युक्रेन युद्ध में रूस के खिलाफ मोर्चेबंदी में अगुआ की भूमिका निभाने के बावजूद अमेरिका जिस तरह हिंद प्रशांत क्षेत्र में अपनी सक्रियता और सहयोग के दरवाजे खोल रहा है उससे साफ है कि अमेरिका के लिए चीन ज्यादा बड़ी चिंता है।
26 मई को अमेरिकी विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में एक जोरदार भाषण दिया जिसमें उन्होंने बाइडेन प्रशासन की चीन को लेकर नीति की दशा, दिशा, और नजरिया तीनों पर विस्तार से चर्चा की।
इस भाषण की सनसनीखेज बातों में एक यह रही कि रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरू होने के बाद पहली बार ब्लिंकेन ने मुखर होकर कहा "पश्चिमी देशों के रूस -यूक्रेन युद्ध में उलझे होने के बावजूद अमेरिका का ध्यान भटका नहीं है। उसे मालूम है कि विश्व व्यवस्था के लिए चीन सबसे बड़ा और दूरगामी खतरा है। अमेरिका इस चुनौती का डटकर सामना करेगा।"
जाहिर है, रूस के गुस्से का दंश झेल रहे यूरोपीय संघ और ब्रिटेन समेत यूरोप के तमाम देशों को यह बात रास नहीं आयी होगी। हालांकि हिन्द-प्रशांत क्षेत्र के लिए यह अच्छी खबर है और ऐसा इसलिए है क्योंकि चीन की आक्रामकता और दादागिरी का शिकार सीधे तौर पर तो हिंद-प्रशांत के छोटे, मझोले यहां तक कि भारत - जापान जैसे देश भी हो रहे हैं।
रूस-यूक्रेन युद्ध के शुरू होने के बाद हिंद-प्रशांत के तमाम देशों को यह भी लगने लगा कि यूरोप के साथियों की मदद के लिए नाटो (नार्थ अटलांटिक ट्रीटी आर्गेनाईजेशन) के अगुआ के तौर पर अमेरिका ना सिर्फ युद्ध में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेगा बल्कि शायद अब उसका ध्यान भी यूरेशिया और अटलांटिक की ओर ही रहेगा।
हालांकि हाल के दिनों में अमेरिकी गतिविधियों से साफ है कि आर्थिक और सैन्य रूप से दबाव महसूस करने के बावजूद वह हिन्द-प्रशांत क्षेत्र को छोड़ कर कहीं नहीं जा रहा। इस सन्दर्भ में हाल में हुई चार बातों पर गौर कीजिये।
अमेरिका और आसियान की बैठक
आसियान के देशों से बातचीत के दौरान अमेरिका ने संबंधों को लेकर प्रतिबद्धता के साथ-साथ, आसियान की केन्द्रीय भूमिका और अमेरिका के सतत सहयोग पर भी जोर दिया। साल 2016 के बाद मई 2022 में हुई इस बैठक की सबसे बड़ी बात तो यही रही कि ट्रंप के कार्यकाल में रुका सिलसिला फिर चल पड़ा। आसियान देशों में इसे सराहा गया लेकिन साथ ही यह भी बातें उठी कि अमेरिका को आर्थिक मोर्चे पर कुछ बड़ा करना चाहिए।
इंडो पैसिफिक इकनोमिक फ्रेमवर्क की औपचारिक घोषणा
बाइडेन प्रशासन ने मानो यह बात छूटते ही पकड़ ली और दो हफ्ते बाद ही जापान में क्वाड की बैठक के दौरान इंडो पैसिफिक इकनोमिक फ्रेमवर्क की औपचारिक घोषणा कर दी। इस आर्थिक ढांचे के लॉन्च की खास बात इसमें क्वाड और हिन्द-प्रशान्त के देशों की शिरकत के साथ ही 10 में से सात आसियान देशों का समर्थन रहा है।
क्वाड की प्रतिबद्धता, और रूस पर मतभेद पर भी भारत से दोस्ती
