दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर भारतीय किसान आंदोलन के नेता राकेश टिकैत के भावुक भाषण के बाद न सिर्फ किसान आंदोलन की गति में धार में आई है बल्कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश की राजनीति में भी हलचल दिखने लगी है।
राजधानी दिल्ली में 26 जनवरी को हुई हिंसा के बाद राकेश टिकैत समेत कई नेताओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज करके जब उन्हें गिरफ्तार करने की कोशिशें हुई हैं और ऐसा लगा कि अब कम से कम गाजीपुर बॉर्डर पर जमे किसानों को वहां से हटा ही दिया जाएगा और ऐसा दिखने भी लगा था तभी राकेश टिकैत का गुस्से में दिया गया भावुक भाषण आंदोलन के लिए संजीवनी बनकर आ गया।
इस भाषण के बाद न सिर्फ गाजीपुर बॉर्डर पर किसान दोबारा आने लगे, ज्यादा संख्या में आने लगे बल्कि अगले ही दिन मुजफ्फरनगर जिले में एक बड़ी पंचायत करके उन्होंने किसानों की ताकत को भी दिखा दिया। महज कुछ घंटों के आह्वान पर हजारों किसानों का किसी एक जगह जुट जाना, राकेश टिकैत के आंसुओं की प्रतिक्रिया ही थी, कुछ और नहीं।
मुजफ्फरनगर किसान महापंचायत में शामिल सहारनपुर के एक युवा किसान दीपेंद्र सिंह का कहना था कि यूं तो तमाम युवा पढ़ाई-लिखाई के कारण बॉर्डर पर नहीं जा रहे थे लेकिन अब हम सब लोग वहां जाएंगे। सरकार न सिर्फ किसानों को बदनाम कर रही है बल्कि उन पर जबरन बलप्रयोग करके वहां से हटा रही है।
एक दिन पहले दिल्ली से लगे यूपी के बागपत में भी खाप पंचायत हुई जिसमें 27 जनवरी को धरने से जबरन उठाए जाने और किसान कानूनों के खिलाफ लड़ाई तेज करने का फैसला हुआ। बागपत में कृषि कानूनों के विरोध में किसानों का धरना दिल्ली-यमुनोत्री नेशनल हाईवे पर 1 महीने से चल रहा था। 27 जनवरी को प्रशासन ने इसे जबरन खत्म करा दिया जिसके विरोध में 30 जनवरी को खाप पंचायत हुई।
किसान आंदोलन में नया मोड़
मुजफ्फरनगर में हुई किसान महापंचायत में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने कहा कि हमने बीजेपी को जिताकर बड़ी भूल की है। उन्होंने यह भी कहा कि हमें अजीत सिंह को हराना नहीं चाहिए था। नरेश टिकैत जब यह बोल रहे थे, उस वक्त मंच पर राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी भी मौजूद थे। इसके अलावा समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के नेता भी वहां थे।
वहीं दूसरी ओर गाजीपुर बॉर्डर पर जारी धरना स्थल पर भी राजनीतिक दलों के लोगों का जमावड़ा 28 जनवरी को बाद से दिखने लगा। इससे पहले किसानों ने राजनीतिक दलों से दूरी बना रखी थी। यह दूरी अभी भी बनी हुई है लेकिन राजनीतिक दलों के नेताओं को आने से नहीं रोका जा रहा है और उनका समर्थन भी हासिल किया जा रहा है।
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह कहते हैं कि राकेश टिकैत के आंसुओं ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश के राजनीतिक समीकरणों को एक बार फिर साल 2013 के पहले की स्थिति में ला दिया है। उनके मुताबिक राष्ट्रीय लोकदल जैसी लगभग खत्म हो चुकी पार्टी पर नरेश टिकैत का भरोसा जताना काफी महत्वपूर्ण है। साल 2013 में जाटों और मुस्लिमों के अलग होने का फायदा सिर्फ और सिर्फ बीजेपी को मिला। यदि यह एकजुटता कायम हो जाती है तो नुकसान भी सिर्फ और सिर्फ बीजेपी का ही होगा।
