एक इतालवी फिल्म है 'लाइफ इज ब्यूटीफुल'। फिल्म एक पिता के महान त्याग और बलिदान की कहानी है। नाजी यातना शिविर में एक पिता अपने बच्चे के भोले मन को लगातार दुःख से कैसे बचाता है और कैसे अंततः उसकी प्राण रक्षा में स्वयं के प्राणों का उत्सर्ग भी कर देता है।
दरअसल पिता के वात्सल्य की कहानियां बहुत कम बनती हैं। खासकर जब बात पिता और पुत्र के संबंध की हो तो। शायद इसलिए कि पिता और पुत्र के बीच का रिश्ता स्नेह संरक्षण के साथ ही अपेक्षा और उपेक्षा का भी होता है।
पिता अपेक्षा करता है, पुत्र उपेक्षा करता है। इससे एक किस्म का महीन तनाव दोनों के बीच हमेशा बना रहता है। हालांकि जिंदगी के यातना शिविर से इतालवी फिल्म की तरह ही हर पिता अपने बेटे को बचाए रखने की जुगाड़ हर वक्त करता है। पर कई बार उसका बलिदान बेटा बहुत देर से पहचान पाता है।
अक्सर तब, जब वह भी पिता के रूप में अपने पुत्र के समक्ष उपस्थित होता है। पिता का स्नेह कई बार इसलिए भी दिखाई नहीं पड़ता कि जीवन की व्यावहारिकताओं से पुत्र को रूबरू करवाने की जिम्मेदारी भी उसकी होती है। पुत्र इसे पिता की कठोरता के रूप में देखता है। नारियल के खोल के भीतर छुपे नरम वात्सल्य को कई बार वह महूसस नहीं कर पाता।
पिता और पुत्र के बीच वात्सल्य आदि जैसे रस ही नहीं बहते, एक और केमिकल वहां स्रावित होने लगता है। वह होता है अहं का कटुरस। हालांकि संबंधी होने से यह अहं बढ़कर अहंकार या दंभ में परिवर्तित नहीं होता, परंतु वे एक-दूसरे में प्रतिस्पर्धी को देखने लग सकते हैं।
यह कटुता अक्सर जीवन के साथ समाप्त हो जाती है। अकबर और उनके पुत्र जहांगीर के बारे में कुछ प्रसंग पिछले दिनों पढ़ने में आए। जहांगीर जिन्हें सलीम के नाम से जाना जाता था। सलीम अकबर के प्रति विद्रोही हो गया था। वे आगरा पर अधिकार चाहता था। इलाहाबाद जाकर उन्होंने अपने को सम्राट घोषित कर दिया और अपने नाम के सोने-चाँदी के सिक्के चला दिए।
अकबर ने उनसे मिलना चाहा तो सलीम ने कहा- इस शर्त पर मिलेंगे कि साथ में सलीम की सत्तर हजार की सेना भी हो। अकबर ने इस शर्त से इंकार कर दिया। बाद में किसी वक्त सलीम अकबर के दरबार में आया तो अकबर ने व्यंग्य किया कि तुम्हारे पास सत्तर हजार की सेना भी थी तो तुम अकेले क्यों आए? फिर उन्होंने सलीम के प्रति वात्सल्य दिखाया, मगर सलीम दंडवत करने को हुए तो थप्पड़ लगा दिया।
अकबर की मृत्यु के बहुत बाद लिखी अपनी आत्मकथा में जहांगीर ने अकबर की बेहद तारीफ की। जहांगीर ने लिखा, 'अपनी चाल-ढाल में अब्बा साधारण नहीं जान पड़ते थे, ऐसा लगता था खुदा का नूर ही सामने है।' यही नहीं, रोजमर्रा के जीवन में भी जहांगीर अकबर को अक्सर याद करता था।
इतिहासकार लिखते हैं, एक बार जहांगीर के पास काबुल से अनार और बदख्शां से खरबूज आए। फल बहुत ही उत्कृष्ट थे। उन्हें खाते हुए जहांगीर ने पिता को याद किया 'उन्हें फलों का बहुत शौक था। ऐसे फल देखकर वे कितने खुश होते?'
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एक और दिलचस्प-सी बात होती है। मध्यवय का होते-होते अक्सर व्यक्ति चाहे-अनचाहे अपने पिता की तरह होने लगता है। पिता की अच्छाइयां तो ठीक कई बार उसमें ऐसे गुण भी परिलक्षित होने लगते हैं, जिन्हें वह अपने पिता में नापसंद करता रहा हो। उसके हाव-भाव, आदतें, शरीर की मुद्रा आदि भी जानने वालों को उसके पिता की याद दिलाने लगती है।
प्रकृति की क्लोनिंग अद्भुत है। पिता तो व्यक्ति के भीतर है। हमेशा जीवित, मौजूद। शायर निदा फाजली बताते हैं कि उन्हें आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे पैर का अंगूठा हिलाने की आदत पड़ गई। उन्होंने एक दिन गौर से सोचा कि ऐसा कौन करता था? उन्हें याद आया कि उनके पिता भी फुरसत के क्षणों में आराम कुर्सी पर बैठकर अंगूठा हिलाया करते थे। इस बारे में निदा की एक बड़ी अच्छी कविता भी है।
तुम्हारी कब्र पर मैं फातेहा पढ़ने नहीं आया, मुझे मालूम था तुम मर नहीं सकते, तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसने उड़ाई थी वो झूठा था।
वो तुम कब थे कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से हिल के टूटा था। मेरी आंखें तुम्हारे मंजरों में कैद हैं अब तक मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूं वो वही है जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी।
कहीं कुछ भी नहीं बदला तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं मैं लिखने के लिए जब भी कलम-कागज उठाता हूं तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी में पाता हूं
बदन में मेरे जितना भी लहू है वो तुम्हारी लग्जिशों, नाकामियों के साथ बहता है मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जहां रहता है मेरी बीमारियों में तुम, मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है वो झूठा है तुम्हारी कब्र में मैं दफन हूं तुम मुझमें जिंदा हो,