भारत में विदेशी फंडिंग की कमी से छोटे गैर-सरकारी संगठन प्रभावित हो रहे हैं। एनजीओ लोगों तक अपनी सेवा नहीं दे पा रहे हैं। वहां काम करने वाले लोग भी नौकरी से हाथ धो बैठ रहे हैं।
लक्ष्मण येमे इस तथ्य के चश्मदीद हैं कि क्या होता है जब उन कानूनों के तहत विदेशी धन पर रोक लगा दी जाती है जिनके बारे में भारत की सरकार कहती है कि उसका मकसद भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना है, लेकिन आलोचकों का कहना है कि इससे सबसे गरीब लोग प्रभावित होते हैं।
येमे महाराष्ट्र के तटीय क्षेत्र अंजानवेल में एक अस्पताल में डॉक्टर हैं। कई सालों से वह बेहद खराब और लगभग खाली इमारत में अकेले ही काम करते रहे हैं।
तीन साल पहले मुंबई के एक गैर-सरकारी संगठन बॉम्बे सर्वोदय फ्रेंडशिप सेंटर (बीएसएफसी) ने उनकी मदद की। संगठन ने अस्पताल में एक ऑपरेशन थिएटर बनवाया, अतिरिक्त कर्मचारियों के लिए भुगतान किया और सर्जरी के लिए सब्सिडी दी। लेकिन विदेशी दानदाताओं से पैसे लेने के लिए बीएसएफसी का लाइसेंस अक्टूबर 2021 में खत्म हो गया और तब से वह इसे रिन्यू नहीं कर पाया है।
देखते ही देखते संगठन का काम चौपट हो गया है और येमे फिर उसी स्थिति में पहुंच गए जहां पहले थे। येमे कहते हैं, "ऑपरेशन थिएटर पूरी तरह से ठप्प हो गया है और यहां तक कि मरीजों को देखने के लिए आने वाले डॉक्टरों ने भी आना बंद कर दिया है।"
आज अस्पताल की हालत जर्जर हो चुकी है। मरीजों के बेड खाली हैं, एक्स-रे रूम और ऑपरेशन थिएटर बंद हैं, कुर्सियां धूल से ढकी हुई हैं और बारिश से भीगी दीवारों से पेंट उखड़ रहा है।
आवाज दबाने के लिए कार्रवाई?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (FCRA) के तहत गैर-लाभकारी समूहों पर निगरानी कड़ी करने के बाद से भारत में हजारों गैर-लाभकारी संगठनों के विदेशी दान प्राप्त करने के लाइसेंस रद्द कर दिए गए हैं।
सरकार ने कहा है कि एनजीओ की ओर से कथित अनियमितताएं इसके लिए जिम्मेदार हैं, लेकिन सिविल सोसायटी के कार्यकर्ताओं ने कहा कि यह कार्रवाई सरकार की आलोचना को दबाने के लिए एक बड़े अभियान का हिस्सा है।
जिन एनजीओ को कार्रवाई का सामना करना पड़ा है, उनमें ऑक्सफैम, एमनेस्टी इंटरनेशनल और वर्ल्ड विजन के साथ-साथ सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) जैसे प्रतिष्ठित थिंक टैंक भी शामिल है। सीपीआर का फंडिंग लाइसेंस जनवरी में रद्द कर दिया गया था।
दूसरी ओर मोदी सरकार का कहना है कि विदेशी फंडिंग लेने और इस्तेमाल के लिए जवाबदेही बढ़ाने के लिए नियमों में बदलाव की जरूरत थी, क्योंकि 2,30,000 से अधिक रजिस्टर्ड गैर-लाभकारी संगठनों में से कुछ ही बुनियादी वैधानिक जरूरतों को पूरा करते थे या फंड का सही तरीके से इस्तेमाल करते थे।
विदेशी फंडिंग की कमी से छोटे एनजीओ पर असर
लेकिन बीएसएफसी के लिए नुकसान अंजानवेल से भी आगे तक चला गया। बीएसएफसी के ट्रस्टी अनिल हेब्बार ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से कहा, "हमें अपने कर्मचारियों की संख्या 30 से घटाकर लगभग सात करनी पड़ी, हमारे अपने प्रोग्राम बंद करने पड़े।"
