भारत में बीते पांच साल के दौरान जहां उच्च शिक्षा हासिल करने वाले लड़कों की तादाद कमोबेश समान है वहीं लड़कियों की तादाद लगातार बढ़ रही है। एक ताजा सर्वेक्षण में इसका पता चला है। विशेषज्ञों का कहना है कि उच्च शिक्षा में लड़कियों की बढ़ती तादाद का भारत के समाज पर दूरगामी असर होगा।
सर्वेक्षण
केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की पहल पर उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि भारत ने वर्ष 2016-17 के दौरान लैंगिक समानता सूचकांक (जीपीआई) पर बीते सात वर्षों का सबसे बेहतर प्रदर्शन किया है। वर्ष 2010-11 में जहां यह सूचकांक 0.86 था वहीं अब 0.94 तक पहुंच गया है। गोवा, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, जम्मू-कश्मीर, सिक्किम व केरल जैसे राज्यों में पढ़ी-लिखी महिलाओं की तादाद पुरुषों, के मुकाबले ज्यादा है।
इस सर्वेक्षण में कहा गया है कि उक्त अवधि के दौरान देश में विश्वविद्यालयों की तादाद भी 799 से बढ़ कर 864 तक पहुंच गई है। उच्च-शिक्षा हासिल करने वाले 3.57 करोड़ छात्रों में 1.9 करोड़ लड़के हैं और 1.67 करोड़ लड़कियां। बीते पांच वर्षों के दौरान दोनों के बीच का यह अंतर नौ लाख से ज्यादा घटा है। यानी इस दौरान लड़कों की तादाद तो कमबेश समान रही है लेकिन उच्च-शिक्षा के लिए विभिन्न संस्थानों में दाखिला लेने वाली लड़कियों की तादाद नौ लाख से ज्यादा बढ़ी है।
सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के उच्चशिक्षण संस्थानों में वर्ष 2011-12 के दौरान छात्रों व छात्राओं की तादाद में 31.5 लाख का अंतर था जो 2016-17 में घट कर 21.5 लाख पहुंच गया। मास्टर आफ आर्ट्स (एमए) में हर सौ लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद जहां 160 है वहीं बैचलर आफ साइंस (नर्सिंग) के मामले में लड़कियों की यह तादाद 384 है। विज्ञान व वाणिज्य विषयों में पोस्टग्रेजुएशन की पढ़ाई में भी लड़कियों ने बाजी मार ली है। इन दोनों विषयों में प्रति सौ लड़कों के मुकाबले लड़कियों की तादाद क्रमशः 167 और 158 है। एमए, एमकॉम और एमएससी जैसे पाठ्यक्रमों में लड़कियों के दाखिले में बीते चार-पांच वर्षों के दौरान काफी तेजी आई है और यह तादाद हर साल बढ़ती जा रही है।
हालांकि इंजीनियरिंग, कानून व प्रबंधन की पढ़ाई के मामले में अब भी लड़कों का पलड़ा भारी है और इन तीनों क्षेत्रों में लैंगिक असमानता की खाई अभी गहरी है। यहां वर्ष 2012-13 के दौरान प्रति सौ लड़कों पर जहां 38 लड़कियां थीं वहीं अब यह तादाद 39 है।लेकिन डाक्टरी (एमबीबीएस) की पढ़ाई में दोनों लगभग बराबरी पर हैं। इस क्षेत्र में प्रति सौ लड़कों पर लडकियों की तादाद 99 है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2016-17 शैक्षणिक सत्र के अंत में उच्च शिक्षण संस्थानों में 25.2 के ग्रॉस एनरालमेंट रेशियो (जीईआर) यानी सकल दाखिला अनुपात के साथ लगभग 3.57 करोड़ छात्र-छात्राओं ने दाखिला लिया था। 18 से 23 साल के बीच की कुल आबादी में से उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेने वाले छात्रों की तादाद के आधार पर जीईआर तय किया जाता है।
बदलती सोच
आखिर उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्राओं के बढ़ते दाखिलों की वजह क्या है। समाजशास्त्री इसके लिए समाज की बदलती सोच और मौजूदा सामाजिक परिदृश्य को प्रमुख वजह मानते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अब धीरे-धीरे ग्रामीण इलाकों में भी लड़कियों को उच्च शिक्षा के प्रेरित किया जा रहा है। इसकी एक प्रमुख वजह लोगों की यह सोच है कि लड़की पढ़ी-लिखी हो तो वह आगे चल कर शादी के बाद रोजगार के जरिए पति का हाथ बंटा सकती है। अगर वह नौकरी नहीं भी करे तो कम से अपने बच्चों के पढ़ाई-लिखाई का ध्यान तो रख ही सकती है।
एक समाजशास्त्री दिलीप कुमार कर्मकार कहते हैं, 'पहले खासकर ग्रामीण इलाकों में यह सोच थी कि लड़की चार अक्षर पढ़ना-लिखना सीख जाए तो उसकी शादी कर दो। लेकिन अब इससे काम नहीं चल रहा है। अब लड़के वालों की ओर से पढ़ी-लिखी लड़कियों की मांग हो रही है। ऐसे में बिना उच्च शिक्षा के उनकी शादियों में बाधा आ रही है।' वह कहते हैं कि उच्चशिक्षा के साथ लड़की अगर नौकरी कर रही हो तो तब तो सोने में सुहागा है।
शिक्षाशास्त्री प्रफुल्ल कुमार मंडल कहते हैं, 'अब लगातार बढ़ती महंगाई और दूसरे तमाम खर्चों की वजह से एक की कमाई से घर चलाना मुश्किल हो रहा है। इससे लड़कियों में शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है ताकि वह नौकरी कर परिवार की आमदनी में योगदान कर सके। इसके अलावा नामी-गिरामी स्कूल अब बच्चों को दाखिला देने से पहले माता-पिता की शैक्षणिक पृष्ठभूमि की भी जांच करते हैं।'
विशेषज्ञों का कहना है कि किसी भी समाज की प्रगति के लिए खास कर महिलाओं का शिक्षित होना जरूरी है। ऐसे में देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्राओं की बढ़ती तादाद उत्साहजनक है। इसका समाज पर दूरगामी असर पड़ेगा। प्रफुल्ल कुमार मंडल तो इस प्रवृत्ति को महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक धीमी व मौन क्रांति करार देते हैं।