मसूरी, दार्जीलिंग और काठमांडू जैसे पहाड़ी पर्यटन स्थलों पर पानी का गहरा संकट है। हिमालय की हिन्दूकुश पर्वतमाला पर एक नए रिसर्च में ये दावा किया गया है। बांग्लादेश और पाकिस्तान के पहाड़ी शहरों का भी पानी सूख रहा है।
हिमालयी भू-भाग में हिन्दूकुश पट्टी के वे इलाके ही संकटग्रस्त हो रहे हैं, जो कई नदियों के उद्गम स्थल हैं। विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि मौजूदा हिसाब से 2050 तक मांग और आपूर्ति का अंतर बढ़कर दोगुना हो सकता है।
बांग्लादेश, नेपाल, भारत और पाकिस्तान के हिमालयी क्षेत्र में पड़ने वाले 8 शहरों की जलापूर्ति में 20 से 70 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय जर्नल 'वॉटर पॉलिसी' में प्रकाशित एक वृहद अध्ययन में इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटड माउन्टेन डेवलपमेंट नाम के संगठन ने यह दावा किया है।
हिन्दूकुश हिमालयी क्षेत्र के 13 शहरों में हुए अलग-अलग 10 अध्ययनों में पानी का कुप्रबंधन और जलवायु परिवर्तन की समस्याएं पाई गई हैं। इनमें से 5 शहर 3 भारतीय राज्यों से हैं। उत्तराखंड से मसूरी और देवप्रयाग को लिया गया है।
मसूरी एक मशहूर पर्यटन स्थल है और देवप्रयाग, ऋषिकेश-बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक कस्बा है, जहां गोमुख ग्लेशियर से निकलने वाली भगीरथी नदी और बद्रीनाथ से ऊपर सतोपंथ ग्लेशियर से निकलने वाली अलकनंदा नदी का संगम होता है। इसी संगम से आगे नदी, गंगा के विख्यात नाम से बहती है।
सिक्किम राज्य का एक शहर सिंगटाम इस अध्ययन में शामिल किया गया है और पश्चिम बंगाल के 2 शहर हैं कलिम्पोन्ग और दार्जीलिंग। बाकी 8 शहरों में नेपाल के काठमांडू, भरतपुर, तानसेन और दमौली शामिल हैं और पाकिस्तान के 2 शहर- मुरी और हवालियन। 2 शहर बांग्लादेश के भी हैं- सिलहट और चटगांव।
शोधकर्ताओं की अलग-अलग टीमों ने इन सभी पहाड़ी शहरों और कस्बों का दौरा कर वहां पानी की सप्लाई और नदी, झरने, तालाब जैसे उपलब्ध प्राकृतिक जलस्रोतों का अध्ययन किया। अध्ययन में पाया गया कि प्रभावित इलाके पानी के लिए झरनों पर निर्भर हैं। लेकिन कई जलवायु और गैर जलवायु कारकों की मिली-जुली वजहों से झरने सूख रहे हैं।
बारिश के पानी के प्रबंधन से लेकर जल नियोजन, अनियोजित और अंधाधुंध शहरीकरण, जलवायु परिवर्तन और पीने के पानी की सप्लाई में विसंगतियां, प्रदूषण जैसी कई समस्याएं हैं जिनसे पानी की किल्लत होने लगी है।
बताया गया है कि पर्यटन के लिहाज से महत्वपूर्ण होने और पर्याप्त टूरिस्ट आवाजाही रहने के बावजूद इन कस्बों में बारिश के पानी को सहेजने यानी रेन वॉटर हार्वेस्टिंग की कोई व्यवस्था नहीं है और सीवेज सिस्टम भी दुरुस्त नहीं है।
जानकारों का कहना है कि पहाड़ों में जलवायु परिवर्तन का अर्थ ग्लेशियरों के पिघलने से ही नहीं है, स्थानीय कारकों और समस्याओं को भी देखना होगा जिनमें बरसात और झरनों के पानी की किल्लत भी एक समस्या है।
