ब्रिटिश अभिनेत्री कायरा नाइटली का कहना है कि वे अपनी तीन साल की बेटी को डिज्नी की कुछ परीकथाओं से दूर रखना चाहती हैं। बहुत से लोगों को उनकी ये बात अजीब लगी है। लेकिन मैं इससे पूरी तरह इत्तेफाक रखती हूं।
एक बार एक राजकुमारी थी, उसकी सौतेली मां उसे बहुत परेशान करती थी। फिर एक दिन एक राजकुमार आया और घोड़े पर बिठा कर उसे ले गया। सिंड्रेला हो, स्नोव्हाइट या फिर स्लीपिंग ब्यूटी, ये सब बहुत ही सताई हुई लड़कियां थीं, जो कभी अपने लिए लड़ नहीं पाईं। "अबला नारी" वाले इन किरदारों को हमेशा बेड़ियां तोड़ने के लिए एक राजकुमार की जरूरत पड़ी। वो अलग बात है कि "द एंड" के बाद की कहानी हम नहीं जानते। क्या पता राजकुमार ने भी नई बेड़ियों में बांध दिया हो।
बहरहाल, सवाल यह है कि क्या आज के जमाने में बच्चियों को इस तरह की कहानियां पढ़ने या देखने की जरूरत है? कायरा नाइटली का विरोध करने वालों का सवाल है कि क्या अब "फेमिनिस्ट" बच्चों की किताबों से भी छेड़ छाड़ करने लगेंगे। इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले समझना होगा कि बच्चों के ये किस्से कहानी आखिर आए कहां से।
जिन किरदारों को आप वॉल्ट डिज्नी की फिल्मों के कारण जानते हैं, दरअसल उन्हें डिज्नी ने रचा ही नहीं। इनमें से अधिकतर कहानियों का श्रेय जाता है जर्मनी के याकोब और विल्हेल्म ग्रिम को। और इनके बाद नंबर आता है डेनमार्क के हंस क्रिस्टियान एंडरसन का। ग्रिम भाइयों ने सिर्फ लोक कथाओं को जमा किया। जिन किस्से कहानियों को लोग पीढ़ियों से सुनते आ रहे थे, ग्रिम भाइयों ने उन्हें पहली बार 1812 में किताब की शक्ल दी। इसके दस साल बाद एंडरसन ने कहानियां लिखने की शुरुआत की। और फिर 100 से भी ज्यादा सालों बाद वॉल्ट डिज्नी ने इन किरदारों को कार्टून फिल्म के रूप में पेश करना शुरू किया।
ग्रिम की कहानियां पढ़ेंगे, तो आपको उनमें बच्चों की कहानियों जैसा कुछ भी नहीं मिलेगा। अधिकतर कहानियों का बहुत ही उदास सा अंत है। कई बार लगता है जैसे कहानी सुनाने का मकसद चेतावनी देना हो, जैसे कुएं पर अकेली जाओगी, तो मेंढक पीछे पड़ जाएगा। जाहिर है यहां मेंढक से मतलब एक दुष्ट आदमी से है। इस तरह से इन कहानियों में छिपी हुई यौन हिंसा भी खूब दिखती है। लेकिन डिज्नी ने इन सब नकारात्मक पहलुओं को अलग कर प्यारी प्यारी सी परीकथाएं पर्दे पर उकेर दीं। फिर इनकी रंग बिरंगी किताबें छपने लगीं और ये बचपन का एक अभिन्न हिस्सा बन गईं। लड़कियां हमेशा-हमेशा के लिए "प्रिंसेस" बन गईं और लड़के "हीरो"।
तो अगर वक्त के साथ कहानियों में इतना फेर बदल हो गया, तो फिर आगे भी इस बदलाव को जारी रखने में क्या हर्ज है? बच्चे जो पढ़ते हैं, जो भी देखते हैं, उसी को अपना आदर्श भी बना लेते हैं। क्या आज के जमाने में हमें अपनी बेटियों को यह सिखाने की जरूरत है कि उनकी आजादी किसी राजकुमार के हाथ में है? क्या सपनों का राजकुमार मिलने से जिंदगी वाकई में "हैपिली एवर आफ्टर" हो जाती है?
कायरा नाइटली की तरह आज कई माओं को यह बात समझ में आ रही है। उनकी तरह मैंने भी अपनी बच्ची को इन कहानियों से दूर रखने का फैसला किया है। और सिर्फ इन्हीं से नहीं, ऐसे बहुत से खिलौनों से भी, जो पैदा होते ही लड़के और लड़कियों में भेदभाव शुरू कर देते हैं। ऐसे कई शोध हैं, जो दिखाते हैं कि लड़कों के खिलौने लड़कियों से ज्यादा "स्मार्ट" होते हैं। लड़कियों से उम्मीद की जाती है कि वो गुड्डे गुड़ियों से खेलें, उन्हें सजाएं सवारें, जबकि लड़कों को ऐसे खिलौने दिए जाते हैं जो दिमाग के विकास में महत्वपूर्ण होते हैं, मिसाल के तौर पर कोई गेम या पजल। खिलौने बनाने वाली मशहूर कंपनी "लेगो" का सामान देखेंगे, तो यह बात साफ समझ आ जाएगी।
भारत और आसपास के देशों की तुलना में मुझे पश्चिमी देशों में यह फर्क ज्यादा दिखाई देता है। यकीनन इसकी एक बड़ी वजह यह है कि विकसित देशों में लोगों के पास खरीदने की क्षमता ज्यादा है। इसलिए खिलौनों और बच्चों के सामान का बाजार भी काफी बड़ा है। और इस बाजार में लैंगिक असमानता सिर्फ खिलौनों तक की सीमित नहीं है।
बच्चों के किसी भी स्टोर में घुसते ही आप रंगों को देख कर समझ जाएंगे कि कहां लड़कों का सामान है और कहां लड़कियों का। लड़कों के लिए नीला और लड़कियों के लिए गुलाबी। ऐसे में अगर आप अपनी बेटी को नीले कपड़े पहना दें, तो दुनिया बिना आपसे पूछे ही मान लेती है कि वो यकीनन लड़का ही है। बच्चों के कपड़ों से ले कर, उनके कमरे की दीवारों, स्कूल के बैग, लंच बॉक्स और पेन्सिल बॉक्स तक सब कुछ इसी तरह से विभाजित होता है।
जिस समाज में यह भेदभाव परवरिश का इतना अहम हिस्सा हो, उस समाज में "जेंडर इक्वॉलिटी" का नारा बेमायने लगता है। ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि खुद को दुनिया का सबसे महान देश कहने वाले अमेरिका में आज तक एक भी महिला राष्ट्रपति नहीं रही। पुरुषों जितना ही काम करने के बावजूद महिलाओं को वहां कम वेतन दिया जाता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के आंकड़े दिखाते हैं कि इस मामले में कनाडा, ब्रिटेन और यहां तक कि जर्मनी भी अमेरिका से बहुत पीछे नहीं हैं। फोरम के अनुसार दुनिया में "जेंडर पे गैप" को खत्म करने में अभी 200 साल से भी ज्यादा का वक्त लग जाएगा।
अगर बच्चों को ऐसे ही भेदभाव करना सिखाते रहे, तो शायद ये दो सदियां भी कम पड़ जाएं। वैसे भी, दो सौ साल पुरानी कहानियां पढ़ेंगे, तो दो सौ साल आगे बढ़ भी कैसे पाएंगे?