Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
webdunia
Advertiesment

अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है यहूदी प्रतीकों को जलाना

हमें फॉलो करें अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है यहूदी प्रतीकों को जलाना
, बुधवार, 13 दिसंबर 2017 (11:54 IST)
जर्मनी एक खुला और सहिष्णु देश है। जो जर्मनी में रहना चाहता है उसे यहां के साझा मूल्यों को स्वीकार करना होगा। डॉयचे वेले की मुख्य संपादक इनेस पोल का कहना है कि इसमें यहूदी विरोध के खिलाफ संघर्ष भी शामिल है।
 
जर्मनी में प्रदर्शन करने का अधिकार अत्यंत महत्वपूर्ण है। सिर्फ गंभीर शर्तों पर ही इस अधिकार को कम किया जा सकता है। इसकी वजह से हमारे लोकतंत्र को अक्सर इस बात का गवाह बनना पड़ता है कि जर्मनी की सड़कों पर ऐसे नारे सुनाई देते हैं जो दरअसल अलोकतांत्रिक है। जैसे कि विदेशी बाहर जाओ के नारे।
 
नाजी तानाशाही के कारण हमारे देश ने अत्यंत दर्दनाक तरीके से सीखा है कि सरकार द्वारा आलोचकों का मुंह बंद करने और प्रदर्शनों पर रोक लगाने का क्या नतीजा हो सकता है। इसलिए बहुत ही स्वाभाविक है कि यहां मैर्केल सरकार के विरोधी सड़कों पर प्रदर्शन करते हैं या जर्मनी में रहने वाले फलीस्तीनी अमेरिकी दूतावास के सामने येरुशलम फैसले पर आक्रोश व्यक्त कर सकते हैं।
 
अतीत का बोझ
लेकिन हमारा इतिहास हमें बिना रोकटोक हर चीज करने की अनुमति नहीं देता। जर्मनी नाजीकाल में कम से कम 60 लाख यहूदियों की मौत के लिए जिम्मेदार है। यहूदी जनसंहार को कितने भी साल क्यों न हो गए हों, जर्मनी को यहूदी विरोध के खिलाफ संघर्ष में हमेशा खास भूमिका निभानी होगी। मुजरिमों का देश बगलें नहीं झांक सकता। कहीं भी नहीं और अपने देश में तो कतई नहीं।
 
इसीलिए किसी भी हालत में स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जर्मनी में डेविड स्टार वाले झंडों को जलाया जाए। उन लोगों को भी इसे मानना होगा जो जर्मनी में शरण लेना चाहते हैं, सुरक्षा पाना चाहते हैं, इसे अपना वतन बनाना चाहते हैं, हमारे मूल्य आधारित समाज के कुछ पाए हैं जिन पर समझौता नहीं हो सकता।
 
आप्रवासियों का देश
दूसरे समाजों में विरोधियों को अपमानित करने के लिए झंडों को जलाना सामान्य हो सकता है। दूसरों का सम्मान और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा जर्मन संविधान का आधार है। भले ही यह कानूनन अपराध न हो, लेकिन इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता कि तुर्क, रूसी, अमेरिकी या सऊदी झंडों को जलाया जाए। चाहे इन देशों की सरकारों की कितनी भी आलोचना क्यों न हो।
 
जर्मनी में आप्रवासियों के साथ सहजीवन का तभी कोई भविष्य होगा जब हम अपने अतीत के सबकों को न भूलें। और जो इस विरासत को स्वीकार नहीं करता, उसका यहां कोई भविष्य नहीं होगा। इस पर समझौता नहीं हो सकता।
 
- इनेस पोल

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बने