क्वाड बैठक में क्वाड दोस्ती को लेकर प्रतिबद्धता और साथ काम करने के जज्बे की मिसाल तब दिखी जब क्वाड के संयुक्त अभिभाषण में रूस पर ज्यादा जोर ना देकर हिंद-प्रशांत को केंद्र में रखा गया, या फिर यूं कहें कि भारत की बात को ईमानदारी से सुना और समझा गया।इस एक कदम से क्वाड में ना सिर्फ और जान आयी बल्कि भारत ने भी क्वाड में दुगने उत्साह से काम करने की घोषणा की। मोदी और जयशंकर दोनों के बयानों से यह बात झलकती है।
ताइवान को लेकर अमेरिका के गंभीर और तीखे तेवर
माना कि बाइडेन अपनी उम्र के चलते आये दिन बातों को गड्ड-मड्ड कर देते हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के जानकार जानते हैं कि ऐसी गलतियां कभी-कभी विपक्षी पार्टी को संदेश देने के लिए भी होती हैं।
हिंद-प्रशांत में ताइवान की सुरक्षा अमेरिका के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता है। इस संदर्भ में वैसे तो अमेरिका अभी भी "वन चाइना नीति" और "सामरिक अनिश्चितता" की नीति अपनाता है लेकिन जबसे ट्रंप के कार्यकाल में इंडो पैसिफिक स्ट्रेटेजी लांच हुई, तबसे अमेरिका की ताइवान नीति में थोड़ी और दृढ़ता आयी है।
ट्रंप कार्यकाल में ताइवान की सुरक्षा में सुधार के लिए व्यापक कदम उठाये गए। बाइडेन प्रशासन ने भी इस ओर काफी काम किया है और ट्रंप की ताइवान नीति को भरपूर आगे बढ़ाया है।
इस संदर्भ में जब बाइडेन ने हाल में ही यह कहा कि ताइवान की सुरक्षा और अस्तित्व बचाने के लिए अमेरिका कोई भी कदम उठाने को तैयार है तो इससे काफी हो हल्ला मचा और चीन ने तीखी प्रतिक्रिया दी।
बाद में बाइडेन इस बात से मुकर भी गए लेकिन यह मुकरना सिर्फ एक कूटनीतिक कदम था जिसका मुख्य उद्देश्य था चीन को संकेत देना कि वह ताइवान को अकेला और कमजोर समझने की भूल ना करे और वह संदेश दे दिया गया।
ट्रंप से दो कदम आगे हैं बाइडेन
जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय में ब्लिंकेन के चीन संबंधी भाषण ने इस सिलसिले में पांचवीं कड़ी जोड़ दी है जिसके नतीजे दूरगामी होंगे।
अमेरिकी विदेश नीति के जानकारों में आम तौर पर इस बात को लेकर सहमति है कि रिपब्लिकन सरकारों के मुकाबले डेमोक्रैट चीन को लेकर ज्यादा नरमी बरतते हैं। पिछले पांच दशकों में डेमोक्रैट सरकारों ने चीन को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से जोड़ने और इस समाजीकरण के जरिये चीन के चरित्र को बदलने पर जोर दिया।
चीन ने अमेरिका की इस सोच से काफी फायदा उठाया और जाने अनजाने कभी-कभी ऐसा संकेत देने की कोशिश भी की कि वह शांतिप्रिय देश है और 50, 60, और 70 के दशक के अपने रवैये को पीछे छोड़ चुका है।
90 के दशक में चीन की अच्छे पड़ोसी की नीति और 2000 के दशक में चीन के शांतिपूर्ण विकास के सिद्धांतों ने इस बात को और मजबूती दी।
हालांकि पिछले एक दशक में ऐसे तमाम बदलाव हुए हैं जिनसे लगता है कि यह सब एक दिखावा ही था। अपनी बढ़ती ताकत और समृद्धि के साथ-साथ चीन के तेवर भी बदल चुके हैं।
