असम आंदोलन की यादें ताजा करता विरोध-प्रदर्शन

DW
शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019 (09:34 IST)
नागरिकता संशोधन बिल के पास होने को लेकर पूर्वोत्तर राज्य असम में एक बार फिर छात्रों ने आंदोलन की कमान अपने हाथों में ले ली है। पूर्वोत्तर में लगी आग के शीघ्र बुझने के आसार नजर नहीं आ रहे।
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सर्द रात में सन्नाटे को चीरते पुलिस के वाहन और अंधेरी सड़कों पर रोशनी फैलाते जलते हुए टायर। सड़क पर न निजी वाहन हैं और न ही आम लोग। जहां तक नजर जाती है, पुलिस और केंद्रीय बलों के जवान ही नजर आते हैं। इंटरनेट और मोबाइल सेवाएं बंद। बेमियादी कर्फ्यू।
 
राज्यसभा में नागरिकता (संशोधन) विधेयक के पारित होने के बाद असम समेत पूरे पूर्वोत्तर में विरोध की यह आग जिस तेजी से फैली है, उसने कोई 4 दशक पहले हुए असम आंदोलन की यादें ताजा कर दी हैं। यह संयोग नहीं है कि 6 साल लंबे चले असम आंदोलन की कमान भी छात्रों के हाथों में थी और अबकी इस विधेयक के खिलाफ विरोध-प्रदर्शनों की कमान भी छात्रों ने ही संभाल रखी है। इस बार खासकर त्रिपुरा जैसे राज्यों में महिलाएं भी खुलकर विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा ले रही हैं।
 
बेहद तनावपूर्ण माहौल के बीच ही गुवाहाटी में 15 से 17 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के बीच होने वाली बैठक भी खटाई में पड़ती नजर आ रही है। असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल और दूसरे मंत्रियों व बीजेपी के नेताओं के घरों पर होने वाले हमलों से छात्रों की नाराजगी समझी जा सकती है।
 
यूं तो उक्त विधेयक का विरोध पूरे देश में हो रहा है। लेकिन पूर्वोत्तर के खासकर असम और त्रिपुरा में इसके खिलाफ जितनी नाराजगी दिख रही है, वैसी कहीं और नजर नहीं आती। इन राज्यों में तमाम राजनीतिक रुझान वाले छात्र और सामान्य लोग विधेयक के खिलाफ सड़कों पर हैं।
छात्रों का आंदोलन
 
80 के दशक में पड़ोसी बांग्लादेश से बड़े पैमाने पर होने वाली घुसपैठ के खिलाफ अखिल असम छात्रसंघ (आसू) ने बड़े पैमाने पर आंदोलन छेड़ा था। 6 साल तक चला यह आंदोलन बाद में बंगालियों और असमिया लोगों के बीच सांप्रदायिक हिंसा में बदल गया था। आखिर में केंद्र, राज्य और आसू के बीच हुए तीन-तरफा असम समझौते के बाद यह आंदोलन ठंडा पड़ा।
 
उसके बाद आसू ने असम गण परिषद (अगप) नामक नई पार्टी बनाई थी और वर्ष 1985 में हुए विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत से जीतकर सरकार बनाई थी, तब प्रफुल्ल कुमार महंत देश में सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने थे।
 
1985 के असम समझौते में असमिया अस्मिता और संस्कृति की रक्षा के प्रावधान थे। लेकिन समझौते के तमाम प्रावधानों को अब तक लागू नहीं किया जा सका है। राज्य में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) को अपडेट करने की कवायद भी असम समझौते का ही हिस्सा थी।
 
अब 4 दशक बाद असम में एक बार फिर नागरिकता विधेयक के खिलाफ उबाल है। वैसे तो बीते सप्ताह से ही इस मुद्दे पर आंदोलन की सुगबुगाहट होने लगी थी। लेकिन पहले लोकसभा और उसके बाद बुधवार को इसके राज्यसभा में पारित होने के बाद हालात विस्फोटक हो चुके हैं।
 
हालात पर काबू पाने के लिए सरकार को असम में बेमियादी कर्फ्यू लगाना पड़ाना है। राज्य के 10 संवेदनशील जिलों में मोबाइल व इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई हैं। बुधवार को नाराज छात्रों ने मुख्यमंत्री सोनोवाल और केंद्रीय मंत्री रामेश्वर तेली को भी नहीं बख्शा। सोनोवाल छात्रों के विरोध प्रदर्शन की वजह से घंटों एयरपोर्ट पर फंसे रहे। उनके घर पर पथराव तक हुआ।
 
पहले छात्र संगठन आसू ही इस आंदोलन से जुड़ा था। लेकिन धीरे-धीरे राज्य के तमाम विश्वविद्यालयों के छात्र संघ इसमें शामिल हो गए हैं। इन छात्रों की दलील है कि नागरिकता विधेयक से उनका भविष्य और उनकी पहचान जुड़ी है। 
 
