित्य, शोणित, नेपा, कोंकण, कर्नाटक, केरल, आन्ध्र, द्रविड़ आदि ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया।
 
*पितामह भीष्म की सलाह पर दोनों दलों ने एकत्र होकर युद्ध के कुछ नियम बनाए। उनके बनाए हुए नियम निम्नलिखित हैं-
1. प्रतिदिन युद्ध सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक ही रहेगा। सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं होगा।
2. युद्ध समाप्ति के पश्‍चात छल-कपट छोड़कर सभी लोग प्रेम का व्यवहार करेंगे।
3. रथी रथी से, हाथी वाला हाथी वाले से और पैदल पैदल से ही युद्ध करेगा।
4. एक वीर के साथ एक ही वीर युद्ध करेगा।
5. भय से भागते हुए या शरण में आए हुए लोगों पर अस्त्र-शस्त्र का प्रहार नहीं किया जाएगा।
6. जो वीर निहत्था हो जाएगा उस पर कोई अस्त्र नहीं उठाया जाएगा।
7. युद्ध में सेवक का काम करने वालों पर कोई अस्त्र नहीं उठाएगा।
 
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एक रात के लिए जी उठे सभी योद्धा : ऐसी मान्यता और किंवदंती है कि महाभारत युद्ध में मारे गए सभी शूरवीर जैसे कि भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, कर्ण, शिखंडी आदि एक रात के लिए पुनर्जीवित हुए थे। यह घटना महाभारत युद्ध खत्म होने के 15 साल बाद घटित हुई थी।
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यह उस समय की बात है जब धृतराष्ट्र, कुंती, विदुर, गांधारी और संजय वन में रहते थे। एक दिन वन में उनसे मिलने युधिष्ठिर पधारे तभी यह घटना घटी। विदुरजी के प्राण त्यागने के बाद धृतराष्ट्र के आश्रम में महर्षि वेदव्यास आए। जब उन्हें पता चला कि विदुरजी ने शरीर त्याग दिया तब उन्होंने बताया कि विदुर धर्मराज के अवतार थे और युधिष्ठिर भी धर्मराज का ही अंश हैं इसलिए विदुरजी के प्राण युधिष्ठिर के शरीर में समा गए। महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती से कहा कि आज मैं तुम्हें अपनी तपस्या का प्रभाव दिखाऊंगा। तुम्हारी जो इच्छा हो वह मांग लो।
 
तब धृतराष्ट्र व गांधारी ने युद्ध में मृत अपने पुत्रों तथा कुंती ने कर्ण को देखने की इच्छा प्रकट की। द्रौपदी आदि ने कहा कि वे भी अपने परिजनों को देखना चाहते हैं। महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ऐसा ही होगा। युद्ध में मारे गए जितने भी वीर हैं, उन्हें आज रात तुम सभी देख पाओगे। ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास ने सभी को गंगा तट पर चलने के लिए कहा। महर्षि वेदव्यास के कहने पर सभी गंगा तट पर एकत्रित हो गए और रात होने का इंतजार करने लगे।
 
रात होने पर महर्षि वेदव्यास ने गंगा नदी में प्रवेश किया और पांडव व कौरव पक्ष के सभी मृत योद्धाओं का आवाहन किया। थोड़ी ही देर में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दु:शासन, अभिमन्यु, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, घटोत्कच, द्रौपदी के पांचों पुत्र, राजा द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शकुनि, शिखंडी आदि वीर जल से बाहर निकल आए। उन सभी के मन में किसी भी प्रकार का अहंकार व क्रोध नहीं था। महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र व गांधारी को दिव्य नेत्र प्रदान किए। अपने मृत परिजनों को देख सभी के मन में हर्ष छा गया। सारी रात अपने मृत परिजनों के साथ बिताकर सभी के मन में संतोष हुआ। अपने मृत पुत्र, भाई, पतियों और अन्य संबंधियों से मिलकर सभी का संताप दूर हो गया। इस प्रकार वह अद्भुत रात समाप्त हो गई।
 
