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काम के बढ़ते घंटे: विकास की सीढ़ी या मानसिक बोझ?

भारत और दुनिया में काम के घंटों को लेकर बहस तेज। क्या ज्यादा काम करने से देश की अर्थव्यवस्था आगे बढ़ेगी, या फिर इससे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान होगा?

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DW

, रविवार, 9 फ़रवरी 2025 (08:00 IST)
सोनम मिश्रा
कुछ दिनों पहले इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायणमूर्ति ने सप्ताह में 70 घंटे काम करने का सुझाव दिया था, जबकि एल एंड टी के सीईओ एस एन  सुब्रह्मण्यम ने इसे 90 घंटे तक बढ़ाने और रविवार को भी काम करने की बात कही थी। भारत के युवाओं ने इस पर खूब प्रतिक्रियाएं दी थीं।  
 
दुनिया जब 40 या 70 घंटे के कामकाजी सप्ताह पर बहस कर रही थी, तभी एलन मस्क ने इससे भी आगे बढ़ कर दावा किया कि अमेरिकी सरकारी विभाग डीओजीई  के कर्मचारी हर सप्ताह 120 घंटे तक काम करते है।  इंसान के लिए इतने घंटे काम करना कितना सही है?
 
भारत में कितने घंटे काम करते हैं लोग
इस बहस के बीच प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की एक ताजा रिसर्च रिपोर्ट से पता चला है कि केरल में सरकारी कर्मचारी रोजाना औसतन छह घंटे यानी सप्ताह में 36 घंटे ही काम करते है।  वहीं केंद्र शासित प्रदेश दमन और दीव में शहरी वर्ग के कर्मचारी सबसे ज्यादा 8.48 घंटे काम करते हैं, जबकि ग्रामीण वर्ग में दादरा और नगर हवेली के कर्मचारी 9.49 घंटे तक काम करते है। 
 
भविष्य का काम कितना तनावरहित हो सकेगा
इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में काम करने के घंटे दूसरी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समान ही हैं लेकिन अगर लोग नौकरी में और ज्यादा समय देंगे, तो देश की अर्थव्यवस्था को बड़ा फायदा हो सकता है।  यह बात खासतौर पर राज्यों (जैसे पूर्वोत्तर राज्य) और क्षेत्रों (जैसे सरकारी क्षेत्र) पर लागू होती है, जहां लोग बाकी देश की तुलना में कम घंटे काम करते है। 
 
कितने घंटे काम विकास के लिए जरूरी
ज्यादा काम से जुड़े बयानों को सुनकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं कि क्या सच में ज्यादा काम करने से ही देश का विकास हो सकता है।  क्या केवल ज्यादा काम करने वाली अर्थव्यवस्थाएं ही सफल है।  आवर वर्ल्ड इन डाटा ने 1850 से लेकर 2017 तक का विवरण दिया कि दुनिया में किस देश में औसतन कितने घंटे काम किया जाता है।  भारतीय कर्मचारी औसतन प्रति सप्ताह 42 घंटे (यदि सप्ताह में 6 दिन कार्य करें) आर्थिक गतिविधियों में बिताते है। 
 
नई पीढ़ी से खुश नहीं हैं कंपनियां
अगर विभिन्न देशो से तुलना करे तो भारतीय लोगों के काम के घंटे वियतनाम, चीन, मलेशिया और फिलीपींस जैसे तेजी से विकसित हो रहे दूसरे देशों के समान है। वहीं, अधिकांश विकसित ओईसीडी (आर्थिक सहयोग और विकास संगठन) देशों में कार्य घंटे काफी कम हैं।  इन देशों में औसतन प्रति सप्ताह केवल 33 घंटे काम किया जाता है। 
 
इतिहास से सबकः करोशी और ग्वारोसा से बचना
हालांकि यह हमेशा से ऐसा नहीं था। 1850 में काम करने के घंटे औसत 60 से 70 घंटे प्रति हफ्ता हुआ करते थे।  हालांकि काम को लेकर लगातार दबाव से बचने के लिए और वर्क लाइफ बैलेंस बनाये रखने के लिए कई तरह के कदम उठाये गए थे।  इनमें काम करने के घंटे और दिन कम करना भी शामिल था। 
 
दक्षिण कोरिया और जापान अपने कड़े और लंबे काम करने के घंटों के लिए जाने जाते है।  इन समाजों में अत्यधिक काम करने से मृत्यु तक हो जाना कभी आम बात हुआ करती थी। जापान में  ज्यादा काम से मरने वालो के लिए एक खास शब्द है – "करोशी", जिसका मतलब है अत्यधिक काम के कारण मौत। कोरिया भी इससे अलग नहीं है, वहां  इसके लिए "ग्वारोसा" शब्द का प्रयोग किया जाता है। 
 
19वीं शताब्दी में कोरिया उन देशों में शामिल था, जहां सबसे अधिक काम के घंटे हुआ करते थे।  हालांकि हिंदी भाषा में इसके लिए कोई शब्द नहीं है लेकिन काम के दबाव के कारण मौत की खबरें भारत में भी सामने आई है।  
 
काम या मानसिक स्वास्थ्य: क्या है समाधान
ऊपर से यह काफी आसान नजर आ सकता है कि सिर्फ कुछ घंटे ज्यादा काम किया जाए।  इसकी मदद से देश के आर्थिक विकास में सहयोग किया जाए और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में आगे निकला जा सके।  हालांकि यह इतना भी आसान नहीं है।  भारत के आर्थिक सर्वेक्षण 2024-2025 में यह उजागर किया गया कि लंबे समय तक डेस्क पर बैठकर काम करना मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।  जो लोग रोजाना 12 या उससे अधिक घंटे डेस्क पर बिताते है, वे मानसिक तनाव या परेशानियों का सामना करते है। 
 
डब्ल्यूएचओ (विश्व स्वास्थ्य संगठन) के किए एक अध्ययन का हवाला देते हुए सर्वेक्षण में कहा गया कि दुनियाभर में हर साल लगभग 12 अरब कार्य दिवस डिप्रेशन और चिंता के कारण नष्ट हो जाते हैं, जिससे लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का आर्थिक नुकसान होता है।  इस सर्वेक्षण में बताया गया है कि अगर भारत की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना है, तो जीवनशैली से जुड़े फैसलों पर ध्यान देना जरूरी है क्योंकि खराब वर्क कल्चर और लंबे समय तक डेस्क पर काम करना कामकाजी लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल सकता है, जिससे आर्थिक विकास की रफ्तार धीमी हो सकती है। 

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