दूसरे युद्ध में जापान की हार के बाद सुदूर पूर्व में उसकी सेनाएं बिखर चुकी थीं। उनका मनोबल बुरी तरह से गिरा हुआ था। सुभाषचंद्र बोस भी सिंगापुर से बैंकाक होते हुए सैगोन पहुंचे थे। वहाँ से आगे जाने के लिए एक भी जापानी विमान उपलब्ध नहीं था। बहुत कोशिशों के बाद उन्हें एक जापानी बमवर्षक विमान में जगह मिली।
हवाई अड्डे पर छोड़ने आए अपने साथियों से उन्होंने हाथ मिला कर जय हिंद कहा और तेज़ी से कुछ सीढ़ियाँ चढ़ कर विमान में अन्तर्धान हो गए। उनके एडीसी कर्नल हबीबुर रहमान ने भी सब को जयहिंद कहा और उनके पीछे पीछे विमान पर चढ़ गए।
सीट पर न बैठ कर विमान की ज़मीन पर बैठे थे बोस
नेताजी की मौत पर 'लेड टू रेस्ट' किताब लिखने वाले वरिष्ठ पत्रकार आशिस रे बताते हैं, "उस विमान में क्रू समेत 14 लोग सफ़र कर रहे थे। पायलट के ठीक पीछे नेताजी बैठे हुए थे। उनके सामने पैट्रोल के बड़े बड़े 'जेरी केन' रखे हुए थे। नेताजी के पीछे हबीब बैठे हुए थे।"
"विमान में घुसते ही जापानियों ने नेताजी को सह पायलट की सीट देने की पेशकश की थी, लेकिन उन्होंने उसे विनम्रतापूर्वक मनाकर दिया था। वजह ये थी कि नेताजी जैसे बड़े कदकाठी वाले शख़्स के लिए वो सीट काफ़ी छोटी थी।" "पायलट और लेफ़्टिनेंट जनरल शीदे के अलावा सभी लोग विमान की ज़मीन पर बैठे हुए थे। नेताजी को एक छोटा सा कुशन दिया गया था ताकि उनकी पीठ को अराम मिल सके। इन सभी लोगों के पास कोई सीट बेल्ट नहीं थी।
विमान का प्रोपेलर टूट कर नीचे गिरा
उस बमवर्षक विमान के भीतर बहुत ठंड थी। उस ज़माने में युद्धक विमानों में 'एयर कंडीशनिंग' नहीं होती थी और हर 1000 मीटर ऊपर जाने पर विमान का अंदर का तापमान छह डिग्री गिर जाता था। इसलिए 4000 फ़ीट की ऊंचाई पर तापमान धरती के तापमान से कम से कम 24 डिग्री कम हो गया था।
उड़ान के दौरान ही उन्होंने रहमान से अपनी ऊनी जैकेट मांग कर पहन ली। दोपहर 2 बजकर 35 मिनट पर बमवर्षक ने ताईपे से आगे के लिए उड़ान भरी। शाहनवाज़ कमीशन को दिए अपने वक्तव्य में कर्नल हबीबुर्रहमान ने बताया, "विमान बहुत ऊपर नहीं गया था और अभी एयरफ़ील्ड सीमा के अंदर ही था कि मुझे विमान के सामने के हिस्से से धमाके की आवाज़ सुनाई दी। बाद में मुझे पता चला कि विमान का एक प्रोपेलर टूट कर नीचे गिर गिया था। जैसे ही विमान नीचे गिरा उसके अगले और पिछले हिस्से में आग लग गई।"
पेट्रोल से सराबोर आग के बीच से निकले नेताजी
कर्नल हबीबुर रहमान ने आगे कहा, "विमान गिरते ही नेताजी ने मेरी तरफ़ देखा। मैंने उनसे कहा, 'नेताजी आगे से निकलिए, पीछे से रास्ता नहीं है।' आगे के रास्ते में भी आग लगी हुई थी। नेताजी आग से हो कर निकले। लेकिन उनका कोट सामने रखे जेरी कैन के पेट्रोल से सराबोर हो चुका था।"
"मैं जब बाहर आया तो मैंने देखा कि नेताजी मुझसे 10 मीटर की दूरी पर खड़े थे और उनकी निगाह पश्चिम की तरफ़ थी। उनके कपड़ों में आग लगी हुई थी। मैं उनकी तरफ़ दौड़ा और मैंने बहुत मुश्किल से उनकी 'बुशर्ट बेल्ट' निकाली। फिर मैंने उन्हें ज़मीन पर लिटा दिया। मैंने देखा कि उनके सिर के बाएं हिस्से पर 4 इंच लंबा गहरा घाव था।"
"मैंने रुमाल लगा कर उसमें से निकल रहे ख़ून को रोकने की कोशिश की। तभी नेताजी ने मुझसे पूछा, आपको ज़्यादा तो नहीं लगी? मैंने कहा 'मैं ठीक हूँ।'
"उन्होंने कहा, 'मैं शायद बच नहीं पाऊंगा।' मैंने कहा, 'अल्लाह आपको बचा लेगा।' बोस बोले, 'नहीं मैं ऐसा नहीं समझता। जब आप मुल्क वापस जाएं तो लोगों को बताना कि मैंने आख़िरी दम तक मुल्क की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी। वो जंगे-आज़ादी को जारी रखें। हिंदुस्तान ज़रूर आज़ाद होगा।"
