नागरिक अवज्ञा आंदोलन द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जर्मनी में आई विरोध संस्कृति का हिस्सा है। खासकर पर्यावरण आंदोलनकारियों ने टकराव का रास्ता अपनाया है। किसी के लिए ये नागरिक कर्तव्य रहा है, तो दूसरों के लिए हुल्लड़बाजी।
पर्यावरण के लिए
हामबाखर जंगल को बचाने के लिए पर्यावरण संरक्षकों ने पेड़ों पर घर बनाकर रहने का रास्ता अपनाया है। वे छह साल से इस प्राचीन जंगल में पेड़ों को काटे जाने की योजना का विरोध कर रहे हैं। जंगल को काटकर यहां कोयले की खुदाई होनी है। यह इलाका बिजली कंपनी आरडब्ल्यूई की मिल्कियत है।
खाली कराए गए पेड़ के घर
अब पुलिस हामबाखर जंगल को खाली करा रही है। एक एक एक्टिविस्ट को उठाकर बाहर निकाला जा रहा है। पेड़ पर बने करीब 60 घरों को हटा दिया गया है। इसके विपरीत ज्यादातर पर्यावरण संरक्षक धरना दे रहे हैं। महत्वपूर्ण लक्ष्य के लिए कानून को जानबूझकर तोड़ना सालों से विवादों में है।
गैर संसदीय विरोध
युद्ध के बाद जर्मनी में पहला नागरिक अवज्ञा आंदोलन वामपंथी छात्रों ने किया था। 60 के दशक के मध्य में उन्होंने संसद से बाहर विपक्ष विपक्ष की स्थापना की। इस संगठन की मदद से उन्होंने सत्ता संरचना, वियतनाम युद्ध, परंपरागत यौन नैतिकता और नाजीकाल पर बहस न करने का विरोध किया।
परमाणु बिजली का विरोध
नागरिक अवज्ञा का चरमोत्कर्ष 1970 के दशक में था। 1968 के छात्र आंदोलन के बाद जानबूझकर कानून तोड़ने की परिपाटी लोकप्रिय होने लगी। फरवरी 1975 में दक्षिण जर्मनी के वाइल शहर में प्रदर्शनकारियों ने परमाणु बिजलीघर के निर्माण की जगह पर कब्जा कर लिया। वाइल परमाणु बिजली के विरोध का प्रतीक बन गया।
हवाई अड्डे के विस्तार का विरोध
फ्रैंकफर्ट जैसे बड़े हवाई अड्डों का विस्तार करने की योजना भी जर्मनी में विरोध की वजह बनी। 14 नवंबर 1981 को करीब 1,20,000 हजार लोगों ने फ्रैंकफर्ट हवाई अड्डे पर एक और रनवे बनाने का विरोध किया। लेकिन इसके बावजूद विवादास्पद रनवे ने 12 अप्रैल 1984 से काम करना शुरू कर दिया।
नोबेल विजेता का विरोध
1 सितंबर 1983 को नोबेल पुरस्कार विजेता हाइनरिष बोएल भी नागरिक सवज्ञा आंदोलन का हिस्सा बने। परमाणु रॉकेटों को अपग्रेड करने के नाटो के फैसले के खिलाफ वे अपनी पत्नी और दूसरे कलाकारों के साथ मूटलांगेन में अमेरिकी सैनिक अड्डे पर प्रदर्शन करने गए। ये जर्मन शांति आंदोलन के बड़े कदमों में शामिल था।
वाकर्सडॉर्फ में गृहयुद्ध सी स्थिति
वाइल में कामयाबी के बाद जर्मनी के परमाणु विरोधियों का आंदोलन फैलने लगा। 1985 में बवेरिया के वाकर्सडॉर्फ में परमाणु छड़ों को अपग्रेड करने का प्लांट बनाने की योजना पर अगला टकराव सामने आया। गृहयुद्ध जैसी झड़पों के बाद एक पुलिसकर्मी और कई प्रदर्शनकारी मारे गए। 1989 में निर्माण रोक दिया गया।
पटरी पर लेट कर
सरकार की परमाणु नीति पर पश्चिम जर्मनी में पर्यावरण संरक्षक नाराज रहे। वे परमाणु कचरे के गोरलेबेन के गोदाम में ट्रांसपोर्ट के दौरान हर साल प्रदर्शन करते। रेल से होने वाले कास्टर ट्रांसपोर्ट को रोकने के लिए वे कई बार तो खुद को पटरियों में चेन से बांध लेते ताकि रेल वहां से न गुजरे।
परमाणु खतरे के खिलाफ जोखिम
परमाणु कचरे के ट्रांसपोर्ट के खिलाफ विरोध के दौरान कुछ प्रदर्शनकारी तो भारी जोखिम उठाने को भी तैयार दिखे। पर्यावरण संगठन रॉबिन वुड का एक कार्यकर्ता तो जान की परवाह किए बिना ट्रांसपोर्ट वाले रास्ते पर ट्रेन को बिजली की सप्लाई करने वाले पोल पर चढ़ गया।
विरोधियों पर पानी की बौछार
फ्रैंकफर्ट के रनवे की तरह श्टुटगार्ट में भूमिगत स्टेशन का निर्माण भी विवादों में था। 2009 से शहर के समृद्ध नागरिक वामपंथी कार्यकर्ताओं के साथ इसका विरोध कर रहे थे। श्टुटगार्ट21 प्रोजेक्ट को रोकने के लिए प्रदर्शनकारियों ने 2010 में एक पार्किंग एरिया पर कब्जा कर लिया। पुलिस कार्रवाई में सैकड़ों घायल हो गए।