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इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल, बच्चों के बीच जमा रस्किन का रंग

हमें फॉलो करें इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल, बच्चों के बीच जमा रस्किन का रंग
, शनिवार, 22 दिसंबर 2018 (16:47 IST)
इंदौर लिटरेचर फेस्टिवल का दूसरा दिन अलसुबह से ही चहल-पहल और मीठी चहचहाट से भरा रहा। सुबह बच्चों के प्यारे रस्टी और अंकल केविन के जनक रस्किन बांड उनके साथ थे। बच्चों के चेहरों की पुलक और चमक बता रही थी कि वे अपने रस्किन अंकल से मिलकर कितने खुश हैं।
 
इंदौर के अलग-अलग स्कूल के नन्हे बच्चों ने ठसाठस भरे सभागार में रस्किन अंकल की बातों का खूब मजा लिया। उसके बाद के सत्र में ओपन माइक रखा गया, जिसमें किशोर बच्चों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। आजकल बच्चे बहुत अच्छा और संप्रेषणीय लिख रहे हैं। इस सत्र से यह आश्वस्ति मिलती है कि हमें भविष्य को लेकर उतनी चिंता नहीं करनी चाहिए, जितनी हम कर रहे हैं।
 
बच्चे अपने समय से आगे देख पा रहे हैं यह शुभ संकेत है। अगले सत्र में थोड़ा सा फेरबदल हुआ और सत्र द बेस्ट सेलर के स्थान पर बाद वाले सत्र को रखा गया। हिन्दी का बदलता कहन और मुहावरा विषय पर आयोजित इस सत्र के साथ फेस्टिवल का रोमांच परवान चढ़ा क्योंकि भाषा को लेकर कई सवाल हर किसी के मन में कुलबुलाते हैं।
 
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इस सत्र के प्रतिभागी थे भगवान दास मोरवाल, ममता कालिया, नीलोत्पल मृणाल, यतीन्द्र मिश्रा। इस सत्र को निर्मला भुराड़िया ने मॉडरेट किया। भगवान दास मोरवाल ने कहा कि आखिर ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी की इस विषय पर सत्र रखा गया। मेरा मानना है कि बदलते वक्त के साथ भाषा भी बदलती है। लेखक के रूप में मेरा अपना एक ढब, मेरी अपनी शैली है। आजकल पढ़ने लिखने का संस्कार बदल गया है, मुझे लगता है। कहन की मेरी अपनी शैली है।
 
यतीन्द्र मिश्र ने कहा कि हिन्दी में अंग्रेजी के शब्दों के समावेश को हम हस्तक्षेप की तरह न देखें बल्कि विस्तार की तरह देखें। हमें किसी भाषा से आक्रांत होने की जरूरत नहीं है। विख्यात कथाकार ममता कालिया ने सवाल किया कि हम हर भाषा के शब्द स्वीकार कर लेते हैं लेकिन अंग्रेजी के शब्द आते हैं तो गुरेज करते हैं। आज के युवा अपने कहन में बदलाव ला रहे हैं, यह अखरता नहीं है बल्कि उम्मीद जगाता है। मेरा मानना है कि भाषा में इतना विकार न लाएं कि स्वीकार ही न की जाए। भाषा के साथ एक प्रत्याशा भी रहती है और जिम्मेदारी भी रहती है।
 
नीलोत्पल मृणाल ने कहा कि मेरे जैसे उम्र के लोग जब लिखने बैठते हैं तो उसे सोचना होगा कि वह अपने समय की भाषा में लिखे। अपने समय के उपमान बदल रहे हैं भाषा उसी के अनुसार उतार चढ़ाव से गुजरती है। सत्र का समापन यतीन्द्र मिश्र की इस टिप्पणी से हुआ कि भाषा हमें संस्कारित करती है, जिम्मेदार बनाती है।
 
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तीसरे सत्र द फर्स्ट ड्राफ्ट, द फर्स्ट नोट, इन द जर्नी ऑफ राइटर में निधि हसीजा के साथ निकिता गोयल, बेली कानूनगो, गरिमा दुबे, सोनल मल्होत्रा और निखिलेश माथुर शामिल हुए। बेली ब्लॉगर हैं जिन्होंने हाल ही में अपनी पहली बुक लिखी है और सोनल स्ट्रिंग एक्टर के साथ ही ट्रैवलर और लेखक भी हैं। अखिलेश कैमिकल इंजीनियर हैं जिनकी एक किताब आई है, वहीं गरिमा दुबे साहित्यकार और इंदिरा दांगी उपन्यासकार के साथ ही कहानीकार और नाटककार भी हैं।
 
विषय पर बात करते हुए इंदिरा दांगी ने कहा कि लेखन में रचना अपने साथ शब्दावली और  फ़ॉर्मेट लेकर ही आती है। इसमें प्रतिभा, अध्ययन और अभ्यास बेहद आवश्यक तत्व है। सब कुछ सृजनकर्ता के अंदर ही घटित होता है। प्रतिभा वास्तविक जीवन मेंं असंतुलित होती है, लेकिन वह अपने क्षेत्र में सबसे बेहतरीन होती है।
 
सोशल मीडिया और ब्लॉगिंग पर बात करते हुए गरिमा दुबे ने कहा कि ये दोनों ही साहित्य को युवाओं तक पहुंचाने का नया और बेहतर माध्यम है। अगर साहित्य आपने रचा और उसे पाठकों तक आप नहीं पहुंचा सके तो इससे समाज का नुकसान है।
 

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