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पैनल के मुताबिक आने वाले वर्षों में बरसात से जुड़ीं ज्यादतियां और बढ़ने का अनुमान है जिनमें कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा भी शामिल है और अतिवृष्टि भी। कुछ इलाके और जलमग्न होंगे तो कुछ इलाके सूखे रह जाएंगे।
मॉनसून की बेतरतीबियां वैसे ही फसलों को नुकसान पहुंचा रही हैं, जो खाद्य संकट के रूप में परिलक्षित होंगी। बीमारियां जो हैं, सो अलग। जलस्रोत पर्याप्त मात्रा में रिचार्ज नहीं होंगे जिसका असर पानी की उपलब्धता पर पड़ेगा।
इनके अलावा कमजोर जलप्रबंधन, योजनाओं की कमी और पीक सीजन में कमजोर टूरिज्म प्रबंधन भी इस संकट के लिए जिम्मेदार है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 12 हिमालयी राज्य जलवायु परिवर्तन के लिहाज से अत्यधिक संवेदनशील हैं।
ताजा अध्ययन में यह भी पाया गया कि पानी की कमी का संबंध, वर्ग जाति और लिंग से भी है। मिसाल के लिए काठमांडू में पाया गया कि वहां के 20 प्रतिशत गरीब परिवारों को सरकारी जलापूर्ति नहीं मिलती है। इनका रोजमर्रा का काम निजी पानी टैंकरों से चलता है यानी पानी के लिए गरीब ज्यादा पैसा चुका रहे हैं। ये जल आर्थिकी का सबसे विडंबनापूर्ण पक्ष है।
वैसे तो जलवायु परिवर्तन से विस्थापित होने वाली आबादी या आबादी समूह को लेकर कोई पक्का डाटा उपलब्ध नहीं है लेकिन 'इंडिया स्पेंड' में आए दिसंबर 2019 के एक आंकड़े के मुताबिक भारत 181 देशों में से उन देशों में 5वें नंबर पर आता है, जो जलवायु परिवर्तन की मार से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
पानी की वजह से होने वाले विस्थापनों का सही-सही आंकड़ा भले न हो लेकिन यह तय है कि इसमें भी सबसे ज्यादा मार महिलाओं पर पड़ती है। वे और बच्चे सबसे ज्यादा भुगतते हैं। जाहिर है गरीब आबादी ऐसे पर्यायवरणीय और सामाजिक संकटों की चपेट में सबसे पहले आती है।
अध्ययन में बताया गया है कि ऐसे संकटों का समाधान स्थानीय स्तर पर ही ढूंढा जा सकता है। न सिर्फ स्थानीय निकाय मजबूत होने चाहिए बल्कि स्थानीय कारणों और उपायों को भी देखा जाना चाहिए। जल प्रबंधन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाए जाने की भी जरूरत है। पर्वतीय इलाकों की बुनियादी योजनाएं भी स्थानीय भूगोल के लिहाज से बनाई जानी चाहिए।
इतने विशद अध्ययन से इतर यह बताए जाने की भी जरूरत है कि तीव्र औद्योगीकरण और बांध से लेकर सड़क और इमारतों तक निर्माण परियोजनाओं से पहाड़ी पर्यावरण और पारिस्थितिकी को कितना नुकसान पहुंचा है या पहुंच रहा है?
सरकारों की जवाबदेही तय करने वाले बिंदुओं को और जोरदार ढंग से रेखांकित किए जाने की भी जरूरत है और आम लोगों के बीच भी जागरूकता का स्तर बढ़ाने के लिए सतत अभियान चलाया जाना भी उतना ही जरूरी है, क्योंकि अक्सर देखा गया है कि पानी की किल्लत की भरपाई तात्कालिक तरीकों से कर दी जाती है लेकिन दीर्घकालीन रणनीति न होने से खामियाजा आखिरकार स्थानीय गरीब आबादी को ही भुगतना होता है।