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महाभारत की महिलाएं : कहते हैं कि महाभारत में एक से बढ़कर एक सुंदर स्‍त्रियां थीं। जितनी वे सुंदर थीं उससे कहीं ज्यादा ज्ञान संपन्न भी थीं। माना यह भी जाता है कि उनमें से कि कुछ स्त्रियों के कारण महाभारत हुआ। यह आम धारणा है कि जर, जोरू और जमीन के लिए ही युद्ध होते रहे हैं। हालांकि कुछ विद्वान मानते हैं कि महाभारत युद्ध के कारण कुछ और भी थे। महाभारत में भूमि बंटवारा युद्ध का सबसे बड़ा कारण था। लेकिन दूसरे लोग मानते हैं कि बंटवारा शांतिपूर्वक हो सकता था लेकिन कुछ महिलाओं की जिद के कारण कौरवों और पांडवों के बीच कटुता बढ़ गई जिसके परिणामस्वरूप युद्ध हुआ।
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सत्यवती : महाभारत की शुरुआत राजा शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से होती है। पहली पत्नी गंगा के पुत्र भीष्म ने तो सत्यवती के कारण ही ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले ली थी, क्योंकि सत्यवती चाहती थी कि भीष्म या उसका कोई पुत्र हस्तिनापुर की गद्दी पर न बैठे बल्कि मेरा ही पुत्र गद्दी का अधिकारी बने।
 
यदि शांतनु सत्यवती को न चाहते तो कुरु वंश का भाग्य कुछ और ही होता। इस राजा ने एक स्त्री के लिए अपने पुत्र भीष्म के जीवन को नष्ट कर दिया। इससे पता चलता है कि शांतनु एक सामान्य राजा था। उसने अपने राज्य तथा पुत्र को प्राथमिकता न देकर अपनी भोगवृत्ति को प्राथमिकता दी। तो यह कहना उचित होगा कि सत्यवती ही एक प्रमुख कारण थी जिसके चलते हस्तिनापुर की गद्दी से कुरुवंश नष्ट हो गया। यदि भीष्म सौगंध नहीं खाते तो वेदव्यास के 3 पुत्र पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर हस्तिनापुर के शासक नहीं होते या यह कहें कि उनका जन्म ही नहीं होता। तब इतिहास ही कुछ और होता।
 
सुभद्रा : सुभद्रा तो कृष्ण की बहन थी जिसने कृष्ण के मित्र अर्जुन से विवाह किया था, जबकि बलराम चाहते थे कि सुभद्रा का विवाह कौरव कुल में हो। बलराम के हठ के चलते ही तो कृष्ण ने सुभद्रा का अर्जुन के हाथों हरण करवा दिया था। बाद में द्वारका में सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह विधिपूर्वक संपन्न हुआ। विवाह के बाद वे 1 वर्ष तक द्वारका में रहे और शेष समय पुष्कर क्षेत्र में व्यतीत किया। 12 वर्ष पूरे होने पर वे सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट आए।  
 
लक्ष्मणा : श्रीकृष्ण की 8 पत्नियों में एक जाम्बवती थीं। जाम्बवती-कृष्ण के पुत्र का नाम साम्ब था। साम्ब का दिल दुर्योधन-भानुमती की पुत्री लक्ष्मणा पर आ गया था और वे दोनों प्रेम करने लगे थे। दुर्योधन के पुत्र का नाम लक्ष्मण था और पुत्री का नाम लक्ष्मणा। दुर्योधन अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के पुत्र से नहीं करना चाहता था। भानुमती सुदक्षिण की बहन और दुर्योधन की पत्नी थी। इसलिए एक दिन साम्ब ने लक्ष्मणा से प्रेम विवाह कर लिया और लक्ष्मणा को अपने रथ में बैठाकर द्वारिका ले जाने लगा। जब यह बात कौरवों को पता चली तो कौरव अपनी पूरी सेना लेकर साम्ब से युद्ध करने आ पहुंचे।
 
कौरवों ने साम्ब को बंदी बना लिया। इसके बाद जब श्रीकृष्ण और बलराम को पता चला, तब बलराम हस्तिनापुर पहुंच गए। बलराम ने कौरवों से निवेदनपूर्वक कहा कि साम्ब को मुक्त कर उसे लक्ष्मणा के साथ विदा कर दें, लेकिन कौरवों ने बलराम की बात नहीं मानी। तब बलराम ने अपना रौद्र रूप प्रकट कर दिया। वे अपने हल से ही हस्तिनापुर की संपूर्ण धरती को खींचकर गंगा में डुबोने चल पड़े। यह देखकर कौरव भयभीत हो गए। संपूर्ण हस्तिनापुर में हाहाकार मच गया। सभी ने बलराम से माफी मांगी और तब साम्ब को लक्ष्मणा के साथ विदा कर दिया। द्वारिका में साम्ब और लक्ष्मणा का वैदिक रीति से विवाह संपन्न हुआ।
 
