कांग्रेस सरकार द्वारा आपातकाल की घोषणा 1977 के चुनावों में मुख्य मुद्दा था। राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक नागरिक स्वतंत्रताओं को समाप्त कर दिया गया था और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने व्यापक शक्तियां अपने हाथ में ले ली थीं।
आपातकाल की वजह से इंदिरा गांधी की लोकप्रियता कम हुईं और चुनावों में उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ी। 23 जनवरी को गांधी ने मार्च में चुनाव कराने की घोषणा की और सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा कर दिया। चार विपक्षी दलों- कांग्रेस (ओ), जनसंघ, भारतीय लोकदल और समाजवादी पार्टी ने जनता पार्टी के रूप में मिलकर चुनाव लड़ने का फैसला किया।
आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों और मानव अधिकारों के उल्लंघन की जनता पार्टी ने मतदाताओं को याद दिलाई और कहा कि इस दौरान अनिवार्य बंध्याकरण और राजनेताओं को जेल में डालने जैसा काम भी किया गया था। इस चुनाव पूर्व अभियान में कहा गया कि चुनाव तय करेगा कि भारत में 'लोकतंत्र होगा या तानाशाही।' इससे कांग्रेस आशंकित दिख रही थी। कृषि और सिंचाई मंत्री बाबू जगजीवनराम ने पार्टी छोड़ दी और ऐसा करने वाले कई लोगों में से वे एक थे।
कांग्रेस ने एक मजबूत सरकार की जरूरत होने की बात कहकर मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की लेकिन लहर इसके खिलाफ चल रही थी।
कांग्रेस को स्वतंत्र भारत में पहली बार चुनावों में हार का सामना करना पड़ा और जनता पार्टी के नेता मोरारजी देसाई ने 298 सीटें जीतीं। उन्हें चुनावों से 2 महीने पहले ही जेल से रिहा किया गया था। देसाई 24 मार्च को भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने।
कांग्रेस की लगभग 200 सीटों पर हार हुई। इंदिरा गांधी, जो 1966 से सरकार में थीं और उनके बेटे संजय गांधी चुनाव हार गए।