श्रीलंका 2009 में तमिल अलगाववादियों की हार के बाद अपने यहां हिंसा को जैसे तैसे काबू करने में कामयाब रहा। लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इस बीच कई विवाद वहां लगातार सुलगते रहे और ईस्टर पर हुए हमले इन्हीं का नतीजा हो सकते हैं।
श्रीलंका में एक के बाद एक हुए आठ धमाकों में अब तक 207 लोग मारे गए हैं। राजधानी कोलंबो और देश के अन्य इलाकों में ईस्टर के दिन चर्चों और होटलों को निशाना बनाया गया। मारे गए लोगों में कई विदेशी भी हैं।
किसी भी समूह ने अब तक हमलों की जिम्मेदारी नहीं ली है लेकिन सुरक्षा अधिकारी कहते हैं कि जिस तरह नियोजित और समन्वित तरीके से ये धमाके किए गए हैं, वह किसी संगठित उग्रवादी संगठन का काम लगता है। श्रीलंका के रक्षा मंत्री ने कहा है कि हमलों के सिलसिले में सात संदिग्धों को गिरफ्तार किया गया है।
ब्रसेल्स स्थित साउथ एशिया डेमोक्रेटिक फोरम में दक्षिण एशिया मामलों के जानकार जीगफ्रीड ओ वोल्फ का कहना है, "इस वक्त यह कह पाना मुश्किल है कि इन धमाकों के पीछे किसका हाथ हो सकता है। लेकिन इस दक्षिण एशियाई देश के अशांत इतिहास और वहां लगातार जारी राजनीतिक तनावों को देखते हुए कुछ ऐसे संभावित समूहों की पहचान की जा सकती है जो इस हमले के पीछे हो सकते हैं।"
उन्होंने कहा, "मैं इस सिलसिले में चार सूमूहों के नाम लेना चाहूंगा: इस्लामी चरमपंथी, कट्टरपंथी बौद्ध संगठन, उग्रवादी तमिल (हिंदू) समूह और आखिर में कुछ ऐसे हथियार बंद विपक्षी समूह जो प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की सरकार को अस्थिर करना चाहते हैं।"
वोल्फ कहते हैं, "लेकिन मुझे नहीं लगता कि कट्टरपंथी बौद्ध संगठनों के पास इस तरह समन्वित तरीके से उच्च स्तर के हमले करने की क्षमता है। इसके अलावा, बौद्ध समूह शायद चर्चों को निशाना नहीं बनाते। इसी तरह, तमिल संगठनों का भी इस हमले के पीछे हाथ दिखाई नहीं पड़ता। मेरी राय में, जिस तरह से हमले किए गए हैं और ईस्टर के दिन चर्चों को निशाना बनाया गया है, ऐसे हमले अंतरराष्ट्रीय जिहादी गुट अल कायदा या फिर इस्लामिक स्टेट और उससे जुड़े संगठन करते रहे हैं।"
विश्लेषकों का कहना है कि आईएस और अल कायदा जैसे गुट दक्षिण एशिया में लगातार सक्रिय हो रहे हैं। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तो वे खासे मजबूत रहे हैं, लेकिन अब उनसे जुड़े गुट दक्षिण एशिया के दूसरे देशों में भी पांव फैला रहे हैं।
श्रीलंका बौद्ध बहुल देश है जहां ईसाईयों की तादाद सिर्फ छह प्रतिशत है। रविवार को चर्चों और होटलों पर हुए धमाके श्रीलंका की सरकार के लिए एक बड़ा झटका हैं।
2009 में तमिल विद्रोहियों के सफाए के बाद से पिछले दस साल में श्रीलंका से किसी बड़े हमले की खबर नहीं मिली। हालांकि हाल के सालों में अल्पसंख्यक मुसलमानों पर कट्टरपंथी बौद्ध समूहों के छिटपुट हमले होते रहे हैं।
श्रीलंका में सुरक्षा हालात बेहतर होने से वहां पर्यटन को भी खूब बढ़ावा मिला है। पिछले कुछ सालों में वह विदेशी सैलानियों के सबसे पसंदीदा देशों में से एक रहा है।
वोल्फ कहते हैं, "बहुसंख्यक बौद्ध सिंहलियों और अल्पसंख्यक हिंदू तमिलों के बीच संघर्ष 2009 में आधिकारिक रूप से खत्म हो गया। लेकिन विवाद खत्म नहीं हुआ है और विभिन्न पहलुओं वाली इस समस्या का अब तक कोई राजनीतिक समाधान नहीं निकाला गया है।"
वोल्फ के मुताबिक चीन की 'वन बेल्ट वन रोड' परियोजना को लागू करने की वजह से भी आर्थिक और वित्तीय तनाव बढ़ रहा है। उनकी राय में, "टूरिज्म सेक्टर में तेज वृद्धि के बावजूद असमान विकास और विदेशी हस्तक्षेप श्रीलंका में राजनीतिक विवादों और तनावों को हवा दे रहे हैं।"
विशेषज्ञ इस बारे में एकमत है कि रविवार को हुए हमलों के बाद प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे पर दबाव बढ़ेगा जिनका विरोध कई राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं। पिछले साल अक्टूबर में राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरिसेना ने विक्रमसिंघे को उनके पद से हटा दिया था। हफ्तों तक चली खींचतान के बाद दिसंबर 2018 में उन्हें वापस उनका पद मिला।
भारत और चीन श्रीलंका में होने वाले घटनाक्रम पर करीब से निगाह रखते हैं। दोनों ही देश श्रीलंका में अलग अलग राजनीतिक समूहों का समर्थन करते हैं। लेकिन श्रीलंका में उग्रवादी हिंसा दोनों में से किसी के हित में नहीं है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने श्रीलंका में हुए हमलों की निंदा की है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने मीडिया से कहा कि वह श्रीलंका के घटनाक्रम को नजदीक से देख रहा है। हालांकि जानकार मानते हैं कि श्रीलंका की राजनीति में लंबे समय से दखल के बावजूद भारत श्रीलंका के अंदरूनी राजनीतिक मामलों से एक राजनयिक दूरी बनाकर रख रहा है।
भारत के ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के एन साथियामूर्ति कहते हैं, "कुछ मौकों को छोड़ दें तो भारत हमेशा इस रुख पर कायम रहा है कि वह पड़ोसी देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा।"