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हिमालयी राज्यों की मांग, विकास के लिए अलग मंत्रालय और बोनस

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, बुधवार, 31 जुलाई 2019 (11:48 IST)
भारत के हिमालयी क्षेत्र के राज्यों ने सरकार से अलग मंत्रालय के गठन की मांग की है जो उनकी समस्याओं पर ध्यान दे सके। इन राज्यों का कहना है कि उन्हें पर्यावरण और जल संरक्षण में योगदान के लिए ग्रीन बोनस भी मिलना चाहिए।
 
भारत के पहाड़ी राज्य अपनी मांगों को मंगवाने के लिए एकजुट हो रहे हैं। उत्तराखंड के मशहूर पर्यटन स्थल मसूरी में पिछले दिनों दस हिमालयी राज्यों की एक बैठक में हुई। इन राज्यों का कहना है अधिकांश नदियां हिमालयी ग्लेशियरों से निकलती हैं और इस तरह ये राज्य जल संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण रोल अदा कर रहे हैं। ग्रीन बोनस के लिए दूसरा तर्क इन राज्यों का ये है कि चूंकि उनका अधिकांश भूभाग संरक्षित और इको सेंसेटिव वन क्षेत्र है लिहाजा वहां विकास कार्य नहीं किए जा सकते हैं, इसलिए इसकी भरपाई के लिए आर्थिक मदद मिलती रहनी चाहिए।
 
बैठक में एक और अहम मुद्दा चर्चा में रहा वो था सीमाई इलाकों से पलायन का। चीन और नेपाल की सीमा से लगे इन अधिकांश राज्यों ने अपने सीमाई इलाकों के विकास और सुरक्षा के लिए प्राथमिकता से संसाधन जुटाने की मांग भी की। वित्त मंत्री सीतारमन ने हिमालयी राज्यों को भरोसा दिलाया कि उनकी मांगों पर सकारात्मक रूप से विचार किया जाएगा। इन राज्यों के लिए बजट में एक पृथक योजना रखने का आश्वासन भी दिया गया।  
 
हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड के अलावा जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और पूर्वोत्तर राज्य आते हैं। मसूरी की बैठक में असम को छोड़कर अन्य पूर्वोत्तर राज्यों- सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा, मिजोरम और मणिपुर के मुख्यमंत्री, मंत्री, नौकरशाह और अन्य विशेषज्ञ शामिल हुए। हालांकि अलग अलग स्तरों पर ये सभी राज्य ग्रीन बोनस की मांग करते रहे हैं।
 
उत्तराखंड की ओर से सबसे पहले पूर्व मुख्यमंत्री एनडी तिवारी ने ये मांग केंद्र में तत्कालीन वाजपेयी सरकार के समक्ष रखी थी। हिमालयी राज्य पहली बार एक जगह तो जरूर जमा हुए लेकिन केंद्र की ओर समवेत याचक मुद्रा के साथ। आखिर अलग मंत्रालय से हिमालयी राज्यों को क्या अलग मिल सकता है, ये स्पष्ट नहीं है। बजट में ग्रीन बोनस का प्रावधान या अलग योजना रखने का भरोसा भी अगर उत्तराखंड निर्माण के करीब 19 वर्षों को ही देंखे तो इस लंबी अवधि में ये नहीं हो पाया है। अन्य हिमालयी राज्य तो पहले से अस्तित्व में हैं। और पलायन और बॉर्डर के इलाकों में संसाधनों के अभाव जैसे कठिन हालात भी नये नहीं हैं।
 
पिछड़ेपन के लिए कौन जिम्मेवार
असल में इस बैठक से जितना इन राज्यों का ज्यादा से ज्यादा बजट ले आने की महत्वाकांक्षा का पता चलता है उतना ही ये भी दिखता है कि अब तक जो भी सरकारें इन राज्यों या केंद्र में रहीं हैं उनमें तालमेल और समन्वय की कितनी कमी रही है। दूसरी बात ये कि विकास के एजेंडे पर धीमी रफ्तार क्या सिर्फ केंद्र की उदासीनता या अनदेखी की वजह से रही है या ये राज्य भी इसके लिए जिम्मेदार हैं जहां सत्ता-संघर्ष और कुर्सी के लिए खींचतान तो आए दिन सुर्खियों में रहती है लेकिन बुनियादी विकास रणनीतियों पर चुप्पी छाई रहती है।
 
