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ट्रंप की जीत का मतलब होगा अरब के निरंकुश शासकों की जीत

हमें फॉलो करें ट्रंप की जीत का मतलब होगा अरब के निरंकुश शासकों की जीत

DW

, शनिवार, 26 सितम्बर 2020 (10:42 IST)
रिपोर्ट लुइस सैंडर्स
 
मिस्र से लेकर सऊदी अरब तक, अरब दुनिया के नेताओं को डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका से मदद मिली है। विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप का दोबारा राष्ट्रपति बनना इन सभी ताकतवर और कट्टर नेताओं की जीत होगी। 'कहां है मेरा पसंदीदा तानाशाह?'- बताया जाता है कि इन शब्दों के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने मिस्र के राष्ट्रपति और पूर्व जनरल अब्देल-फतेह अल-सीसी के बारे में पूछा था। पिछले साल जी-7 सम्मेलन के दौरान इन दोनों नेताओं ने अलग से मुलाकात की थी।
 
यह पहली बार नहीं था, जब ट्रंप ने किसी निरंकुश शासक के बारे में ऐसी बातें कहीं हों। उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन को वे एक 'महान नेता' तो रूस के नेता व्लादिमीर पुतिन को 'खुद से भी अच्छा इंसान' बता चुके हैं। कुछ पूर्व अमेरिकी अधिकारियों ने तो ऐसा भी बताया कि ट्रंप को ऐसे 'तानाशाहों से ईर्ष्या' होती है।
 
ताकतवर समर्थकों का साथ
 
मध्य पूर्व में अमेरिका ने अपनी नीतियों के चलते बहुत सक्रिय भूमिका निभाई है। अमेरिका ने नए नेताओं के आने और हटाए जाने में खूब दखल दिया है। ट्रंप जिस तरह के नेताओं को पसंद करते हैं उनके कार्यकाल में मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले बढ़े हैं, खासकर मिस्र और सऊदी अरब जैसे देशों में।
 
ह्यूमन राइट्स वॉच के अम्र मग्दी बताते हैं कि अल-सीसी जैसे अरब नेता यह देखकर बहुत खुश होते हैं कि अमेरिका जैसी वैश्विक महाशक्ति का नेतृत्व एक ऐसा राष्ट्रपति कर रहा है, जो प्रेस पर खुलेआम हमले बोलता है, मानवाधिकारों की अनदेखी करता है और पॉपुलिस्ट एजेंडा चलता है।
 
व्हाइट हाउस में दोस्त होने का फायदा
 
अगर ट्रंप फिर से जीतते हैं तो व्हाइट हाउस में मिस्र का समर्थक कायम रहेगा। ट्रंप से पहले 2 बार अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा ने 2013 में मिस्र में हुए सत्तापलट की कोशिश के मद्देनजर आर्थिक और सीधी सैन्य सहायता रोक दी थी।
 
वहीं ट्रंप ने उसे कहीं ज्यादा बढ़ा दिया है और वह भी ऐसे वक्त में जब मिस्र में राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं और किसी भी तरह के आलोचकों को देश की सुरक्षा एजेंसियां लगातार निशाना बना रही हैं। लेकिन मिस्र एकलौता अरब देश नहीं है जिसे व्हाइट हाउस के अपने अमेरिकी मित्र से बेहिसाब समर्थन मिलता है।
 
पहले अमेरिका और फिर सऊदी अरब
 
सऊदी अरब से संबंधों के लिहाज से ट्रंप का शासनकाल ओबामा-काल से नाटकीय रूप से अलग रहा है। 2016 में राष्ट्रपति बनते ही ट्रंप ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए सऊदी अरब को चुना था। सऊदी अरब के ताकतवर क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को ट्रंप से खुला सहयोग हासिल है। 2018 में अमेरिका में रहने वाले सऊदी मूल के पत्रकार जमाल खशोगी की इस्तांबुल में हुई हत्या के सिलसिले में अमेरिका में उठी जांच की मांगों से ट्रंप प्रशासन ने क्राउन प्रिंस को बखूबी बचाया।
 
जब बाकी सब यमन युद्ध में सऊदी अरब के युद्ध करने पर आपत्तियां उठा रहे थे, तब भी ट्रंप प्रशासन ने आगे बढ़कर सऊदी के साथ 8 अरब डॉलर के हथियार बेचने का सौदा किया। एक बेहद साफ संदेश तब भी गया, जब सऊदी के चिर प्रतिद्वंद्वी ईरान के साथ हुए वैश्विक परमाणु समझौते से ट्रंप ने एकतरफा कार्रवाई करते हुए अमेरिका को बाहर निकाल लिया।
 
अगर ट्रंप नहीं जीते तो क्या होगा?
 
लेकिन अगर ट्रंप की जगह पूर्व उपराष्ट्रपति जो बिडेन नवंबर में होने जा रहे राष्ट्रपति चुनाव में जीत जाते हैं तो स्थिति कितनी बदलेगी? बिडेन यमन युद्ध में सऊदी अरब के समर्थन के कारण उसे अमेरिकी मदद बंद करने की बात कह चुके हैं। वे मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वालों को सबक सिखाने का इरादा भी जता चुके हैं। उन्होंने कहा था कि राष्ट्रपति के तौर पर वे 'सऊदी अरब, चीन और उस हर देश को जवाबदेह ठहराएंगे, जो अपने नागरिकों के मानवाधिकारों का हनन करता है।'
 
ईरान को लेकर वैश्विक परमाणु समझौते में और भी सख्त शर्तों के साथ वापस लौटने की शपथ ले चुके बिडेन अपनी नीतियों को यूरोपीय नीतियों के ज्यादा से ज्यादा करीब लाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन जाहिर है कि नए राष्ट्रपति के चुने जाने तक पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता है।

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