कुंती : कुं‍ती और माद्री दोनों ही पांडु की पत्नियां थीं। यदि पांडु को शाप नहीं लगता तो उनका कोई पुत्र होता, जो गद्दी पर बैठता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लेकिन पांडु के आग्रह पर कुंती ने एक-एक कर कई देवताओं का आवाहन किया। इस प्रकार माद्री ने भी देवताओं का आवाहन किया। तब कुंती को तीन और माद्री को दो पुत्र प्राप्त हुए जिनमें युधिष्ठिर सबसे ज्येष्ठ थे। कुंती के अन्य पुत्र थे भीम और अर्जुन तथा माद्री के पुत्र थे नकुल व सहदेव। कुंती ने धर्मराज, वायु एवं इन्द्र देवता का आवाहन किया था तो माद्री ने अश्विन कुमारों का।
 
एक दिन वर्षा ऋतु का समय था और पांडु और माद्री वन में विहार कर रहे थे। उस समय पांडु अपने काम-वेग पर नियंत्रण न रख सके और माद्री के साथ सहवास करने को उतावले हो गए और तब ऋषि का श्राप महाराज पांडु की मृत्यु के रूप में फलित हुआ। माद्री पांडु की मृत्यु बर्दाश्त नहीं कर सकी और उनके साथ सती हो गई। यह देखकर पुत्रों के पालन-पोषण का भार अब कुंती पर आ गया था। उसने अपने मायके जाने के बजाय हस्तिनापुर का रुख किया।
 
हस्तिनापुर में रहने वाले ऋषि-मुनि सभी पांडवों को राजा पांडु का पुत्र मानते थे तो वे सभी मिलकर पांडवों को राजमहल छोड़कर आ गए। कुंती के कहने पर सभी ने पांडवों को पांडु का पुत्र मान लिया और उनका स्वागत किया। राजमहल में कुंती का सामना गांधारी से भी हुआ। कुंती वसुदेवजी की बहन और भगवान श्रीकृष्ण की बुआ थीं, तो गांधारी गंधार नरेश की पुत्री और राजा धृतराष्ट्र की पत्नी थी।
 
गांधारी : धृतराष्ट्र आंखों से ही नहीं, मन से भी अंधों की भांति व्यवहार करते थे इसलिए गांधारी और शकुनि को अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता संभालनी पड़ी। गांधारी को यह चिंता सताने लगी थी कि कहीं कुंती के पुत्र सिंहासनारूढ़ न हो जाए। ऐसे में शकुनि ने दुर्योधन के भीतर बाल्यकाल से ही पांडवों के प्रति घृणा का भाव भर दिया था।
 
द्रौपदी : पांडवों की पत्नी द्रौपदी को इस युद्ध का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। महाभारत के अनुसार जब दुर्योधन इन्द्रप्रस्थ को देखने गया तो एक जगह उसने रंगोली बनी देखी और उसने समझा कि यह कितना सुंदर फर्श है लेकिन असल में वह जल से भरा ताल था। दुर्योधन उसमें गिर पड़ा। भ्रमवश उसके गिरने पर द्रौपदी जोर से हंसने लगी और उसके मुंह से निकल गया- 'अंधे का पुत्र भी अंधा।'
 
बस यही बात दुर्योधन के दिल में तीर की तरह धंस गई। हालांकि बाद में द्रौपदी को अपनी गलती का अहसास भी हुआ था, लेकिन व्यंग्य में कहे गए शब्द का जो असर होना चाहिए था वह हो चुका था। दुर्योधन ने अपने इस अपमान का बदला लेने की ठान ली थी। शकुनि ने इस अपमान का बदला लेने की एक तरकीब बतलाई। उसने दुर्योधन से कहा कि पांडवों को द्यूतकीड़ा खेलने के लिए आमंत्रित किया जाए। उन्होंने कहा कि राज्य बंटवारे का निर्णय अब इस खेल के माध्यम से ही होगा।
 
द्यूतक्रीड़ा (जुआ) न खेली गई होती तो शायद युद्ध भी नहीं होता। पांडवों ने दुर्योधन के आमंत्रण को स्वीकार कर लिया। उन्होंने अपने भाग्य का निर्णय द्यूत के खेल पर छोड़ दिया। लेकिन पांडव तो इस खेल में माहिर नहीं थे फिर कैसे वे यह खेल खेलने के लिए तैयार हो गए। उनका मानना था कि यह खेल भाग्य पर निर्भर है न कि चाल, छल या कपट पर। भगवान कृष्ण ने इस खेल का विरोध किया था, लेकिन पांडव नहीं माने। श्रीकृष्ण ने कहा कि फिर इस बुरे खेल में मैं साथ नहीं दूंगा। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा भी है कि सबसे बुरे खेलों में द्यूतक्रीड़ा है।
 