हिमालयी क्षेत्र का विकास तो निश्चित रूप से केंद्र की भी प्राथमिकता की सूची में होना चाहिए। और इसके लिए मंत्रालय से ज्यादा जरूरी और बुनियादी है मंशा। मंशा ही न हो तो मंत्रालय के गठन और खर्चों तक अरबों फूंक दीजिए, नतीजा ढाक के तीन पात ही रहेगा। और इस बात की क्या गारंटी है कि मंत्रालय दूसरे अहम मंत्रालयों की दया और संस्तुतियों पर निर्भर नहीं होगा?
 
जोर इस बात पर दिया जाना चाहिए कि केंद्र राज्यों के साथ एक समन्वित और संविधानसम्मत शैली में कार्य करे, राज्यों के अधिकारों की अनदेखी न की जाए और उस पर केंद्र अपने इरादे न थोपता रहे। नीतियों और परियोजनाओं की बुलडोजिंग का विरोध अगर ये राज्य मिलकर करते तो शायद ये ज्यादा स्वस्थ परंपरा का निर्वहन होता लेकिन खुद को सीमाओं के रक्षक और पर्यावरणीय संसाधनों के संरक्षक के रूप में पेश करने की रणनीति सिर्फ मदद पाने की रणनीति लगती है।
 
पिछड़े इलाकों से पलायन
उत्तराखंड से एक उदाहरण लेते हैं। यहां करीब 12 हजार करोड़ रुपए की लागत वाली केंद्र की विशाल ऑल वेदर रोड परियोजना जारी है। लेकिन विकास के नये ‘प्रतिमान' बताए जा रहे इस प्रोजेक्ट के समांतर कुछ बातें याद दिलाना जरूरी है। प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से उत्तराखंड देश का छठा सबसे अमीर राज्य है लेकिन इस आय में वृद्धि का संबंध निर्माण और सर्विस सेक्टर से है जो अधिकांशतः मैदानी क्षेत्रों तक ही सीमित है।
 
राज्य के 16 हजार से ज्यादा गांव, अब भी विकास को तरस रहे हैं। सड़कें और बिजली तो कई गांवों तक पहुंच गई हैं लेकिन इनके साथ रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का अभाव बना हुआ है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की हालत दयनीय है। पलायन की तीव्रता का अंदाजा इस बात से लग सकता है कि करीब 13 फीसदी की दर से पहाड़ों की आबादी घट रही है तो 32 फीसदी की दर से मैदानी इलाकों में आबादी बढ़ रही है। मैदानों पर बोझ बढ़ा है, शहर फैल रहे हैं लेकिन सुविधाएं सिकुड़ रही हैं।
 
आबादी के लिहाज से हुए परिसीमन ने उत्तराखंड से उसका पर्वतीय स्वरूप एक तरह से छीन लिया है। 70 सीटों वाली राज्य विधानसभा में राज्य के नौ पर्वतीय जिलों को जितनी सीटें आवंटित हैं उससे कुछ ज़्यादा सीटें राज्य के चार मैदानी जिलों के पास हैं। राज्य का पर्वतीय भूगोल सिकुड़ चुका है।
 
ऐसी स्थिति में तो उत्तराखंड के हिमालयी राज्य होने का दावा भी खतरे में नजर आता है। 2011 के जनसंख्या आंकड़े बताते हैं कि राज्य के करीब 17 हजार गांवों में से एक हजार से ज्यादा गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। हाल का अनुमान ये है कि ऐसे गांवों की संख्या साढ़े तीन हजार पहुंच चुकी है, जहां बहुत कम लोग रह गए हैं या वे बिल्कुल खाली हो गए हैं। पर्यटनीय ही नहीं पारिस्थितिकीय, पर्यावरणयीय और औद्योगिकीय अतिवाद का शिकार बनने वाला उत्तराखंड अकेला पहाड़ी राज्य नहीं है।
 
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी

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