बीते दिनों हुई जी7 और नाटो की बैठकों में कई बड़े मुद्दों पर चिंतन और चर्चा हुई। जहां यूक्रेन में युद्ध के मसले पर रूस की जमकर मजम्मत हुई तो चीन का मुद्दा भी व्यापक पैमाने पर छाया रहा। चीन इन सबसे काफी आहत है।
जी7 और नाटो (नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन) की एक के बाद एक हुई बैठकों में रूस और यूक्रेन का मुद्दा छाया रहा। पश्चिमी देशों से भरे इन संगठनों के लिए रूस पर प्रतिक्रिया देना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं थी। लेकिन चीन को कहीं बीमारी तो कहीं इलाज मानना हैरान करने वाला था।
अपने ऊपर हुई तमाम टिप्पणियों से चीन बौखलाया हुआ है और इसपर उसकी प्रतिक्रिया भी काफी सख्त रही है। इन्हीं बातों के चलते अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के लगातार बढ़ते दबाव और आलोचनाओं के बीच चीन भी अब इससे निपटने के लिए अपने तरकश में नए तीर जुटाने में लग गया है।
इसकी एक झलक तब देखने को मिली जब चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियान ने कहा कि जी7 देशों को न तो चीन की आलोचना का हक है और न ही दुनिया का प्रतिनिधित्व करने का। लीजियान के अनुसार जी7 के यह देश दुनिया की सिर्फ 10 प्रतिशत जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं। लीजियान ने यह भी कहा कि पश्चिमी देशों के मानदंड और मूल्य पूरी दुनिया पर लागू हों, सही नहीं है। हालांकि जी7 की बैठक में जहां एक ओर चीन को नियमबद्ध और उदारवादी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के लिए खतरा माना गया तो वहीं रूस के मुद्दे पर उससे यह भी गुहार लगाईं गई कि वह रूस को समझाए।
28 जून बैठक में जी7 देशों ने चीन का आह्वान किया कि वह रूस पर दबाव बनाए ताकि रूस यूक्रेन के साथ युद्ध को समाप्त करे। दुनिया के 7 सबसे शक्तिशाली पश्चिमी देश खुद तो रूस को रोक नहीं पा रहे लिहाजा उन्होंने चीन से ही सिफारिश कर दी है कि चीन रूस को रोके।
चीन के कहने पर रूस मान जाए और यूक्रेन युद्ध बंद कर दे यह तो चीन के लिए भी एक हसीन सपने जैसा होगा। लेकिन सपने देखने में हर्ज क्या है? मौके का फायदा उठाकर चीन ने भी रूस की वकालत की और परोक्ष रूप से अपनी बात भी रख दी है। चीन ने यह कहा कि प्रतिबंध लगाने से रूस-यूक्रेन संकट समाप्त नहीं होगा। साथ ही साथ चीन का यह भी कहना है कि अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों को रूस से लड़ने के लिए यूक्रेन को हथियार मुहैया नहीं कराने चाहिए।
ये दोनों मुद्दे चीन के लिए भी बड़े अहम हैं। ट्रंप प्रशासन के कार्यकाल में जब चीन और अमेरिका के बीच कारोबारी युद्ध शुरू हुआ तो उसका चीन की अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर पड़ा। चीन की तमाम कोशिशों के बावजूद स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है। चीन को कहीं न कहीं यह डर सता रहा है बदलती व्यवस्था में कहीं पश्चिमी देश उस पर रूस के समर्थन का हवाला देकर प्रतिबंध न लगा दें। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन इसकी ओर पहले ही इशारा कर चुके हैं।
चीन की एक बड़ी चिंता इस बात को लेकर भी है कि यूक्रेन की तर्ज पर अमेरिका और पश्चिम के देश चीन के पड़ोसियों को भी बड़े पैमाने पर हथियार देना न शुरू कर दें। भारत के साथ इस मुद्दे पर अमेरिका ने काफी काम किया है। ऑस्ट्रेलिया, जापान, और दक्षिण कोरिया तो पहले ही अमेरिका के साथ सैन्य गठबंधन कर चुके हैं और उसका फायदा भी ले रहे हैं।
अगर अमेरिका (और नाटो) ऐसा ही काम दक्षिणपूर्व एशियाई देशों खासकर वियतनाम और इंडोनेशिया, और पूर्व में ताइवान के साथ करता है तो इससे निस्संदेह चीन की स्थिति कमजोर होगी और इलाके में तनाव तेजी से बढ़ेगा। जी7 के देशों ने चीन से यह भी कहा कि वह दक्षिण चीन सागर में जमीन हड़पने की कोशिशों से बाज आए और देश में अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार हनन पर भी रोक लगाए। मतलब यह कि रूस से लेकर ताइवान तक और मानवाधिकार हनन से लेकर जलवायु परिवर्तन तक- हर एक बात में जी7 के लिए चीन ही सबसे बड़ा फैक्टर है।
