जयपुर। राजस्थान में अब तक हुए लोकसभा चुनाव में दो अवसर ऐसे आए जिसमें कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों ने राज्य की सभी पच्चीस सीटों पर जीत हासिल की जबकि एक बार दोनों को बराबर बराबर सीटें मिलीं।
वर्ष 1952 से अब तक हुए सोलह लोकसभा चुनावों में दस में अपना कब्जा जमाने वाली कांग्रेस ने 1984 के आठवीं लोकसभा चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या से बनी सहानुभूति लहर में राज्य की सभी पच्चीस सीटों पर जीत दर्ज की।
इस चुनाव में भाजपा के चौबीस, लोकदल के सोलह, जनता पार्टी के पन्द्रह, कांग्रेस (जे) के पांच, कांग्रेस (एस) के तीन, सीपीआई एवं माकपा के एक-एक उम्मीदवार तथा 223 निर्दलीयों सहित कुल 313 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा था। इसमें कांग्रेस को 52 प्रतिशत से अधिक तथा भाजपा को 23 प्रतिशत से अधिक मत मिले थे।
इसी तरह इसके बाद के आठ चुनावों में चार में अपना दबदबा एवं एक में बराबरी रखने वाली भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के चलते राज्य की सभी पच्चीस सीटों पर अपना कब्जा जमाया। इस चुनाव में कांग्रेस के 25, बसपा के 23 एवं अन्य तथा निर्दलीयों सहित कुल 320 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। भाजपा को करीब 55 प्रतिशत जबकि कांग्रेस को 30 प्रतिशत मत मिले।
वर्ष 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा और कांग्रेस को 12-12 सीटें मिली थीं जबकि एक सीट इंदिरा कांग्रेस (तिवाड़ी) के खाते में गई। उस दौरान भाजपा ने 42 प्रतिशत तथा कांग्रेस ने 40 प्रतिशत मत हासिल किए।
वर्ष 1984 में सभी सीटें जीतने वाली कांग्रेस अगले ही नौवीं लोकसभा के चुनाव में संयुक्त गठबंधन के सामने सभी सीटों पर चुनाव हार गई। उस समय भाजपा ने तेरह, जनता दल ने ग्यारह तथा एक सीट माकपा ने जीती। इस चुनाव में कुल 304 प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा। मजेदार बात यह रही कि सभी उम्मीदवारों की हार के बावजूद मत प्रतिशत के मामले में सबसे आगे रही। उसे सबसे अधिक करीब 37 प्रतिशत मत मिले जबकि भाजपा ने 29 और जनता दल को 25 प्रतिशत मत मिले।
आपातकाल के बाद हुये 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस केवल एक सीट ही जीत पाई थी। उस समय मारवाड़ अंचल में प्रसिद्ध नेता नाथूराम मिर्धा ने नागौर से जीतकर कांग्रेस की लाज बचाई थी। इस बार के चुनाव में भाजपा के सामने जहां सभी पच्चीस सीटों पर जीत को बरकरार रखने की चुनौती है वहीं कांग्रेस को फिर से चुनावी प्रतिष्ठा कायम करने की चुनौती होगी। (वार्ता)