कुछ जीव करोड़ों सालों से धरती पर हैं। इंसानों की शुरुआत से भी पहले बल्कि डायनासोर के भी पहले से। जेलीफिश ऐसा ही एक जीव है। लेकिन आज भी हम जेलीफिश के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते हैं।
यूरोप में मीठे पानी की जेलीफिश पहली बार 1880 में लंदन के एक तालाब में देखी गई थी। जर्मनी की कुछ मीठे पानी की झीलों में जेलीफिश के झुंड मिलते हैं। जीवविज्ञानी इनके बारे में जानकारी जुटाने की कोशिश में हैं। माना जाता है कि जेलीफिश चीन से लंदन तक आई थीं और उसके बाद वहां से जर्मनी भी पहुंची। जीव विज्ञानी कातरीन शाखटल और बोटोंड पोलगारी मीठे पानी में मिलने वाली जेलीफिश खोजने दक्षिण जर्मनी की एक छोटी सी झील के पास पहुंचे।
म्यूनिख यूनिवर्सिटी के इन दोनों रिसर्चरों ने जेलीफिश की तलाश में कई झीलों को छान मारा है। कातरीन शाखटल ने बताया कि यूविवर्सिटी में ये लोग जेलीफिश की पारिस्थितिकी को बारीकी से जांचना चाहते हैं और उन पर कई परीक्षण करना चाहते हैं। इसके लिए इन्हें जेलीफिश को जमा करना होगा। जर्मन राज्य बवेरिया की कई झीलों में गोता लगाने के बाद आखिरकार उन्हें एक झील में जेलीफिश का बड़ा झुंड मिल गया।
जेलीफिश अपनी सुरक्षा और शिकार के लिए जिस जहर का इस्तेमाल करती है वह इंसान के लिए हानिकारक नहीं होता। इनका डंक भी इंसानी त्वचा के अंदर नहीं जा सकता इसलिए इन्हें आसानी से पकड़ा जा सकता है। शाखटल ने करीब 10 जेलीफिशों को एक प्लास्टिक के थैले में कैद कर लिया। बहुत से लोगों को जेलीफिश घिनौनी लगती हैं। हालांकि अगर करीब से देखेंगे तो लगेगा कि ये काफी आकर्षक हैं।
म्यूनिख यूनिवर्सिटी के एक्वा रिसर्च विभाग में इनकी जांच की जाएगी। यहां इनकी जेनेटिक संरचना को देखा जा रहा है और पता लगाया जा रहा है कि इनके कारण झील की खाद्य श्रृंखला पर क्या असर पड़ता है। म्यूनिख यूनिवर्सिटी में जीव विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर हेरविग श्टीबोर ऐसे सवालों के जवाब ढूंढने में जुटे हैं। प्रोफेसर श्टीबोर ने बताया, "जेलीफिश कमाल के जीव होते हैं क्योंकि वे वाले दुनिया के सबसे पुराने बहुकोशिकीय जीवों में से एक हैं। इसका मतलब ये हुआ कि इनके पास खुद को बचा कर रखने की बहुत अच्छी रणनीति मौजूद है। इन पर शोध करके हम समझ पाएंगे कि क्रमिक विकास के लिहाज से जीव कैसे सफल और स्थाई बन पाते हैं।"
रिसर्चर जेलीफिश के जीने के तरीके को समझने की कोशिश कर रहे हैं। जेलीफिश 99.99 फीसदी पानी से बनी होती हैं। जीवविज्ञानियों के लिए आज भी ये पहेली हैं। इस पहेली का राज जेलीफिश के इर्दगिर्द ही छिपा हुआ है। इनके जेनेटिक ढांचे को बेहतर रूप से समझने के लिए रिसर्चरों ने झील से पत्थर भी जमा किए हैं। इन पत्थरों पर छोटे छोटे पोलिप बैठे हैं, जिन्हें जेलीफिश के जीवन की शुरुआत के तौर पर समझा जा सकता है। एक मिलीमीटर से भी छोटे आकार वाले पोलिप को केवल माइक्रोस्कोप के सहारे ही देखा जा सकता है।
कोई नहीं जानता कि ये जेलिफिश पानी के एक स्रोत से दूसरे तक कैसे पहुंचती हैं। शायद पक्षी इन्हें अपने साथ ले आते हैं। इनकी पोलिप अवस्था के बारे में बहुत ही कम जानकारी मौजूद है। म्यूनिख यूनिवर्सिटी की जीवविज्ञानी सबीने गीसलर बताती हैं, "जेलीफिश के जीवन चक्र में कई अवस्थाएं होती हैं। पोलिप वह अवस्था है जिससे इनकी रचना शुरू होती है। और ये तब बनते हैं, जब तापमान ज्यादा होता है। हमारे यहां गर्मियां जितनी गर्म होती जाएंगी, जेलीफिश की संख्या भी उतनी ही बढ़ती रहेगी।"
अगर जलवायु परिवर्तन के चलते ऐसा होता है, तो जेलीफिश की संख्या बढ़ जाएगी और ये पानी में मौजूद प्लवक को खा जाएंगी। ऐसे में एक नई समस्या पैदा हो जाएगी। पानी में शैवाल की मात्रा बढ़ जाएगी क्योंकि प्लवक शैवाल को खाते हैं। कातरिन शाखटल का कहना है कि यह जेलीफिश के कई प्रभावों में से महज एक होगा। जेलीफिश के और असर क्या होंगे इसके लिए पहले इन रहस्यमयी जीवों को बेहतर समझना होगा।