नेताजी ने जापानी भाषा में पानी मांगा
10 मिनट के अंदर बचाव दल हवाई अड्डे पर पहुंच गया। उनके पास कोई एंबुलेंस नहीं थी। इसलिए बोस और बाक़ी घायल लोगों को एक सैनिक ट्रक में लिटा कर 'तायहोकू' सैनिक अस्पताल पहुंचाया गया। नेताजी के सबसे पहले देखने वालों में वहाँ तैनात डॉक्टर तानेयाशी योशिमी थे।
उन्होंने 1946 में हांगकांग की एक जेल में उनसे पूछताछ करने वाले ब्रिटिश अधिकारी कैप्टेन अल्फ़्रेड टर्नर को बताया था, "शुरू में सारे मरीज़ों को एक बड़े कमरे में रखा गया। लेकिन बाद में बोस और रहमान को दूसरे कमरे में ले जाया गया। क्योंकि दुर्घटना के शिकार जापानी सैनिक दर्द में चिल्ला रहे थे और शोर मचा रहे थे।"
"बोस को बहुत प्यास लग रही थी। वो बार बार जापानी में पानी मांग रहे थे, मिज़ू, मिज़ू...मैंने नर्स से उन्हें पानी देने के लिए कहा।"
दिल तक जल गया था नेताजी का
डॉक्टर याशिमी सुभाष बोस के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए आगे बताते हैं, "3 बजे एक भारी शख़्स को सैनिक ट्रक से उतार कर 'स्ट्रेचर' पर लिटाया गया। उसका माथा, सीना, पीठ, गुप्तांग, हाथ और पैर सब बुरी तरह से जले हुए थे। यहाँ तक कि उनका दिल तक जल गया था।"
"उनकी आँखें बुरी तरह से सूजी हुई थीं। वो देख तो सकते थे लेकिन उन्हें अपनी आँखे खोलने में बहुत दिक्कत हो रही थी। उन्हें तेज़ बुखार था- 102.2 डिग्री। उनकी नाड़ी की गति थी 120 प्रति मिनट।"
"उनके दिल को आराम पहुंचाने के लिए मैंने 'विटा- कैंफ़ोर' के चार और 'डिजिटामाइन' के दो इंजेक्शन लगाए। फिर मैंने उनको 'ड्रिप' से 1500 सीसी 'रिंजर सॉल्यूशन' भी चढ़ाया।"..."इसके अलावा संक्रमण को रोकने के लिए मैंने उन्हें 'सलफ़नामाइड' का इंजेक्शन भी लगाया। लेकिन मुझे पता था इसके बावजूद बोस बहुत अधिक समय तक जीवित रहने वाले नहीं हैं।"
गाढ़े रंग का ख़ून
वहाँ पर एक और डॉक्टर योशियो ईशी भी मौजूद थे। उन्होंने भी सुभाष बोस की हालत का विस्तृत विवरण खींचा है। "दो घायल लोग दो पलंगों पर लेटे हुए थे। वो इतने लंबे थे कि उनके पांव पलंग से बाहर लटक रहे थे। एक नर्स ने मुझे बुला कर कहा, डॉक्टर ये भारत के चंद्र बोस हैं। ख़ून चढ़ाने के लिए मुझे इनकी नस नहीं मिल रही है। उसे ढ़ूढ़ने में मेरी मदद करिए।"
"मैंने जब ख़ून चढ़ाने के लिए सुई उनकी नस में घुसाई तो उनका कुछ ख़ून वापस सुई में आ गया। वो गाढ़े रंग का था। जब मौत नज़दीक होती है तो ख़ून में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और ख़ून का रंग बदलने लगता है।"..."एक चीज़ ने मुझे बहुत प्रभावित किया। दूसरे कमरे में इस दुर्घटना में घायल जापानी ज़ोर ज़ोर से कराह रहे थे जबकि सुभाष बोस के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था। मुझे मालूम था कि उन्हें कितनी तकलीफ़ हो रही थी।"
फूला हुआ चेहरा
18 अगस्त, 1945 को रात के करीब 9 बजे सुभाष बोस ने दम तोड़ दिया। आशिस रे बताते हैं, "जापान में मृत लोगों की तस्वीर खींचने की परंपरा नहीं है। लेकिन कर्नल रहमान का कहना था कि उन्होंने जानबूझ कर बोस की तस्वीर नहीं लेने दी, क्योंकि उनका चेहरा बहुत फूल चुका था।"
