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कमजोर आंखों के लिए अब नहीं पड़ेगी चश्मे की जरूरत

हमें फॉलो करें कमजोर आंखों के लिए अब नहीं पड़ेगी चश्मे की जरूरत
, शनिवार, 13 जुलाई 2019 (12:52 IST)
उम्र बढ़ने के साथ आंखों की तालमेल बैठाने की क्षमता मद्धम पड़ जाती है। ऐसे में क्या कभी बूढ़े हो रहे लेंस को ऑर्गेनिक लेंसों से बदला जा सकता है?
 
 
बढ़ती उम्र के सथ लोगों को प्रेसबायोपिया का अहसास होता है। प्रेसबायोपिया असल में ऐसी समस्या है जब आंखों के लेंस कुछ सख्त होने लगते हैं। अभी यह नहीं पता चल सका है कि ऐसा क्यों होता है। लेकिन यह जरूर पता चल चुका है कि लेंस अपनी लचक और दूरी बरकरार रखने की पूरी क्षमता खो देते हैं।
 
 
40 की उम्र पार करते ही मारिया मोंटेस की नजर काफी कमजोर हो गई, खास तौर पर नजदीक की। उन्हें पढ़ने के लिए चश्मा लगाना पसंद नहीं है, इसीलिए किसी और विकल्प की खोज में डॉक्टर के पास गईं। सर्जरी कर उनके सख्त हो चुके प्राकृतिक लेंस को कृत्रिम लेंस से बदला गया। अब वे दूर और नजदीक स्पष्ट रूप से देख सकती हैं। लेकिन लेंसों की अदला बदली अभी पूरी तरह परफेक्ट नहीं हुई है।
 
 
स्पेन के आंखों के डॉक्टर इग्नासियो मोरोटे का कहना है, "अच्छा तो यह होगा कि प्रेसबायोपिया के लिए ज्यादा फिजियोलॉजिकल उपाय खोजे जाएं जो इंसान के क्रिस्टलाइन लेंस के व्यवहार की नकल करें। जो लेंस हम लगा रहे हैं वह पास, दूर और मध्यम दूरी की नजर को ठीक करता है। लेकिन खुद को माहौल के मुताबिक ढालने के लिहाज से यह बहुत उम्दा नहीं है।"
 
 
वैज्ञानिक अब एक ऐसा उपकरण विकसित करना चाहते हैं जो कृत्रिम लेंस के आकार को प्राकृतिक तरीके से बदले। इस दिशा में रिसर्च कर रही सुजाना मार्कोस का कहना है, "हमें लगता है कि एकोमोडेटिव लेंस ही लेंसों का भविष्य हैं क्योंकि ये इंसानी आंख के युवा क्रिस्टलाइन लेंस के फंक्शन दोहरा सकते हैं।" लेजर तकनीक की मदद से सर्जन आंख की भीतरी बनावट को समझते हैं और सबसे सही बैठने वाले लेंस का चुनाव करते हैं। फिलहाल पर्सनलाइज्ड इंट्राओकुलर लेंस बनाने पर भी विचार चल रहा है।
 
 
इसके जरिए डाटा लिया जाएगा और हर मरीज के मुताबिक लेंस डिजायन किया जा सकेगा। आंख के डिजिटल मॉडल से लचकदार इंप्लांट बनाए जा सकेंगे। इंप्लांट पुराने क्रिस्टलाइन लेंस को बदलेगा और उसी की तरह आंख की मांसपेशियों से जुड़ेगा। यह कनेक्शन मांसपेशियों की ताकत से लेंस में लचक पैदा करेगा। यह सतह को आकार देगा और फिर डॉक्टर आसानी से फोकल प्वाइंट बदल सकेंगे।
 
 
रिसर्चरों को उम्मीद है कि इस सिस्टम के जरिए मरीजों को पहले ही इस बात का पता चल सकेगा कि सर्जरी के बाद वे किस तरह देखेंगे। वे देख सकेंगे कि इंट्राओकुलर इंप्लांट कैसे उनकी देखने की क्षमता को बदलता है। और इस तरह इस तकनीक की मदद से लेंस को ऑप्टिमाइज किया जा सकेगा।

 
ओएसजो/आईबी

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