दक्षिणी भारतीय राज्य केरल में भयावह बाढ़ के कहर के बाद अब बांधों के औचित्य पर सवाल उठने लगे हैं। यह बहस तेज हो गई है कि देश के विभिन्न हिस्सों में तेजी से बढ़ती बांधों की तादाद विकास के लिए जिम्मेदार है या विनाश के लिए।
बाढ़ पर अंकुश लगाने की दलील देकर बनने वाले बांध ही अब देश में बाढ़ की भयावहता बढ़ाने में मददगार बन रहे हैं। बीते 68 सालों में देश में लगभग पांच हजार नए बांध बनाए जा चुके हैं जबकि कई अन्य ऐसी परियोजनाओं पर काम चल रहा है। बांधों की वजह से होने वाली विनाशलीला को ध्यान में रखते हुए पूर्वी भारत में सिक्किम से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों तक नए बांधों के खिलाफ उठने वाली आवाजें लगातार तेज हो रही हैं।
केरल में बाढ़ की चपेट में साढ़े तीन सौ से ज्यादा लोगों की मौत और हजारों करोड़ की संपत्ति नष्ट होने के बाद अब धीरे-धीरे यह बात साफ हो रही है कि राज्य के बांधों ने इस प्राकृतिक आपदा की गंभीरता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई थी। हालांकि इसमें बांधों का प्रबंधन करने वाली एजेंसियां भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। लेकिन राज्य के 30 से ज्यादा बांधों से एक साथ भारी मात्रा में पानी छोड़ने से बाढ़ की भयावहता को बढ़ा दिया।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी हर साल केंद्र सरकार के उपक्रम दामोदर घाटी निगम (डीवीसी) की ओर से पानी छोड़े जाने को ही राज्य के खासकर दक्षिणी जिलों में बाढ़ की प्रमुख वजह बताती रही हैं। बंगाल से सटे पर्वतीय राज्य सिक्किम में तीस्ता नदी पर बनने वाली पनबिजली परियोजनाओं के लिए बनने वाले बांधों के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन चलता रहा है।
यही हालत पूर्वोत्तर के खासकर चीन सीमा से सटे अरुणाचल प्रदेश में हैं। इलाके में भारत व चीन के बीच ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाने की होड़ सी मची है। चीन अपनी सीमा में कई बांध बना रहा है, तो अरुणाचल में भी हजारों मेगावाट की पनबिजली परियोजनाओं के लिए राज्य के लोअर सुबनसिरी जिले में छोटे-बड़े कई बांधों का निर्माण कार्य चल रहा है। वहां भी पर्यावरणविद्, गैर-सरकारी संगठन और स्थानीय लोग इनके खिलाफ लामबंद होकर आंदोलन कर रहे हैं।
एशिया की सबसे बड़ी नदी ब्रह्मपुत्र 2,906 किलोमीटर लंबी है। इसे तिब्बत में सांग्पो, अरुणाचल में सियांग और असम में ब्रह्मपुत्र के नाम से जाना जाता है। असम से यह बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश करती है। तिब्बत में इस नदी की लंबाई 1,625 किलोमीटर है और भारत में 918 किलोमीटर। बाकी 363 किलोमीटर हिस्सा बांग्लादेश में है। अरुणाचल और असम की आबादी में से लगभग अस्सी फीसदी लोग अपनी आजीविका के लिए इसी नदी पर निर्भर हैं।
केंद्र सरकार देश की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हिमालय के इलाकों में बड़े पैमाने पर बांध बना रही है। मोटे अनुमान के मुताबिक फिलहाल तीन सौ बांधों का निर्माण कार्य या तो चल रहा है या फिर जल्द ही शुरू होने वाला है। एक पर्यावरणविद दीपक बाजवा कहते हैं, "इतने बड़े पैमाने पर बांधों का निर्माण करना विनाश को न्योता देना है। सरकार इससे जुड़े खतरों और दूसरे विकल्पों पर विचार किए बिना तेजी से आगे बढ़ रही है।" इन बांधों की हिमायत करने वालों की दलील है कि साल 2022 तक भारत की बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ा कर तीन लाख मेगावाट करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए इन बांधों का निर्माण जरूरी है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में पर्यावरणविद महाराज पंडित कहते हैं, "हिमालयी इलाकों में बनने वाले बांधों को पर्यावरण संतुलन के साथ ही इलाके की जैविक और वानस्पतिक विविधता पर भी बेहद प्रतिकूल असर पड़ेगा। बांध और इससे जुड़ी परियोजनाओं के कामकाज की वजह से हजारों वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र या तो डूब जाएगा या फिर नष्ट हो जाएगा।"
गौहाटी विश्वविद्यालय के पर्यावरण वैज्ञानिक दुलाल गोस्वामी कहते हैं, "बांध परियोजनाओं की रूप-रेखा तय करते समय इससे जुड़े खतरों का ध्यान नहीं रखा गया है। इस क्षेत्र में हिमालय की उम्र कम है और यह बेहद संवेदनशील है। इलाके में रिक्टर स्केल पर सात से आठ की तीव्रता वाले भूकंप आते रहते हैं। ऐसे में प्रस्तावित बांध भारी विनाश की वजह बन सकते हैं।"
विशेषज्ञों का कहना है कि जमीनी हकीकत और पर्यावरण के खतरों और भौगोलिक स्थिति के विस्तृत अध्ययन के बिना जिस तरह धड़ाधड़ नई पनबिजली व बांध परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई जा रही है, उससे खतरा लगातार बढ़ रहा है। गोस्वामी कहते हैं, "पूर्वोत्तर में बनने वाले बड़े बांधों से इलाके की आबादी का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है।"
विशेषज्ञों का कहना है कि केंद्र व राज्य सरकारों को केरल के हादसे से सबक लेकर इन गतिविधियों पर अंकुश लगाना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो हर राज्य में हर साल केरल दोहराया जाता रहेगा।