छतरपुर जिले में मानवता को शर्मशार कर देने वाली घटना सामने आई है। यहां बकस्वाहा मुख्यालय से करीब 8 किलोमीटर दूर तुमरयाऊ गांव से प्रसव के लिए तड़पती महिला को बकस्वाहा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बैलगाड़ी से लाया गया। मीरा कुशवाहा पति जगदीश कुशवाहा नामक यह महिला गांव में रातभर दर्द से तड़पती रही और उसे कोई वाहन मुहैया नहीं हो सका, वहीं डॉक्टर न होने के कारण इलाज भी बड़ी मुश्किल में मिल सका।
राज्य सरकार ने भले ही एंबुलेंस जननी एक्सप्रेस जैसी योजनाएं बनाकर जच्चा-बच्चा को बचाने के लिए कमर कस ली है और कई गांवों में इस योजना का लाभ महिलाओं और बच्चों को मिल भी रहा है, पर बकस्वाहा में इन योजनाओं को अधिकारी और कर्मचारियों द्वारा पलीता लगाया जा रहा है। ऐसा ही मामला तुमरयाऊ गांव में देखने को मिला जहां महिला दर्द से रातभर कराहती रही और जब आशा कार्यकर्ताओं को इसकी जानकारी दी गई तो आशा कार्यकर्ता ने बताया कि गांव से एंबुलेंस नहीं जाती है।
बकस्वाहा स्वास्थ्य सेवाएं पटरी से उतरी : बकस्वाहा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टर न होने से स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पा रही हैं फिर चाहे इलाज हो या प्रसव या एम्बुलेंस, इस प्रकार का ये पहला मामला नहीं है, इसके पूर्व भी महिला को साइकल से शाहपुरा गांव से प्रसव के लिए पिता लाया था और प्रसव के दौरान साइकिल से ही वापस गया था।
बीमार सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र को भी इलाज की दरकार : समूचे विकासखंड के 121 गांव की तकरीबन एक लाख से अधिक आबादी के इलाज की जिम्मेदारी लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र सुविधाओं एवं डॉक्टर के अभाव में इलाज सही तरीके से नहीं कर पाता। 2 जून की रोटी के लिए अथक मेहनत करने वाले ग्रामीण जब इलाज की तलाश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचते हैं तो वहां इलाज तो बहुत दूर की बात बैठने को उचित स्थान और पीने को पानी भी नसीब नहीं होता।
डॉक्टर के अभाव में पदस्थ स्टाफ भी खुद को वरिष्ठ अधिकारी से कम नहीं समझते। अस्पताल की शेष समस्त व्यवस्थाएं पूर्णतया ध्वस्त होती दिखाई देती हैं। इसके अलावा ओपीडी हो या प्रसूता कंपाउंड, एनआरसी हो अथवा अस्पताल की गैलरी, कुत्ते और जानवर आपको हर जगह दिखाई देते हैं, यदि आपको ढूंढना ही पड़ेगा तो स्टॉप में पदस्थ लोगों को या बंद मिलेगा पूरा अस्पताल।
खाली पदों से ही चल रहा काम : यूं तो सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में महिला डॉक्टर सहित 6 डॉक्टर के पद हैं परंतु सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र होने से आज तक यह पद केवल दिखावा मात्र ही है। यहां पिछले लगभग 6 महीनों से एक भी डॉक्टर नहीं है, बीएमओ के रूप में प्रभारी केपी बामोरिया पदस्थ हैं, जो अधिकांशत: विभागीय अथवा निजी कार्यों में ही व्यस्त रहते हैं, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र डॉक्ट से पूर्णतया खाली है।
ग्रामीण लोगों ने आवाज बुलंद की तो तात्कालिक व्यवस्था के तौर पर एक डॉक्टर को जिला अधिकारी ने पदस्थ किया, पर डॉक्टर नहीं आए। जिला अधिकारी भी विभागीय कार्यों सहित अपने आप में मस्त-व्यस्त हो जाएंगे, बचेंगे तो केवल परेशान परिजन और इलाज को तरसते मरीज।
नाममात्र की सुविधाएं : सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र होने की वजह से सुविधाओं की खानापूर्ति कागजों में भले ही दर्शाई जाती हो, परंतु वास्तविकता यह है कि यहां मौजूद एंबुलेंस आज तक किसी मरीज के उपयोग में आती नजर नहीं आई, जननी एक्सप्रेस गांव तक नहीं जाती अथवा स्वास्थ्य विभाग का वाहन। जरूरत के समय मरीजों को अपनी ही व्यवस्था से आना-जाना पड़ता है। एक्स-रे और खून की जांच करवाने के लिए भी लोगों को जिला स्तर तक जाना पड़ता है।
झोलाछाप ही बने मजबूरी : ऐसी विषम परिस्थिति में आर्थिक अभाव के बाद भी मरीज को मजबूरन झोलाछाप डॉक्टर की शरण में जाना पड़ता है, जहां मोटी रकम वसूलने के साथ ही इलाज के नाम पर खिलवाड़ किया जाता है और अंत समय में बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। बाहर दिखाने की स्थिति भी भयावह है। बाहर के नाम पर बकस्वाहा मुख्यालय से 50 किलोमीटर दमोह, 100 किलोमीटर छतरपुर या सागर इलाज के लिए जाना पड़ता है।
कई बार तो यह भी होता है कि इलाज के अभाव में या उचित इलाज के लिए तय की गई दूरी ही मरीज की मौत का कारण बन जाती है, परंतु इन सब चीजों से शायद शासन-प्रशासन को कोई फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है उस मरीज को जो इलाज के अभाव में दम तोड़ देता है, उन परिजनों को जिसके परिवार का कोई सदस्य इलाज के अभाव में उनसे हमेशा के लिए दूर हो गया, उन महिलाओं को जिन्होंने प्रसव के दौरान अपने बच्चे खो दिए, उन परिवारों को जिन्हें एम्बुलेंस न मिलने के कारण जच्चा-बच्चा दोनों ने ही दम तोड़ दिए।
इस पूरे मामले में जिला चिकित्सा अधिकारी वीएस बाजपेयी का कहना है कि मैं जानकारी लेता हूं पूरे मामले की कि एम्बुलेंस क्यों नहीं जाती गांव में, साथ ही इसमें दोषियों पर भी कार्यवाही की जाएगी।