अमेरिका में चीन को लेकर नीतियों से जुड़ी हर बड़ी बहस में यह बात उठती रही है कि डेमोक्रैट नेताओं को चीन के मामले में ज्यादा सतर्कता बरतनी थी। ट्रंप के कार्यकाल में चीन पर लगाम कसने की कोशिशें हुई।
ट्रंप की बेबाकी के बीच नौबत यहां तक आ गयी कि अमेरिका और चीन एक लंबे और कष्टकारी व्यापार युद्ध में फंस गए जिसका अंत अभी तक नहीं हुआ है। ट्रंप के बाद जो बाइडेन की सरकार आने के बाद कयास लगाए गए कि शायद पिछली डेमोक्रैटिक सरकारों की तरह बाइडेन भी चीन पर मिलाजुला रुख ही रखेंगे और ट्रंप की तरह चीन की लुटिया डुबाने की कोशिश नहीं करेंगे।
अब दिख रहा है कि बाइडेन महाशय ना सिर्फ ट्रंप की राह पर चलने के लिए प्रतिबद्ध हैं बल्कि उनसे भी एक कदम आगे जाकर चीन की दादागिरी पर नकेल लगाने के लिए तैयार दिखते हैं। विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन का 26 मई का भाषण इसी नीति की एक झलक पेश करता है।
अमेरिका के लिए चीन को अंतरराष्ट्रीय नियमबद्ध व्यवस्था के लिए खतरा और अपनी प्रभुसत्ता के लिए चुनौती बता देने भर से कुछ नहीं होगा। उसे इस चुनौती से निपटने के लिए ठोस, बहुआयामी, और लम्बे समय तक कारगर रहने वाले कदम उठाने पड़ेंगे।
रूस के मुकाबले चीन पर ज्यादा ध्यान देने की वजहें
रूस कभी भी वैश्विक अर्थव्यवस्था, भौगोलीकरण, और उदारवाद का ना बड़ा हिस्सा रहा और ना ही चीन की तरह उसने इससे फायदा उठाया। चीन आज अमेरिका और पश्चिमी देशों के सहारे ही दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन सका है। यही वजह है कि रूस के मुकाबले चीन को विश्वव्यवस्था से हटा पाना अमेरिका के लिए मुश्किल चुनौती है।
दूसरी बड़ी वजह यह है कि चीन के मुकाबले रूस का प्रभावक्षेत्र अब बहुत सीमित है। दुनिया भर में रूस के बहुत दोस्त हैं और चीन के मुकाबले तो बहुत ही ज्यादा, लेकिन इनकी मदद से रूस विश्वव्यवस्था का तोड़ ना बनना चाहता है और ना ही बनाना। इसके उलट चीन की कुछ ऐसी ही मंशा है खास तौर पर बेल्ट और रोड परियोजना के दृष्टिकोण से।
अमेरिका इस बात से भी वाकिफ है कि रूस यूरेशिया और यूरोप पर अपना दबदबा बनाने की कोशिश करेगा जहां ब्रिटेन, फ्रांस, और जर्मन जैसी पुरानी यूरोपीय ताकतें मौजूद हैं। ये कभी रूस के रास्ते को आसान बनने नहीं देंगी। हालांकि हिंद-प्रशांत की शक्तियों जापान, भारत, और आस्ट्रेलिया का हाथ थामे बिना इनका काम नहीं चलेगा।
दक्षिण चीन सागर और हिंद महासागर पर पूरी दुनिया की आर्थिक निर्भरता की वजह से भी इसी क्षेत्र में मौजूद चीन रूस के मुकाबले कहीं बड़ा कारक बनता है। इसके अलावा ताइवान, और दक्षिण चीन सागर के आस पास बसे तमाम छोटे मंझोले देशों की सुरक्षा का जिम्मा भी अमेरिका पर है जिसे वह नजरंदाज नहीं कर सकता।
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। आप @rahulmishr_ ट्विटर हैंडल पर उनसे जुड़ सकते हैं)