राजधानी गुवाहाटी के कॉटन विश्वविद्यालय छात्रसंघ और डिब्रूगढ़ विवि छात्रसंघ ने मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल समेत बीजेपी के तमाम नेताओं के परिसर में घुसने पर पाबंदी लगा दी है। जगह-जगह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से लेकर गृहमंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री सोनोवाल के पुतले जलाए जा रहे हैं।
 
आंदोलन को ध्यान में रखते हुए गौहाटी और डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालयों ने अपनी परीक्षाएं अनिश्चितकाल तक स्थगित कर दी हैं। कॉटन विश्वविद्यालय छात्रसंघ के महासचिव राहुल बोरदोलोई कहते हैं कि यह हमारे भविष्य और अस्मिता का सवाल है। इसी वजह से हमने परिसर में बीजेपी और संघ के सदस्यों के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है।
 
डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के महासचिव राहुल छेत्री बताते हैं कि इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री सोनोवाल की खामोशी की वजह से विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं करने देने का फैसला किया है। उक्त विधेयक को रद्द नहीं करने तक यह पाबंदी जारी रहेगा। हम मुख्यमंत्री के अलावा तमाम मंत्रियों, बीजेपी सांसदों व विधायकों को भी परिसर में नहीं घुसने देंगे। आसू ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की बात कही है।
 
आसू के मुख्य सलाहकार समुज्जल भट्टाचार्य केंद्र सरकार की आलोचना करते हुए कहते हैं कि पूर्वोत्तर के लोग इस विधेयक को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे। हम नागरिकता (संशोधन) विधेयक से लड़ने के लिए कानूनी रास्ता अपनाएंगे। भट्टाचार्य कहते हैं कि विधेयक के खिलाफ छात्रों का आंदोलन शांतिपूर्ण होगा। उन्होंने महात्मा गांधी का हवाला देते हुए कहा है कि आंदोलन हिंसक होने की स्थिति में सरकार को मौका मिल जाएगा।
 
विधेयक का विरोध करने वाले संगठनों की दलील है कि प्रस्तावित विधेयक से असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) की पूरी कवायद ही बेमतलब हो जाएगी। इससे बांग्लादेश से 1.70 करोड़ हिन्दुओं के असम आने का रास्ता साफ हो जाएगा।
 
आसू के अध्यक्ष दीपंकर कुमार नाथ आरोप लगाते हैं कि बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने 31 दिसंबर, 2014 तक भारत आने वाले तमाम हिन्दू बांग्लादेशियों को नागरिकता देने का फैसला कर असम की भाषा, संस्कृति और मूल निवासियों की पहचान को खत्म करने की साजिश रची है।
 
8 राजनीतिक दलों को लेकर बने लेफ्ट डेमोक्रेटिक फोरम के एक प्रवक्ता कहते हैं कि यह विधेयक सांप्रदायिक व असम विरोधी है। इससे एनआरसी की पूरी कवायद ही बेमतलब हो जाएगी। राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि केंद्र सरकार और बीजेपी नेता इस मुद्दे पर स्थानीय लोगों का मूड भांपने में नाकाम रहे हैं। ऐसे में पूर्वोत्तर भारत के कश्मीर घाटी में बदलने का अंदेशा है।
 
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने भी कहा है कि नागरिकता विधेयक के बारे में इलाके के लोगों को सही तरीके से नहीं समझा पाना ही पूर्वोत्तर में इसके विरोध की प्रमुख वजह है। उन्होंने कहा है कि कुछ लोग इस मुद्दे को समझना ही नहीं चाहते।
 
असम आंदोलन कवर कर चुके वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी कहते हैं कि असम आंदोलन और मौजूदा विरोध-प्रदर्शनों में काफी हद तक समानताएं हैं। ऐसे में खासकर असम व त्रिपुरा में इस आग के जल्दी बुझने के आसार नहीं हैं। बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ से यही दोनों राज्य सबसे ज्यादा प्रभावित हैं इसलिए विधेयक का विरोध भी सबसे उग्र यहीं है।
 
राजनीतिक विश्लेषक जितेन गोहांई अंदेशा जताते हैं कि आगे चलकर कहीं यह मुद्दा बंगाली बनाम असमिया में न बदल जाए। ऐसा हुआ तो यह पूर्वोत्तर के लिए बेहद गंभीर स्थिति होगी। वे कहते हैं कि बांग्लादेश से आने वाले हिन्दुओं और मुसलमानों के खिलाफ लोगों में समान नाराजगी है। असम आंदोलन के दौरान भी कई बार सांप्रदायिक हिंसा हो चुकी थी। महज ताकत से आंदोलन को दबाने का नतीजा और घातक हो सकता है।
 
-रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता

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