रूस पर नए प्रतिबंधों से ईयू-भारत संबंधों पर क्या असर होगा?
भारत इस समय दोहरी परेशानी का सामना कर रहा है। एक तरफ अमेरिका ने आयात शुल्क बढ़ाने की घोषणा की है। वहीं दूसरी ओर, ईयू के नए प्रतिबंधों से रूसी कच्चे तेल की रिफाइनिंग और उससे बने भारतीय उत्पादों के निर्यात पर असर पड़ा है।
आंचल वोहरा अनुवादः रवि रंजन
यूरोपीय संघ और भारत के लिए साल की शुरुआत शानदार रही। फरवरी में, यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला फॉन डेयर लाएन ने नई दिल्ली का दौरा किया। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मिलकर अधिकारियों को बाकी बचे मतभेदों को सुलझाने और लंबे समय से लंबित मुक्त व्यापार समझौते पर आगे बढ़ने के निर्देश दिए।
हालांकि, भारत और यूरोपीय संघ के बीच चल रही बातचीत को जुलाई में उस समय एक बड़ा झटका लगा जब ईयू ने रूस पर 18वीं बार प्रतिबंधों की घोषणा की। भारत भी इन प्रतिबंधों की चपेट में आ गया। इन प्रतिबंधों के तहत, भारत की ओर से रियायती दरों पर खरीदे गए रूसी कच्चे तेल की रिफाइनिंग और उससे बने उत्पादों के निर्यात को निशाना बनाया गया है। इनमें वे उत्पाद भी शामिल हैं जो यूरोप को बेचे जाते हैं।
ऐसे में सवाल उठा कि क्या प्रतिबंधों का यह घटनाक्रम यूरोपीय संघ-भारत के संभावित व्यापार समझौते को पटरी से उतार सकता है? इसके जवाब में विशेषज्ञ कहते हैं कि ऐसा नहीं होगा। उनका कहना है कि भारतीय वस्तुओं पर 50 फीसदी तक शुल्क लगाने की अमेरिकी धमकी, यूरोपीय संघ के प्रतिबंधों के असर से कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती है। साथ ही, विडंबना यह है कि इससे यूरोपीय संघ को फायदा हो सकता है।
भारत पर यूरोपीय संघ ने क्या प्रतिबंध लगाए और इनका क्या असर होगा?
रूस को यूक्रेन युद्ध के लिए मिलने वाले धन को रोकने के प्रयासों के तहत, यूरोपीय संघ ने पिछले महीने रूसी कच्चे तेल से बने रिफाइंड पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया है। यह प्रतिबंध भारत सहित किसी भी तीसरे देश से आने वाले ऐसे सभी उत्पादों पर लागू होता है।
यूरोपीय संघ ने भारत की एक रिफाइनरी, नायरा एनर्जी पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसका आंशिक तौर पर मालिकाना हक रूसी ऊर्जा कंपनी रोजनेफ्ट के पास है। यूरोपीय संघ की विदेश नीति प्रमुख काया कल्लास ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, "यह पहली बार है जब हम भारत में मौजूद रोजनेफ्ट की सबसे बड़ी रिफाइनरी को प्रतिबंधों वाली सूची में डाल रहे हैं।”
नायरा एनर्जी ने यूरोपीय संघ के इस फैसले का विरोध करते हुए कहा कि यह पाखंड से भरा हुआ कदम है। उसने जुलाई के अंत में एक बयान जारी कर कहा, "कई यूरोपीय देश अलग-अलग स्रोतों से रूसी ऊर्जा का आयात जारी रखे हुए हैं। वहीं, वे भारत की एक रिफाइनरी को दंडित करके और उस पर प्रतिबंध लगाकर नैतिक रूप से खुद को श्रेष्ठ साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि, भारतीय रिफाइनरी मुख्य रूप से 1.4 अरब भारतीयों और यहां के कारोबारों के लिए रूसी कच्चे तेल को रिफाइन करती है।”
हालांकि, विशेषज्ञों ने डीडब्ल्यू को बताया कि यूरोपीय संघ का यह एकतरफा फैसला काफी हद तक प्रतीकात्मक है। इससे भारत के ऊर्जा व्यापार या यूरोपीय संघ से जुड़े निर्यात पर खास असर पड़ने की संभावना नहीं है।
यूरोप-भारत संबंधों पर शोध करने वाली जर्मन मार्शल फंड ऑफ यूनाइटेड स्टेट्स की गरिमा मोहन ने कहा, "यूरोपीय संघ के प्रतिबंध उतने कठोर नहीं हैं और उन्हें लागू करना मुश्किल होगा। ये निर्यात किसी भी तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था को चलाने में अहम भूमिका नहीं निभा रहे हैं।” भारत, इराकी तेल जैसे गैर-रूसी स्रोतों से रिफाइंड ईंधन के साथ अपने निर्यात को आसानी से बदल सकता है।
ब्रसेल्स स्थित ब्रूगल थिंक टैंक के अर्थशास्त्री जैकब फंक किर्केगार्ड भी इस बात से सहमत हैं। उन्होंने कहा, "यह निश्चित रूप से यूरोपीय संघ का आक्रामक रुख है। हालांकि, मैं यह भी कहूंगा कि इससे व्यापार से जुड़ी बातचीत पर कोई असर नहीं पड़ेगा।” उन्होंने तर्क दिया कि इसके बजाय भारत पर इस समय ज्यादा दबाव अमेरिका की ओर से आ रहा है।
क्या अमेरिकी शुल्क भारत को ईयू के और करीब ला सकता है?
