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क्या निर्वासित तिब्बतियों के भी कभी अच्छे दिन आएंगे?

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DW

, शनिवार, 18 जुलाई 2020 (12:40 IST)
रिपोर्ट राहुल मिश्र
 
चीन के साथ अप्रत्याशित ढंग से बढ़ती जा रही तनातनी के बीच यह खबर आई है कि अमेरिका ने तिब्बत की निर्वासित सरकार की आर्थिक मदद करने का फैसला किया है।
 
इस निर्णय की महत्ता इस बात में निहित है कि पहली बार अमेरिकी सरकार से सीधी जुड़ी किसी संस्था ने तिब्ब्त की निर्वासित सरकार से औपचारिक तौर पर संपर्क साधकर ऐसा समझौता किया है। इस दिलचस्प निर्णय के पीछे कहीं-न-कहीं अमेरिकी सरकार और वहां के राजनेताओं और नीति-निर्धारकों के बीच चीन को लेकर उभरती सर्व-सहमति है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। तिब्बत की निर्वासित सरकार पर भी इसके व्यापक परिणाम जल्द दिखने शुरू हो जाएंगे।
 
अमेरिकी एजेंसियों के अनुसार यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसऐड) ने हाल ही में लिए अपने निर्णय में लगभग 10 लाख अमेरिकी डॉलर तिब्बत की निर्वासित सरकार को देने का फैसला किया है। 23 जून 2020 को यूएसऐड और सीटीए (सेंट्रल तिब्बतन एडमिनिस्ट्रेशन) के बीच इस संदर्भ में एक मसौदे पर हस्ताक्षर भी हुए। हालांकि इस संदर्भ में वार्ताओं और निर्णय प्रक्रियाओं का दौर फरवरी 2019 से ही शुरू हो गया था।
शिक्षा और कौशल विकास
 
यूएसऐड से मिली इस धनराशि का इस्तेमाल न सिर्फ निर्वासन की व्यथा झेल रहे आम तिब्बती शरणार्थियों की आर्थिक और सांस्कृतिक क्षमताएं बढ़ाने में किया जाएगा बल्कि उनके समेकित विकास के लक्ष्य की ओर बढ़ने में इससे सहायता मिलेगी। समझौते के अनुसार सबसे पहले और ज्यादा ध्यान शिक्षा पर दिया जाएगा जिसमें तिब्बती भाषा का पुनरुद्धार और गांगजोंग डेवलपमेंट फाइनेंस का क्षमता निर्माण भी शामिल है। गांगजोंग डेवलपमेंट फाइनेंस तिब्बती शरणार्थी युवाओं के कौशल विकास से जुड़ा हुआ है जिसे फिलहाल अगले 2 वर्षों तक चलाया जाना है।
 
दलाई लामा 1959 में भागकर पहुंचे थे भारत
 
1950 में चीन के एक प्रांत के रूप में अपने विलय के बाद से ही तिब्बत का भविष्य गर्त में रहा है। 1949 में चीन में गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में आई और पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना हुई। 1950 में 14वें दलाई लामा के साथ एक सात सूत्री समझौते के तहत तिब्बत को मेनलैंड चीन में मिला लिया गया। इस समझौते के तहत तिब्बत को खासी स्वायत्तता देने का वादा भी चीन की माओ सरकार ने किया था। बहरहाल, चीन ने यह वादा तोड़ दिया और 1959 आते-आते इस समस्या ने एक क्रांति का रूप ले लिया।
आखिरकार परेशान होकर दलाई लामा अपने परिवार के सदस्यों और कुछ सहयोगियों के साथ छुपते-छुपाते भारत आ पहुंचे। भारत ने दलाई लामा और अन्य शरणार्थियों को शरण दी और शरणागत की रक्षा करने पर देश की राजनीतिक पार्टियों में एकमत भी रहा। दुनिया के बहुत कम देशों ने ऐसा नि:स्वार्थ और नीतिपरक निर्णय करने की क्षमता दिखाई है।
 
तिब्बत के कठिनाईभरे साल
 
28 अप्रैल 1959 में तिब्बत की निर्वासित सरकार की स्थापना हुई और हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में उसका मुख्यालय बना। पिछले कई दशकों से धर्मशाला में तिब्बत की निर्वासित सरकार अपना शासन चला रही है। तिब्बत की निर्वासित सरकार तिब्बत के चीन में विलय को अवैध मानती है। हालांकि चीन के अनावश्यक प्रहार से बचने के लिए उसने यह स्पष्ट कर रखा है कि उसका उद्देश्य चीन के कब्जे वाले तिब्बत में सरकार बनाना नहीं है और जब भी तिब्बत, चीन से अलग होकर एक स्वतंत्र देश बनेगा तो यह निर्वासित सरकार अपने आप भंग हो जाएगी।
सदियों पहले कभी एक मजबूत और संप्रभु राजव्यवस्था रहे तिब्बत के लिए पिछले 60 साल कठिनाइयों के दौर से ही गुजरे हैं। दुनिया का कोई देश भी तिब्बत को एक अलग देश या जबर्दस्ती विलय कर लिए देश के तौर पर मान्यता नहीं देता है। तिब्बती लोगों के धर्मगुरु दलाई लामा के भारत आने के बाद से ही भारत एक अकेला देश रहा है जिसने तिब्बत को अपनी भूमि पर निर्वासित सरकार बनाने और चलाने की अनुमति दे रखी है।
 
फिलहाल निर्वासित सरकार और तिब्बती शरणार्थियों को भारत सरकार के अलावा अमेरिकी सरकार (ज्यादातर छात्रवृत्ति के माध्यम से), तिब्बत फंड, ग्रीन बुक और कई गैरसरकारी संस्थाओं की तरफ से मदद मिलती रही है। यूएसऐड की सहायता से तिब्बती निर्वासित सरकार और तिब्बती शरणार्थियों को मदद तो जरूर मिलेगी लेकिन मातृभूमि वापस जाने या तिब्बत को आजाद देश देख पाने का सपना कब पूरा होगा, यह तो वक्त ही तय करेगा।
 
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं।)

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