जर्मनी में फेसबुक, टि्वटर और गूगल जैसे सोशल मीडिया साइटों पर 1 जनवरी से नेट्जडीजी (NetzDG) कानून लागू कर दिया गया है। इस कानून का मकसद इंटरनेट पर नफरत फैलाने वाली सामग्री पर रोक लगाना है।
नेटवर्क एनफोर्समेंट लॉ (नेट्जडीजी) के तहत ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म जिसे 20 लाख से अधिक यूजर्स इस्तेमाल करते हैं इस कानून के दायरे में आएंगे। फेसबुक, टि्वटर, गूगल, यूट्यूब, स्नैपचैट, इंस्टाग्राम पर यह कानून लागू है। लेकिन प्रोफेशनल नेटवर्क साइट लिक्डइन और अन्य को इसके बाहर रखा गया है। साथ ही मैसेजिंग ऐप व्हाट्सऐप भी इस कानून में नहीं आती। नेट्जडीजी को बीते अक्टूबर से ही लागू कर दिया गया था।
लेकिन कंपनियों को इसे अपनाने के लिए तीन महीने का वक्त दिया गया, ताकि कंपनियां अपना नया शिकायत प्रबंधन सिस्टम इस नए कानून मुताबिक ढाल पाएं। 1 जनवरी से कोई भी ऐसा कंटेंट जो नफरत या डर फैलाने वाला हो सकता है उसे शिकायत प्राप्त होने के 24 घंटे के भीतर सोशल मीडिया से हटा दिया जाएगा। लेकिन अगर मामला कानूनी समझ आता है तो इसमें सात दिन तक का समय लग सकता है। इसके साथ ही कंपनियों को अपनी सालाना रिपोर्ट में बताना होगा कि कितने पोस्ट हटाए गए और उन्हें हटाने का कारण क्या था।
क्यों है विरोध
ये कानून कंपनियों पर जुर्माना भी लगाता है। अगर सोशल मीडिया कंपनियों ने कानून को लागू करने की समयसीमा का उल्लघंन किया तो उन्हें 5 करोड़ यूरो तक का जुर्माना भी हो सकता है। वहीं आम लोग, संघ कार्यालय (फेडरल ऑफिस ऑफ जस्टिस) में कंपनियों के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं।
साथ ही शिकायत दर्ज कराने के लिए कंपनियों को ऑनलाइन एक फॉर्म भी यूजर्स को मुहैया कराना है। गूगल ने इस कानून के मद्देनजर एक फॉर्म तैयार किया है वहीं टि्वटर ने भी एक विकल्प बनाया है जिसमें खास तौर पर नेट्जडीजी की बात कही गई है। हालांकि इस कानून के विरोध में गुस्सा कम नहीं है।
राजनीतिक दल, अल्टरनेटिव फॉर डॉयचलैंड (एएफडी) ने इस कानून के विरोध में आवाज बुलंद करते हुए इसे सेंशरशिप कानून कहा है। एएफडी के अलावा पत्रकारों की संस्था जर्नलिस्ट विदआउट बॉडर्स और इंटरनेट पर सक्रिय एक्टिविस्टों ने भी इसके खिलाफ अपनी राय रखी है। आलोचकों का कहना है कि यह जानना बेहद ही मुश्किल होगा कि पोस्ट क्यों हटाया गया।
गलत रिपोर्ट
इस कानून की एक आलोचना ये भी है कि कंपनियां, किसी सरकारी एजेंसी को बताए बगैर ऐसी पोस्ट हटा देंगी। लेकिन इससे ऐसी पोस्ट को लिखने वाले पर कोई भी कार्रवाई नहीं की जाएगी। हालांकि चाइल्ड पोनोग्राफी जैसे मामलों में कंपनियों को पुलिस के साथ पूरा डाटा साझा करना होगा।
जर्मन सरकार ने सोशल मीडिया साइट्स पर साल 2015 के बाद से दवाब बनाना शुरू किया। यही दौर था जब सोशल मीडिया पर शरणार्थियों को लेकर पर बेहद ही नस्लीय और आपत्तिजनक टिप्पणियां लिखी जा रहीं थी। पहले फेसबुक ने इस मसले को सुलझाने के लिए एक टास्क फोर्स बनाने का का वादा किया था लेकिन जर्मनी के कानून मंत्रालय ने बाद में इस मसले पर कानून लाने का निर्णय लिया।