यूरोपीय संघ और भारत दोनों ही लगातार अस्थिर होती वैश्विक अर्थव्यवस्था के बीच स्थिर व्यापार संबंध बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि भारतीय वस्तुओं पर अमेरिका की ओर से ज्यादा आयात शुल्क लगाए जाने का खतरा, मुक्त व्यापार समझौते को अंतिम रूप देने के लिए उनके आपसी हित को मजबूत कर सकता है। भारत और ईयू मुक्त व्यापार समझौता करने के लिए और भी ज्यादा कोशिश करेंगे।
किर्केगार्ड ने कहा, "सबसे पहले, हकीकत यह है कि अमेरिका और भारत के बीच कोई व्यापार समझौता नहीं है। इसके बाद, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने यह नासमझी भरा कदम उठाया है। इसका मतलब है कि भारत अब अमेरिका से दूर होकर यूरोपीय संघ से हाथ मिलाना चाहता है। जब अमेरिका के साथ भारत के संबंध शायद बेहतर थे, तब की तुलना में अब भारत को यूरोपीय संघ के साथ एक समझौते की थोड़ी ज्यादा जरूरत है।”
मोहन का भी यही मानना है। उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि भारत-अमेरिका संबंधों में यह बदलाव यूरोपीय संघ को ही फायदा पहुंचाएगा। इस शुल्क की घोषणा को देखते हुए, भारत को ऐसे आर्थिक सहयोगियों की जरूरत है जो भरोसेमंद और स्थिर हों। साथ ही, उसे निवेश की भी जरूरत है।”
यूरोपीय संघ ने व्यापार की बातचीत में अधिक सावधानी बरती है। खास तौर पर भारत के कृषि क्षेत्र को लेकर, जिससे देश के करीब 44 फीसदी लोगों का रोजगार जुड़ा है। यह डर है कि अगर भारत यूरोपीय या अमेरिकी कंपनियों को ज्यादा छूट या बाजार तक पहुंच देता है, तो इससे देश में नौकरियां जा सकती हैं।
किर्केगाड ने कहा, "यूरोपीय संघ जानता है कि अगर हम कृषि क्षेत्र में और अधिक खुलेपन पर जोर देते हैं, तो कोई समझौता नहीं होगा। यूरोपीय संघ कृषि क्षेत्र में भारत की राजनीतिक और आर्थिक संवेदनशीलता को ट्रंप से कहीं बेहतर समझता है।”
अमेरिकी दबाव, ईयू का फायदा और यूक्रेन की संभावित जीत?
अगर भारत अमेरिकी शुल्क से बचने के लिए रूसी तेल की खरीद कम कर देता है, तो इससे रूस को यूक्रेन से युद्ध लड़ने के लिए मिलने वाली आर्थिक मदद कम हो सकती है। यह कदम यूरोपीय संघ और यूक्रेन दोनों के लिए फायदेमंद होगा।
हालांकि, नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू से बात करने वाले एक भारतीय राजनयिक ने चेतावनी दी कि वैश्विक आपूर्ति से रूसी तेल को हटाने से कीमतों में तेजी आ सकती है। इससे न सिर्फ रूस, बल्कि सभी को नुकसान होगा। वहीं, किर्केगार्ड ने सवाल किया कि ट्रंप ने "चीन को ऐसी ही धमकी क्यों नहीं दी जो रूस से ज्यादा तेल खरीदता है।"
विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि यूरोपीय संघ की ओर से नायरा एनर्जी पर प्रतिबंध लगाने से इस बात की कोई संभावना नहीं दिखती कि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन युद्ध की रणनीति बदलेंगे। हालांकि, भारत अपनी रणनीति जरूर बदल सकता है और यह सब यूरोपीय संघ के बजाय अमेरिका के फैसलों पर ज्यादा निर्भर करेगा।
यूरोपीय संघ और भारत के संबंधों में थोड़ी रुकावट आई है, लेकिन व्यापार समझौते की कोशिशें अब भी जारी हैं। अगर बदलते भू-राजनीतिक रिश्ते ईयू और भारत को ज्यादा करीब लाते हैं, तो इस साल के अंत तक एक समझौता हो सकता है।
edited by : Nrapendra Gupta