स्कूलों में बंटने वाले लड्डू, सांस्कृतिक कार्यक्रम और दिनभर लाउडस्पीकर में बजते देशभक्ति के गीत बच्चों के दिलोदिमाग में गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती जैसे सरकारी पर्वों के एक तरह से प्रतीक बन चुके हैं।
ये प्रतीक तभी से लगभग एक जैसे हैं जब से देश आजाद हुआ और गणतंत्र स्थापित हुआ। बाद में इन प्रतीकों में दोपहर को टीवी पर आने वाली गांधी, मदर इंडिया सरीखी फिल्में भी शामिल हो गईं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस जैसे राष्ट्रीय त्योहार सिर्फ यहीं तक हैं या फिर इनसे आगे भी इनका कोई महत्व है? और यदि ये यहीं तक सीमित हैं तो फिर इन्हें मनाने या याद करने का औचित्य क्या है?
इस बारे में जब युवाओं से बातचीत की जाती है तो कई बार बड़े रोचक जवाब मिलते हैं। बहुत से युवा इस दिन को एक प्रकार से देशभक्ति दिवस की तरह से देखते हैं तो कुछ घूमने-फिरने के लिए एक आवश्यक रूप से मिलने वाली छुट्टी की तरह से और कुछ के लिए ये दिन भी उन्हीं अन्य त्योहारों की तरह हैं जिन्हें हर साल अनिवार्य रूप से मनाया जाता है।
लखनऊ के रहने वाले और दक्षिण भारत के हैदराबाद में एक इंजीनियरिंग संस्थान में अध्यापन करने वाले पवन यादव कहते हैं, ये बेहद ख़ुशी का दिन होता है क्योंकि ये राष्ट्रीय पर्व है। इस दिन धार्मिक पर्वों या अलग-अलग क्षेत्रीय पर्वों जैसी सीमाएं नहीं होतीं। हालांकि मैं बचपन से सोचता था कि स्वतंत्रता दिवस का महत्व ज्यादा होना चाहिए क्योंकि उस रोज तो हम गुलामी से आजाद हुए थे पर जो आभा गणतंत्र दिवस या 26 जनवरी की होती है वो 15 अगस्त से बहुत ज़्यादा होती है। बहुत दिन बाद जाकर इस अंतर का मतलब समझ में आया।
पवन यादव इस अंतर को कुछ यूं बताते हैं, आजाद होने में और गणतंत्र घोषित करने में बहुत अंतर है। आज के दिन हमने एक महान संविधान को एक राष्ट्र के तौर पर अपनाया था। वो संविधान जो हिंदुस्तान के हर नागरिक को किसी जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग के आधार पर भेदभाव किए बगैर सबको बेहद जरूरी मूल अधिकार प्रदान करता है और उनकी सुरक्षा की गारंटी भी देता है और साथ ही नागरिकों को मौलिक कर्तव्य भी बताता है और ये उम्मीद करता है कि नागरिक उनका क्रियान्वयन करेंगे।
दरअसल, इस दिवस को उत्सव के रूप में हर साल मनाने, खासतौर पर विद्यालयों में मनाने का रिवाज भी इसीलिए है ताकि बच्चों के भविष्य निर्माण के साथ ही उनकी अपने नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता और नागरिक के तौर पर देश और समाज के प्रति कर्तव्यों के ज्ञान का विकास हो। विद्यालयों और कॉलेजों के बच्चों में इस किताबी ज्ञान में वृद्धि जरूर होती है लेकिन वो व्यावहारिक धरातल पर आगे चलकर कितना उतर पाता है, ये अक्सर सवाल बनकर खड़ा रहता है।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रोफेसर रहे हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं, सात दशक बाद भी हम अपने गणतंत्र को याद करते हैं, उसे पाने के पीछे के इतिहास को जानने की कोशिश करते हैं और फिर उसके अनुसार व्यवहार करने की शपथ लेते हैं, यह संविधान और आजादी की उपलब्धि है लेकिन आगे चलकर जब हम जिम्मेदार नागरिक बनते हैं, जिम्मेदार पद पर पहुंचते हैं, जब इस जिम्मेदारी का ऋण चुकाने का मौका हमें ज्यादा मिलता है, तब हम कंजूसी करने लगते हैं और लापरवाही बरतने लगते हैं। यही इस संविधान की बहुत बड़ी कमजोरी भी है।
हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं कि राष्ट्रभक्ति, देशप्रेम, नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता जैसी बातें सिर्फ किताबी और दिखावटी नहीं होनी चाहिए, बल्कि ये लोगों के दिल में होनी चाहिए। उनके अनुसार, हमारी शिक्षा इस तरह से होनी चाहिए कि हम जब भी इन सबसे विमुख होने लगें तो कुछ इस तरह अपराधबोध होना चाहिए जैसा कि धार्मिक कर्तव्यों के उल्लंघन के संदर्भ में होता है।
दिल्ली के एक नामी पब्लिक स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाले वैभव कहते हैं कि वो कभी इस दिन अपने स्कूल में जाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं। पूछने पर बताते हैं, इस दिन हम सारे दोस्त एक जगह इकट्ठे होकर क्रिकेट खेलते हैं। शाम को किसी के घर पर पार्टी करते हैं और फिर छुट्टी खत्म।
वैभव की बात का समर्थन करते हुए उनके एक मित्र सवाल करते हैं, हमें पता है ये किसलिए मनाया जाता है लेकिन आप बताइए कितने लोग इसे मन से मनाते होंगे? किसी उत्सव या त्योहार को क्या किसी पर थोपा जाना चाहिए? इन त्योहारों को तो लोगों के विवेक पर छोड़ देना चाहिए और जिस तरह से होली-दिवाली-ईद जैसे त्योहार मनाए जाते हैं, वैसे ही इन्हें भी मनाया जाना चाहिए।
राजपथ से पहले 1950 से 1954 तक गणतंत्र दिवस की परेड नेशनल स्टेडियम, किंग्सवे, रामलीला मैदान और लालकिले में हुई। राजपथ पर परेड का सिलसिला 1955 से शुरू हुआ।
रिपोर्ट : समीरात्मज मिश्र