भारत में 10वीं और 12वीं के परीक्षा नतीजे बताते हैं कि अब शिक्षा ‘सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट’ का खेल हो कर रह गई है। अंकों की खतरनाक होड़ कितनी जानलेवा बन चुकी है, तेलंगाना में 22 छात्रों की आत्महत्या ये दिखाती है।
एनसीईआरटी, सीबीएसई जैसे केंद्रीय शिक्षा बोर्डों के अलावा विभिन्न राज्यों के अपने शिक्षा बोर्डों के 10वीं और 12वीं के परीक्षा परिणामों में करीब 90 के पास प्रतिशत के अलावा करीब 100 फीसदी परसेंटाइल वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ी है। विगत कई वर्षों की तरह इस बार भी छात्राएं अव्वल रही हैं। अब इंजीनियरिंग और मेडिकल के अलावा स्नातक कोर्सों में दाखिलों की होड़ भी शुरू हो गयी है। लगता यही है कि अंकीय प्रदर्शन में जो जितना ऊपर है वह उतना ही सफल और असाधारण माना जा रहा है।
मीडिया में तस्वीरों और बयानों के साथ उनकी प्रतिभा के झंडे गाड़े जाते हैं लेकिन इसका कितना मनोवैज्ञानिक दबाव कम अंकों वाले या अनुत्तीर्ण छात्रों पर पड़ता है, इसकी चिंता किसी को नहीं रहती। उधर तेलंगाना में 22 छात्रों की आत्महत्या बताती है कि 12वीं के बाद करियर-केंद्रित प्रतियोगिताओं का दबाव छात्रों को किस कदर बर्बाद कर रहा है।
12वीं के नतीजे आने के बाद अखबारों में ताबड़तोड़ कोचिंग संस्थानों और निजी स्कूलों के इश्तिहार आने लगते हैं। आधे पेज से लेकर दो तीन पेज के इन विज्ञापनों में अपने संस्थान के सफलतम छात्रों की अंगूठा आकार की फोटो चिपकाकर ये अपना गुणगान करते हैं। कई बार तो एक ही अखबार में प्रतिस्पर्धी संस्थानों के विज्ञापन ऊपर नीचे या आमने सामने छपे दिखते हैं। इसके अलावा अखबार के साथ आने वाले पर्चे, परिशिष्ट और पैंफलेट हैं और फिर सड़कों पर बैनर, बोर्ड, वॉल राइटिंग भी होती ही है।
अखबार हो या टीवी, सब सफल परीक्षार्थियों के गुणगान से भरे रहते हैं। इंटरव्यू छापे जाते हैं, दिखाये जाते हैं। कुल मिलाकर माहौल ऐसा बन जाता है कि मानो कम अंक वाले छात्र समाज से बहिष्कृत हों। शिक्षा का ये एक समांतर तंत्र है, निरंतर फैलता हुआ एक दानवी बाजार- जिसमें से होकर हैरान परेशान विद्यार्थी और गुमसुम मां-बाप गुजर रहे हैं। ज्यादा से ज्यादा अंकों की ये मारामारी एक डरा हुआ और व्यग्र समाज बना चुकी है।
इसी का नतीजा दिखता है तेलंगाना की उन दिल दहला देने वाली घटनाओं में जहां पिछले दिनों अलग अलग जगहों पर 10वीं और 12वीं के 23 छात्रों ने आत्महत्या कर ली। उनके परिवार तबाह हैं और उनके अंधेरे और सघन हो चुके हैं। कम नंबर आने या फेल हो जाने से प्रतियोगी परीक्षा में न निकल पाने या अच्छे कॉलेज में दाखिला न हो पाने का सदमा वे छात्र सह नहीं पाए। और उनके कम अंकों की वजह तो स्तब्धकारी थी।