अरविंद कुमार सिंह कहते हैं कि अजीत सिंह का राजनीतिक इतिहास चाहे जैसा रहा हो, कई दल बदलने का रहा हो लेकिन पश्चिमी यूपी के लोग उन्हें आज भी जाट नेता के तौर पर देखते हैं। किसानों को अब यह लग रहा है कि अजीत सिंह संसद में होते तो कम से कम किसानों की बात वहां रख तो सकते थे।
उत्तरप्रदेश की राजनीति में किसानों का प्रभाव
साल 2019 का लोकसभा चुनाव अजीत सिंह ने मुजफ्फरनगर से ही लड़ा था और उनके बेटे जयंत चौधरी बागपत से लड़े थे। अजीत सिंह बीजेपी उम्मीदवार संजीव बाल्यान से महज 6 हजार वोटों से हार गए थे। विश्लेषकों के मुताबिक, जीत-हार का यह अंतर बताता है कि बीजेपी की इस लहर के बावजूद अजीत सिंह को लोगों का समर्थन हासिल था। बावजूद इसके, बड़ी संख्या में जाटों ने बीजेपी को वोट दिया था।
दरअसल, पश्चिमी यूपी की राजनीति में चौधरी चरण सिंह का कभी वर्चस्व हुआ करता था। हालांकि उन्होंने अपनी छवि जाट नेता की तरह नहीं बल्कि किसान नेता के तौर पर बनाई और किसानों के मुद्दों से कभी भटके नहीं। अजीत सिंह ने कई पार्टियों के साथ गठबंधन किया, सरकार में सहयोगी रहे जिससे उनकी छवि वैसी नहीं रह पाई जैसी कि उनके पिता चौधरी चरण सिंह की थी। फिर भी पश्चिमी उत्तरप्रदेश में पिता की विरासत का उन्हें भरपूर लाभ मिला है और राकेश टिकैत की इस संवेदना से इसे और मजबूती मिली है।
विश्लेषकों का मानना है कि किसान आंदोलन यदि लंबा खिंच गया तो आगामी 2022 के विधानसभा चुनावों में पश्चिमी यूपी में बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि आंदोलन की आगे की दिशा क्या होगी और यह कब तक जारी रहेगा?
चुनावों में जाटों की अहम भूमिका
पश्चिमी यूपी राजनीतिक नेता के तौर पर यदि चौधरी चरण सिंह का जिक्र होता है तो किसान नेता के तौर पर चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का। हाल के वर्षों में स्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल पार्टी और भारतीय किसान यूनियन राजनीतिक तौर पर विरोधी खेमे में रहीं। भारतीय किसान यूनियन राजनीतिक दल नहीं है लेकिन उसका समर्थन पिछले चुनावों में बीजेपी को रहा है, ऐसा उसके नेताओं का दावा है।
उत्तरप्रदेश में जाटों की आबादी यूं तो करीब 7 प्रतिशत है लेकिन मुख्य रूप से पश्चिमी यूपी में ही उनका दबदबा है। यहां करीब 17 फीसदी जाट हैं और करीब डेढ़ दर्जन लोकसभा सीटों पर अपना प्रभाव रखते हैं। यही नहीं, जाट आबादी विधानसभा की भी करीब 120 सीटों के परिणाम को प्रभावित करने का माद्दा रखती है।
साल 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों ने यहां जाट और मुस्लिमों के बीच दरार पैदा कर दी जिसका असर रहा कि साल 2014 लोकसभा चुनाव में विपक्ष का पश्चिमी यूपी से लगभग खात्मा ही हो गया और साल 2017 के विधानसभा और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी उसे कुछ खास हासिल नहीं हुआ। बीजेपी ही फायदे में रही। बीजेपी के लिए यह किसी खतरे की घंटी से कम नहीं है कि जो जाट-मुस्लिम एकता उसे राजनीतिक लाभ दिला रही थी, यदि एक बार फिर कायम हो गई तो उससे होने वाले नुकसान का आकलन नहीं किया जा सकता है।