ट्रिपल तलाक और बहुविवाह के खिलाफ एक जनहित याचिका, 11 मई से सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में आ रही है। लेकिन सवाल ये भी है कि क्या कोर्ट का आदेश मान्य होगा या संसद मुस्लिम पर्सनल कानून को बदलने पर मुहर लगाएगी। तलाक के मसले पर इधर कई ढंग के विमर्श सामने आए हैं। कई बातें खुलकर हो रही हैं। और पहली बार यह भी पता चल रहा है कि कट्टरपंथी ज्यादतियों की शिकार महिलाएं अपने रास्ते की बाधाओं को अपने दम पर हटा भी रही हैं।
ट्रिपल तलाक के मसले पर केंद्र की बीजेपी सरकार मुखर नजर आती है। ऐसी वारदातों के बीच जब एक ओर गाय और लव जिहाद के नाम पर अल्पसंख्यक नागरिक दिन दहाड़े बर्बरता से मारे जा रहे हैं, मानवाधिकारों का उल्लंघन खुलेआम हो रहा है, कुछ स्वयंभू कट्टर सड़कों पर दिन रात कानून हाथ में लिए घूम रहे है, तो ऐसे में मुस्लिम समाज की महिलाओं के मसले पर सरकार की तत्परता आश्चर्य तो जगाती ही है। वरना उनकी सुनता कौन है।
80 के दशक का शाहबानो केस भला कौन भूलेगा जो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कट्टरपंथियों के आगे झुक जाने की एक कुख्यात मिसाल माना जाता है। न सिर्फ उस समय मुस्लिम कट्टरपंथियों को बल मिला बल्कि वही दौर था जब कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व के सहारे बहुसंख्यक वोट बैंक को भी रिझाने निकली थी। लेकिन संघ और बीजेपी ने ये वोट बैंक उसे इतनी आसानी से नहीं छीनने दिया बल्कि अपनी बहुसंख्यकवादी राजनीति को ही और तीखा बना दिया।
कोर्ट में जो मुद्दे उठे हैं उनमें सबसे प्रमुख तो यही है कि कोई पर्सनल कानून क्या संवैधानिक बदलाव की परिधि में आता है या नहीं। 1937 में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट बना था। जो सभी विवादों के लिए शरीयत को ही आखिरी रास्ता मानता है।
हालांकि समय समय पर सुप्रीम कोर्ट और देश की अन्य अदालतों खासकर दिल्ली हाईकोर्ट, केरल हाइकोर्ट और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक झटके में तीन बार तलाक बोल देने भर से औरत को परिवार से अलग कर देने की प्रथा को गलत मानते हुए इसके खिलाफ फैसले सुनाए हैं लेकिन इस बार याचिकाकर्ता के पक्षकार चाहते है कि सुप्रीम कोर्ट नजीर वाला फैसला सुना दे। और इस विवाद का स्थायी समाधान करा दे।
यह स्त्री अधिकारों का गंभीर मुद्दा है। कई मुस्लिम देशों में यह प्रथा नहीं है, इसलिए भारत में इसे धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर बनाये रखने का समर्थन नहीं किया जा सकता। सामाजिक और धार्मिक संस्थायें यदि खुद सुधारों की हिम्मत नहीं करतीं तो आखिरकार उन्हें राजनीतिक दबाब, राजनीतिक फैसले या कानूनी आदेश के तहत ये करना होगा। दूसरी राजनीतिक पार्टियों की इस मुद्दे पर उदासीनता पर भी अफसोस होता है। जबकि मुस्लिम महिलाओं की इस मांग का इतिहास पुराना है। और आजादी के बाद से ही पर्सनल लॉ को लेकर विवाद रहे हैं।
2011 की जनगणना के मुताबिक देश में मुस्लिम महिलों की संख्या 8.397 करोड़ है यानी कुल आबादी की करीब सात प्रतिशत मुस्लिम महिलाएं हैं। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के हाल के आंकड़े बताते हैं कि तलाक के मामले में मुस्लिम महिलाएं भारतीय समाज का सबसे वलनरेबल सामाजिक समूह है। प्रति हजार शादीशुदा महिलाओं में मुस्लिम महिलाओं में तलाक की दर 5.63 है जबकि राष्ट्रीय दर 3.10 है। 2.12 लाख तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं में 20-34 आयुवर्ग की महिलाएं करीब 44 प्रतिशत हैं।
कम उम्र का ये आयु वर्ग देश में कुल मुस्लिम महिला आबादी का सिर्फ 24 प्रतिशत है। राहत की बात ये भी है कि इसी दौरान तलाक और अलगाव को लेकर समुदाय के भीतर कुछ सकारात्मक हरकत भी देखी गई है। 2001 से 2011 के बीच तलाकशुदा या अलग की गई सभी महिलाओं की संख्या में 40.13 फीसदी की वृद्धि हुई। 2001 में ये संख्या 23.42 लाख थी तो 2011 में ये संख्या बढ़कर 32.82 लाख हो गई। मुस्लिम महिलाओं में ये आंकड़ा 3.59 लाख और 4.99 लाख का था यानी 39 फीसदी की वृद्धि।
तलाक के मामले और समुदायों में भी सघन हैं। लेकिन इन्सटैंट तलाक का ये विद्रूप मुस्लिम महिलाओं के विकास में रोड़े अटका रहा है। जबकि उनमें इधर शिक्षा, विवाह, स्वास्थ्य, रोजगार और कुल आत्मनिर्भरता को लेकर जागरूकता आई है। और एनएसएसओ के आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। अगर सिर्फ विवाह की ही बात करें तो 20-39 के आयुवर्ग की भारतीय महिलाओ में अविवाहित महिलाओं की संख्या मुस्लिमों में ही सबसे ज़्यादा रही है- यानी 2001 से करीब 94 फीसदी की बढ़ोतरी।
इसी तरह बच्चे पैदा करने के मामले में भी मुस्लिम औरतें जागरूक हुई हैं। 20-39 आयुवर्ग की विवाहित मुस्लिम महिलाओं के बच्चे नहीं हैं या उन्होंने बच्चे पैदा न करने का फैसला किया है। इस जागरूकता का स्तर 39 फीसदी बढ़ा है। हालांकि ग्रामीण इलाकों में मुस्लिम महिलाओं की स्थितियों में सुधार उस स्तर पर नहीं हुआ है।
सरकारों को चाहिए कि वे महिला सशक्तिकरण अभियानों को और व्यापक और परिणामकेंद्रित बनाएं। विधि आयोग जैसी संस्थाओं को तमाम समुदाय की महिलाओं से जुड़े आंकड़े जुटाने चाहिए। एक वृहद अध्ययन होना चाहिए कि किस समुदाय में तलाक और बहुविवाह या अन्य कुप्रथाएं सबसे ज्यादा हैं। एक समावेशी कार्यक्रम देशव्यापी स्तर पर चलाना चाहिए जिससे पुरुषवादी सत्ता संरचना को बल न मिले। राजनैतिक भागीदारी एक बड़ा प्रश्न है। मीडिया को भी समझना होगा कि सनसनी से देश की जीडीपी नहीं बढ़ती। अंधेरा बढ़ता है।