बेल्ट और रोड परियोजना की पश्चिम में चौतरफा आलोचना भी चीन के लिए एक बड़ी चिंता का विषय बनता जा रहा है। जी7 की बैठक के बाद जारी हुए प्रेस रिलीज में चीन की गैर-पारदर्शी और बाजार को बिगाड़ूने वाली नीतियों पर तंज कसे गए। साथ ही तिब्बत और शिनजियांग में चीन के मानवाधिकार पर जी7 ने 'गंभीर चिंता' जताई है।
दिलचस्प है कि पिछली साल चीन को लेकर यह 'चिंता' इतनी गंभीर नहीं थी। इस नई गंभीरता की वजह? वजह है बीते एक साल में चीन की साथ व्यापार और मानवाधिकार मुद्दों पर यूरोप के साथ खटपट। चीन में मानवाधिकार हनन की स्थिति को लेकर यूरोप के मुकाबले अमेरिका और ब्रिटेन के रुख में ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है। अगर यूरोप के नजरिये में बदलाव नहीं आता तो पश्चिमी देशों में यह आम राय बनना चीन के लिए अच्छी बात नहीं होगी।
जी7 देशों ने चीन पर उसके छोटे और मझोले एशियाई देशों की सामरिक निर्भरता को भी कम करने का भी वादा किया। हालांकि यह कहना जितना आसान है करना उतना ही मुश्किल। जी7 की बैठक में चीन की बेल्ट और रोड परियोजना को टक्कर देने के लिए पार्टनरशिप फॉर ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड इन्वेस्टमेंट की घोषणा की गई। इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए 600 बिलियन डॉलर की घोषणा भी की गई जिसके तहत विकासशील देशों की इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश संबंधी जरूरतों को पूरा करने की कोशिश की जाएगी।
यह कोशिशें नई नहीं हैं पिछले साल जी7 शिखरभेंट में बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड की घोषणा हुई थी। हालांकि साल भर में ही उस योजना ने घुटने टेक दिए। कारण सिर्फ यही कि वादों को अमली जामा पहनाने में जी7 के देशों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। ब्लू डॉट नेटवर्क परियोजना का भी यही हाल रहा था।
दरअसल बात यह है कि अमेरिका फर्स्ट, कोविड महामारी, और रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच बढ़ती मुद्रास्फीति और संसाधनों की किल्लत झेल रहे पश्चिमी देशों के लिए अपना घर बचाना पहली प्राथमिकता है जो स्वाभाविक भी है। इसीलिए बीते सालों में पश्चिमी देशों के वादों के मद्देनजर यही लगता है कि ये मनभावन परियोजनाएं फिलहाल सिर्फ कागजी शेर हैं।
लेकिन फिर भी चीन इस बात से चिंतित है कि पश्चिमी देश इन तमाम परियोजनाओं के जरिये उसकी बेल्ट और रोड परियोजना की खामियों को उजागर कर रहा है और कहीं न कहीं इसका असर भी दिख रहा है। सामरिक स्तर पर ठीक ऐसा ही काम नाटो की मैड्रिड बैठक में हुआ, जहां नाटो के सदस्य देशों के अलावा ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, जापान, और दक्षिण कोरिया के प्रतिनिधि भी मौजूद थे।
इन देशों के नाटो की सदस्यता लेने संबंधी कोई बात नहीं हुई। न ही इनके नाटो से किसी संस्थागत तौर पर जुड़ने के बारे में ही कुछ प्रकाश में आया मगर, चीन के नजरिये से देखा जाए तो नाटो का एशिया और इंडो-पैसिफिक में दखल उसके लिए नई परेशानियां खड़ी कर सकता है। शायद यही वजह है कि चीन ने नाटो और जी7 पर आरोप लगाया है कि उनकी नीतियां विभाजनकारी और अनैतिक हैं जिनके परिणाम अच्छे नहीं होंगे।
चीन की बात ऐसे तो देखने में तो सही लगती है लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि इन तमाम बातों के लिए काफी हद तक जिम्मेदार चीन ही है। अगर इस ध्रुवीकरण और विभाजन को रोकना है तो इसकी पहल चीन को ही करने पड़ेगी। बेल्ट और रोड परियोजना में जो भी खामियां हैं उन्हें दूर करना इस पहल का सबसे पहला और अहम कदम होना चाहिए।
(डॉ. राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के आसियान केंद्र के निदेशक और एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं। आप @rahulmishr_ ट्विटर हैंडल पर उनसे जुड़ सकते हैं।)