भारत सरकार के एफसीआरए डैशबोर्ड के मुताबिक, एफसीआरए लाइसेंस वाले केवल 15,947 एनजीओ ही अभी भी सक्रिय हैं। 35,488 एनजीओ की अनुमति या तो रद्द कर दी गई है या समाप्त हो गई है और उसको रिन्यू नहीं किया गया है।
इन हालात में कई संगठनों को बचे रहने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है और 1।4 अरब की आबादी वाले इस देश में सबसे कमजोर संगठनों में से कुछ को महत्वपूर्ण सेवाओं का अभाव महसूस हो रहा है।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की फेलो मुक्ता नाइक कहती हैं, "एनजीओ क्षेत्र इस बात को लेकर अनिश्चितता से भरा हुआ है कि भविष्य में क्या "विध्वंसक" माना जा सकता है और वे सरकार समर्थित प्रोजेक्ट्स के साथ काम करने की ओर झुकाव रखते हैं।"
नाइक ने कहा कि सरकार को महत्वपूर्ण क्षेत्र पर कंट्रोल करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। भारत के गृह मंत्रालय ने टिप्पणी के लिए भेजे गए कई ईमेल का जवाब नहीं दिया।
भारत में एफसीआरए 1976 से लागू है, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा की थी। उनकी आलोचना नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाने के लिए इस कानून के इस्तेमाल के लिए की गई।
साल 2020 में नियमों को कड़ा कर दिया गया था, जिसमें गैर-सरकारी संगठनों द्वारा विदेशी योगदान से प्राप्त धन को समान लाइसेंस वाले अन्य गैर-सरकारी संगठनों को ट्रांसफर करने पर प्रतिबंध शामिल था और कर्मचारियों और कार्यालयों जैसे प्रशासनिक लागतों पर 20 फीसदी की खर्च सीमा लगाई गई थी।
एमनेस्टी इंडिया के पूर्व प्रमुख अविनाश कुमार ने कहा, "कई जमीनी स्तर के संगठन, जिनके पास एफसीआरए लाइसेंस था, लेकिन उनके पास धन जुटाने की क्षमता नहीं थी, वे अपनी फंडिंग के लिए बड़े संगठनों पर निर्भर थे।"
उन्होंने 2020 में संगठन को भारत में बंद करने के बाद संगठन छोड़ दिया था, एमनेस्टी पर सरकार ने आरोप लगाया था कि उसने एफसीआरए का उल्लंघन किया है।
कर्मचारियों पर असर
39 साल की सामाजिक कार्यकर्ता मीनाक्षी उन हजारों लोगों में से एक हैं जिनके पास अब काम नहीं है। मीनाक्षी 14 सालों तक दिल्ली के एनजीओ में अर्बन कोऑर्डिनेटर थीं। यह एनजीओ शहर की बस्तियों में काम करता था।
मीनाक्षी का काम बहुत महत्वपूर्ण था, उन लोगों के लिए जिनकी वह सेवा करती थी, लेकिन उनके अपने परिवार के लिए भी। उनके पति की कम उम्र में मौत हो गई थी और उन्हें अपने दो बच्चों को अकेले पालने के लिए संघर्ष करना पड़ा।
लेकिन मार्च 2024 में सरकार ने मीनाक्षी के नियोक्ता समेत पांच गैर-सरकारी संगठनों के विदेशी दान स्वीकार करने के लाइसेंस रद्द कर दिए। उनका संगठन ढह गया। इसी संगठन के एक और कर्मचारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि कुल 250 कर्मचारियों में से 220 लोगों को तत्काल नौकरी से निकाल दिया गया। इनमें मीनाक्षी भी शामिल थीं।
मीनाक्षी ने कहा, "मेरे दो छोटे बच्चे हैं, जिनकी पढ़ाई के लिए मुझे पैसे जुटाना है, और ऐसा करना हर महीने कठिन होता जा रहा है।" हालांकि उन्होंने एक नौकरी तो पकड़ ली, लेकिन उनकी सैलरी अब पांच हजार रुपये है, जोकि एनजीओ की 45 हजार रुपये की सैलरी से बहुत कम है।
एए/वीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)