पांडव खेल में एक के बाद एक राज्य हारते गए। फिर उन्होंने उनके पास की वस्तुएं भी दांव पर लगा दीं। अंत में उन्होंने द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया। बस, यहीं से युद्ध की नींव रख दी गई। द्रौपदी का चीरहरण होते हुए सबसे देखा। लेकिन भगवान कृष्ण ने अंत में पहुंचकर द्रौपदी की लाज बचाई। यह महाभारत का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट था।
 
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आखिर युद्ध के बाद बचे हुए लोगों का क्या हुआ : पांडव पक्ष के विराट और विराट के पुत्र उत्तर, शंख और श्वेत, सात्यकि के दस पुत्र, अर्जुन पुत्र इरावान, द्रुपद, द्रौपदी के पांच पुत्र, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, कौरव पक्ष के कलिंगराज भानुमान्, केतुमान, अन्य कलिंग वीर, प्राच्य, सौवीर, क्षुद्रक और मालव वीर आदि सभी मारे गए। 
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लाखों लोगों के मारे जाने के बाद लगभग 24,165 कौरव सैनिक लापता हो गए थे जबकि महाभारत के युद्ध के पश्चात कौरवों की तरफ से 3 और पांडवों की तरफ से 15 यानी कुल 18 योद्धा ही जीवित बचे थे। माना जाता है कि महाभारत युद्ध में एकमात्र जीवित बचा कौरव युयुत्सु था। युधिष्ठिर ने युद्ध के मैदान में ही सभी योद्धाओं का अंतिम क्रिया-कर्म करवाया था।
 
महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद कृतवर्मा, कृपाचार्य, युयुत्सु, अश्वत्थामा, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, श्रीकृष्ण, सात्यकि आदि जीवित बचे थे। इसके अलावा धृतराष्ट्र, द्रौपदी, गांधारी, विदुर, संजय, बलराम, श्रीकृष्ण की पत्नियां आदि भी जीवित थे।
 
युद्ध के बाद शाप के चलते श्रीकृष्ण के कुल में भी आपसी युद्ध शुरू हुआ जिसमें श्रीकृष्ण के पुत्र आदि सभी मारे गए। बलराम ने यह देखकर समुद्र के किनारे जाकर समाधि ले ली। श्रीकृष्ण को प्रभाष क्षेत्र में एक बहेलिये ने पैर में तीर मार दिया जिसे कारण बनाकर उन्होंने देह त्याग दी। बचे लोगों ने कृष्ण के कहने के अनुसार द्वारका छोड़ दी और हस्तिनापुर की शरण ली। यादवों और उनके भौज्य गणराज्यों का अंत होते ही कृष्ण की बसाई द्वारका सागर में डूब गई।
 
धृतराष्ट्र और गांधारी ने पांडवों के साथ रहते-रहते 15 साल गुजार दिए तब एक दिन भीम ने धृतराष्ट्र व गांधारी के सामने कुछ ऐसी बातें कह दी जिसे सुनकर उनके मन में बहुत शोक हुआ और दोनों वन चले गए। उनके साथ गांधारी, कुंती, विदुर और संजय भी वन में रहकर तप करने लगे। विदुर और संजय इनकी सेवा में लगे रहते और तपस्या किया करते थे। एक दिन युधिष्ठिर के वन में पधारने के बाद विदुर ने देह छोड़कर अपने प्राणों को युधिष्ठिर में समा दिया।
 
फिर एक दूसरे दिन जब धृतराष्ट्र और अन्य गंगा स्नान कर आश्रम आ रहे थे, तभी वन में भयंकर आग लग गई। दुर्बलता के कारण धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती भागने में असमर्थ थे इसलिए उन्होंने उसी अग्नि में प्राण त्यागने का विचार किया और वहीं एकाग्रचित्त होकर बैठ गए। इस प्रकार धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया। संजय ने यह बात तपस्वियों को बताई और वे स्वयं हिमालय पर तपस्या करने चले गए। धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की मृत्यु का समाचार जब महल में फैला तो हाहाकार मच गया। तब देवर्षि नारद ने उन्हें धैर्य बंधाया। युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक सभी का श्राद्ध-कर्म करवाया और दान-दक्षिणा देकर उनकी आत्मा की शांति के लिए संस्कार किए।

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