नागोतोमो ने बताया कि नेताजी के पूरे शरीर पर पट्टियाँ बंधी थी और उनके पार्थिव शरीर को कमरे के एक कोने में रख दिया गया था और उसके चारों ओर एक स्क्रीन लगा दी गई थी। उसके सामने कुछ मोमबत्तियाँ जल रही थीं और कुछ फूल भी रखे हुए थे।..."कुछ जापानी सैनिक उसकी निगरानी कर रहे थे। शायद उसी दिन या अगले दिन यानि 19 अगस्त को उनके शव को ताबूत में रख दिया गया था। नागातोमो ने ताबूत का ढक्कन उठा कर नेताजी का चेहरा देखा था।"
ताइपे में ही अंतिम संस्कार
विमान उपलब्ध न होने के कारण उनके पार्थिव शरीर को न तो सिंगापुर ले जाया सका और न ही टोक्यो। चार दिन बाद 22 अगस्त को ताइपे में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया। उस समय वहाँ पर कर्नल हबीबुर्रहमान, मेजर नागातोमो और सुभाष बोस के दुभाषिए जुइची नाकामुरा मौजूद थे।
बाद में मेजर नागातोमो ने शाहनवाज़ आयोग को बताया, "मैंने कुंजी से भट्टी का ताला खोला और उसके अंदर की 'स्लाइडिंग प्लेट' को खींच लिया। मैं अपने साथ एक छोटा लकड़ी का डिब्बा ले गया था। मैंने देखा कि उसके अंदर नेताजी का कंकाल पड़ा हुआ था, लेकिन वो पूरी तरह से जल चुका था।"
"बौद्ध परंपरा का पालन करते हुए मैंने सबसे पहले दो 'चॉप स्टिक्स' की मदद से उनकी गर्दन की हड्डी उठाई। इसके बाद मैंने उनके शरीर के हर अंग से एक एक हड्डी उठा कर उस डिब्बे में रख ली।"
सोने के कैप वाला दांत
बाद में कर्नल हबीब ने ज़िक्र किया कि उन्हें 'क्रिमोटोरियम' के एक अधिकारी ने सुभाष बोस का सोने से जड़ा एक दांत दिया था जो उनके शव के साथ जल नहीं पाया था।
आशिस रे बताते हैं, "मैं जब 1990 में पाकिस्तान गया था तो हबीब के बेटे नईमुर रहमान ने मुझे बताया था कि उनके पिता ने कागज़ से लिपटा सुभाष बोस का दाँत उनकी अस्थियों के कलश में ही डाल दिया था।" वर्ष 2002 में भारतीय विदेश सेवा के दो अधिकारियों ने 'रेंकोजी' मंदिर में रखी नेताजी की अस्थियों की जांच की और पाया कि कागज़ में लिपटा हुआ सुभाष बोस का 'गोल्ड प्लेटेड' दाँत अब भी कलश में मौजूद है।
उस समय जापान में भारत के राजदूत रहे आफ़ताब सेठ बताते हैं, "ये दोनों अधिकारी सी राजशेखर और आर्मस्ट्रॉंग चैंगसन मेरे साथ टोक्यो के भारतीय दूतावास में काम करते थे। जब वाजपेई सरकार ने नेताजी की मौत की जाँच के लिए मुखर्जी आयोग बनाया तो जस्टिस मुखर्जी टोक्यो आए थे।"
आशिस रे बताते हैं, "लेकिन वो खुद 'रेंकोजी' मंदिर नहीं गए थे। उनके कहने पर मैंने ही इन दोनों अधिकारियों को वहाँ भेजा था। उन्होंने कागज़ मे लिपटे उस दाँत की तस्वीर भी ली थी। लेकिन मुखर्जी आयोग ने इसके बावजूद ये तय पाया था कि नेताजी की मौत न तो उस हवाई दुर्घटना में हुई थी और न ही 'रेंकोजी' मंदिर में जो अस्थियाँ रखी हुई है, वो नेताजी की थी।"
"ये अलग बात है कि मनमोहन सिंह सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर दिया था।''
बेटी अनीता की इच्छा कि अस्थियों को भारत लाया जाए
सुभाष बोस की एकमात्र बेटी अनीता फ़ाफ़ इस समय ऑस्ट्रिया में रहती है। उनकी दिली इच्छा है कि नेताजी की अस्थियों को वापस भारत लाया जाए। आशिस रे कहते हैं, "अनीता ने ही मेरी किताब का प्राक्कथन लिखा है। उनका कहना है कि नेताजी एक स्वाधीन भारत में वापस जा कर वहाँ काम करना चाहते थे। लेकिन वो संभव नहीं हो सका।"
"लेकिन अब कम से कम उनकी राख को भारत की मिट्टी से ज़रूर मिलाया जाना चाहिए। दूसरी बात ये है कि नेताजी पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष , लेकिन वो साथ ही साथ हिंदू भी थे।"..."उनकी मौत के 73 वर्ष बाद उनकी अस्थियों को भारत मंगवा कर गंगा में प्रवाहित करना उनके प्रति सही माने में राष्ट्र का सम्मान व्यक्त करना होगा।"