बढ़ती महंगाई से परेशान भारत के शहरी गरीबों के लिए बेंगलुरू में पश्चिमी देशों के सूप किचन जैसी कैंटीन की शुरूआत हुई है। हाल ही में वहां चम्मच गिलासों की चोरी की बातें सामने आई हैं।
पिछले साल अगस्त में शुरू होने के बाद से अब तक इस सरकारी योजना के तहत शहरवासियों को भोजन की करीब 3 करोड़ थालियां परोसी गई हैं। कैंटीन में भारी सब्सिडी पर भोजन मिलता है। नाश्ते के लिए महज 5 रुपये जबकि दोपहर और रात के भोजन के लिए 10 रुपये कीमत रखी गई है।
बहुत से लोगों के लिए तो इस कीमत पर भोजन एक तरह से मुफ्त ही है। कैंटीन में हर दिन सामान्य भोजन परोसा जाता है जो स्थानीय पोषण की जरूरतों के मुताबिक रहता है और हर रोज बदलता रहता है।
भारत के शहरी गरीब देश के सबसे उपेक्षित लोग हैं। एक अनुमान है कि भारत के शहरों की झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों की संख्या करीब 6।5 करोड़ है जो ब्रिटेन की समूची आबादी के बराबर है।
आमतौर पर शहरों के उच्च और मध्यमवर्गीय इलाकों के आस पास बसी इन बस्तियों में रहने वाले ज्यादातर लोग बेहतर जिंदगी के लिए गांव छोड़ कर आने वाले होते हैं। ऐसे में, कोई हैरानी की बात नहीं कि इंदिरा कैंटीन का लाभ उठाने वालों में ज्यादातर दिहाड़ी मजदूर, बेघर भिखारी और कम तनख्वाह वाले कामगारों के साथ ही बेंगलुरू के कॉलेज छात्र भी होते हैं।
ग्राहकों की संतुष्टि
बेंगलुरू की एक पॉश कॉलोनी के पास बने इंदिरा कैंटीन में खाना खा रहे रिक्शा चलाने वाले रवि कुमार ने बताया, "मैं पिछले कई महीनों से नियमित रूप से इंदिरा कैंटीन में खाना खा रहा हूं। इससे मेरा महीने का खर्च घट गया है। पहले मैं खाने पर जितना खर्च करता था उसके एक चौथाई में ही काम चल जा रहा है।"
कैंटीन की कतार में रवि से पीछे ही खड़े निखिल सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। निखिल ने बताया, "मैं एक छोटी सी सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करता हूं। मेरे लिए भी यह बात बिल्कुल सच है। मैं अपने दफ्तर के पास की इंदिरा कैंटीन में तभी से खाना खा रहा हूं जब से यह शुरू हुआ। पहले मुझे खाने पर 70 रुपये खर्च करने पड़ते थे अब 10 रुपये में काम चल जाता है।"
भारत की तकनीकी राजधानी कहे जाने वाले बेंगलुरू में इस समय 170 कैंटीन चल रही हैं। यहां की आबादी करीब 1।23 करोड़ है। कैंटीन में हर रोज ढाई लाख लोगों को खाना परोसा जा रहा है। इसके लिए हर इलाके में एक केंद्रीय रसोई खोली गई है जहां खाना बनता है और फिर उसके दायरे में आने वाले कैंटीन तक रसोई से खाना पहुंचाया जाता है।
ज्यादातर कैंटीनों में सप्ताह के कामकाजी दिनों में खूब भीड़ रहती है खासतौर से व्यस्त इलाकों की कैंटीन में जैसे कि कॉलेज या अस्पताल के आस पास। भारी सफलता देख कर सरकार इस योजना को कर्नाटक के दूसरे इलाकों में भी शुरू करने की योजना बना रही है। कैंटीन के लिए एक मोबाइल एप भी बनाया गया है जो बेंगलुरू के लोगों को आसपास के पांच कैंटीन का पता बताने के साथ ही हर रोज का मेन्यू भी बता देते हैं।
राजनीतिक फायदा
मोटे तौर पर माना जाता है कि कर्नाटक की सरकार ने इंदिरा कैंटीन का आइडिया पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में चलने वाले "अम्मा कैंटीन" से लिया है। भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम पर खुले इस कैंटीन को खोलने का एलान करते वक्त कर्नाटक की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के जेहन में भी अगले विधानसभा के चुनाव रहे होंगे।
इंदिरा कैंटीन के कारण सरकार के खजाने पर हर साल करीब 1200 करोड़ रुपये का बोझ पड़ा है। राज्य सरकार के सालाना बजट के हिसाब से देखें तो यह रकम बहुत मामूली है। सरकार को इस कल्याणाकारी कदम से सामाजिक और राजनीतिक फायदे की भी उम्मीद है। इन कैंटीनों को बृहत बेंगलुरू महानगर पालिका यानी बीबीएमपी चला रही है जो शहर की नागरिक और बुनियादी जरूरतों के लिए भी जिम्मेदार है।
बीबीएमपी के विशेष आयुक्त मनोज राजन इंदिरा कैंटीन स्पेशल टास्क फोर्स के प्रमुख भी हैं जो इन कैंटीनों की व्यवस्था देखते हैं। डीडब्ल्यू से बातचीत में मनोज राजन ने कहा, "यह कैंटीन बहुत से छात्रों के लिए वरदान जैसी है जो घर से दूर रहते हैं। इसके साथ ही प्रवासी, स्थानीय मजदूर, मरीज और बेरोजगारों के लिए भी, जो अच्छा भोजन नहीं जुटा सकते।"
बर्तनों की चोरी
हाल ही में कैंटीन में एक अलग तरह की समस्या पैदा हो गयी। कैंटीन के मैनेजरों ने बड़े पैमाने पर खाने के बर्तनों की चोरी की शिकायत की। उन्होंने देखा कि लोग खाना खाने के बाद चम्मच और कभी स्टील के गिलास अपने साथ लेकर चले जा रहे हैं। इस समस्या ने बहुतों को परेशान किया लेकिन बीबीएमपी कमिश्नर राजन ने भरोसा जताया कि इस बड़ी योजना के रास्ते में यह बाधा ज्यादा दिन नहीं टिकेगी। उन्होंने कहा, "हमने पहले ही सीसीटीवी कैमरे लगाए हैं और अब भूतपूर्व सैनिकों को सभी कैंटीनों में सुरक्षाकर्मी के तौर पर तैनात करने की योजना बन रही है।"
राजन ने कहा कि अधिकारी ज्यादा चम्मच और गिलास देने को तैयार हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि ज्यादा कैंटीनों ने अतिरिक्त चम्मच और गिलास की मांग नहीं की है। राजन के मुताबिक कई कैंटीनों ने तो केवल चुनिंदा भोजन के साथ ही चम्मच देने का तरीका भी अपना लिया है।