खबरों के मुताबिक सॉफ्टवेयर की तकनीकी गड़बड़ी से कई छात्रों के नंबर में उलटफेर हुए। अब भले ही जांच बैठा दी गई है लेकिन जिम्मेदारी लेने के लिए न विभाग तैयार है न अंक चढ़ाने वाली एजेंसी। सॉफ्टवेयर निर्माता तो फिर भला अपने ऊपर दोष क्यों ही लेगा। बदनसीब छात्रों की काउंसिलिंग के लिए, उन्हें समझाने बुझाने और प्रेरित करने के लिए कोई नहीं था- शिक्षक, परिजन, कोचिंग संस्थान, अधिकारी, सिस्टम या परिजन- कोई नहीं।
क्या ये एक तरह का आतंकवाद नहीं है? शिक्षा के समूचे ढांचे और अंकों की बादशाहत का बनाया हुआ आतंक! जो न जाने कितने ही छात्रों की जिंदगियों से खिलवाड़ कर रहा है। क्या सरकार को प्रतियोगिता और सफलता के इस आतंक से मुकाबले का आह्वान नहीं करना चाहिए। शिक्षा न सिर्फ अंकों के बोझ से बल्कि अंकों के खौफ से भी डगमगा रही है। आंकड़े बताते हैं कि जिन विभिन्न कारणों से पिछले कुछ वर्षों में 15-29 साल के युवाओं ने आत्महत्याएं की थीं उनमें परीक्षा का नतीजा भी एक प्रमुख कारण था। 2012 की लैंसेंट रिपोर्ट में बताया गया था कि सबसे ज्यादा युवा (15-29 साल) आत्महत्या दर वाले देशों में भारत भी एक है।
कठिन परिस्थितियों में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों छात्रों की उपलब्धि बेशक सराहनीय और अनुकरणीय है लेकिन ये भी देखना चाहिए कि वे इन अंकों के बोझ से न दबें रहे और अपना भविष्य अंकों की होड़ के हवाले न कर दें। और वे ऐसा तभी कर पाएंगें जब शिक्षा पद्धति में कुछ ऐसे बदलाव हों जिनका संबंध रैंकिंग और मेरिट से ज्यादा समान और अधिकतम अवसरों के निर्माण पर हो और योग्यताओं के निर्धारण में अंकों का ही बोलबाला न हो। स्कूली शिक्षा को पाठ्यक्रम, बस्ते और अंकों के भारी बोझ से मुक्त करना हर हाल में जरूरी है। शिक्षा को अलग अलग बोर्डों के आधिपत्य से भी छुटकारा चाहिए। शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिक छात्रोन्मुखी बनाए जाने चाहिए। दरअसल देश को एक नई शिक्षा नीति की जरूरत है।
कुछ जागरूक हलकों से छात्रों को जो काउंसिलिंग मिलती भी है, वो अधूरी और अपर्याप्त है। उसका कोई असर व्यग्र छात्रों पर नहीं पड़ता है क्योंकि उनके इर्दगिर्द भारी-भरकम अंकों वाले उनका 'पीयर ग्रुप' होता है, उपहास और तानाकशी का माहौल रहता है और उन्हें खुद भी यही लगता है कि सब लोग उन्हें हिकारत से देख रहे हैं। ऐसी खतरनाक मनोवैज्ञानिक स्थिति न आने देने की गारंटी तो पहले घर से ही शुरू होती है। फिर स्कूल और शिक्षकों का भी बड़ा योगदान है। वे नंबर नहीं बल्कि योग्यता के लिए छात्रों को प्रेरित करें तो बेहतर हो। कोचिंग संस्थानों का दबाव छात्रों के सपने कुचल रहा है। उन्हें लेकर तो कोई नीति हर हाल में बनानी होगी। नीयत भी सही चाहिए। मीडिया की भी जवाबदेही है।
अंकों को लेकर ऐसी सामाजिक भयावहता शायद ही कहीं देखी जाती होगी। और ये भी कम दुखद नहीं कि इसे लेकर चिंताएं भी न जाने कितने वर्षों से प्रकट की जाती रही हैं। फिर भी शिक्षा के कारोबार और कॉरपोरेटीकरण की तरह ये विकार फलता फूलता ही रहा है। अब नैतिक साहस और देशव्यापी प्रभाव वाली कोई ठोस कार्रवाई ही छात्रों को इस दुष्चक्र से मुक्ति दिला सकती है।