दुनिया भर में नई तकनीक कई पेशों को खत्म कर रही है। ऐसे में उस भारत का क्या होगा जिसकी आधी आबादी युवा है। आखिर क्या वजह है कि मोदी भी नौकरियां पैदा करने के मामले में नाकाम साबित हुए।
महान अर्थशास्त्री थॉमस राबर्ट माल्थस ने लिखा था, "प्रकृति की मेज सीमित संख्या में अतिथियों के लिए सजाई गई है। जो बिना बुलाए आएंगे, वो भूखों मरेंगे।' लेकिन यदि हम इसे दूसरी तरह से देखें तो धरती पर जन्म लेने वाले व्यक्ति का मुंह भले ही एक हों किन्तु हाथ दो होते हैं और यदि ये हाथ सही ढंग से उत्पादन के कार्य में लगें तो न सिर्फ अपना पेट भर सकते हैं बल्कि समाज के लिए भी कुछ दे सकते हैं।
भारत के संदर्भ में यदि हम देखें तो यहां बेरोजगारी कि प्रवृत्ति मूलतः संरचनात्मक है, जहां बड़ी संख्या में श्रमिकों को रोजगार के अवसर नहीं मिलते जिससे कि उन्हें नियमित रूप से कुछ आमदनी होती रहे। यदि भारत की सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की विकास दर को लें तो यह पिछले कुछ वर्षों में 6.5 फीसद के आस-पास रही है, जिसमें कृषि एवं निर्माण क्षेत्र की विकास दर 2.1 फीसद, उद्योग की 4.4 फीसद और सेवा क्षेत्र की विकास दर 8.3 रही है।
इन पैमानों पर भारत विश्व की एक तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के तौर पर जरूर उभरा है, लेकिन विकास ये दरें कितनी रोजगारपरक हैं, यह एक बड़ा सवाल है। इसका मतलब यह हुआ कि हम रोजगार विहीन प्रगति कर रहे हैं। जिसे अर्थशास्त्री जॉबलेस ग्रोथ कहते हैं।
लेकिन प्रश्न सिर्फ रोजगार का ही नहीं है, बल्कि गुणवत्तापूर्ण रोजगार का भी है। यदि भारत में रोजगार की औपचारिक स्थिति पर नजर डालें, यानी ऐसा रोजगार जहां कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा के उपाय उपलब्ध हैं तो स्थिति और भयावह है। गैर कृषि क्षेत्रों में ऐसा रोजगार 69 फीसदी और कृषि क्षेत्र में तो लगभग संपूर्ण रोजगार की स्थिति यही है।
साल 2018 के आर्थिक सर्वेक्षण को देखें तो भारत में औपचारिक क्षेत्र में रोजगार की संख्या करीब छह करोड़ है। इसके अलावा रक्षा क्षेत्र को छोड़कर करीब डेढ़ करोड़ लोग सरकारी क्षेत्रों में कार्यरत हैं। यानी करीब साढ़े सात करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें औपचारिक तौर पर रोजगार मिला हुआ है। जबकि गैर कृषि क्षेत्र में रोजगार पाए लोगों की संख्या करीब 24 करोड़ है।
हाल ही में आई एनएसएसओ की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में बेरोजगारी दर 6.1 फीसद है। यह पिछले पैंतालीस वर्षों में सबसे ज्यादा है। रिपोर्ट के मुताबिक, बेरोजगारी की दर शहरी क्षेत्रों में 7.8 और ग्रामीण क्षेत्रों में 5.3 फीसदी है। हालांकि इस रिपोर्ट को लेकर विवाद भी हुआ और नीति आयोग ने सफाई दी कि ड्राफ्ट रिपोर्ट है, पूरी रिपोर्ट बाद में आएगी। लेकिन बेरोजगारी की दर तेज रफ्तार से बढ़ी है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
नीति आयोग के उपाध्यक्ष का कहना था कि यह मसौदा रिपोर्ट है जिसे सरकार ने अभी सत्यापित नहीं किया है। इन्हीं सब विवादों के चलते राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के पीसी मोहनन और जीबी मीनाक्षी ने इस्तीफा दे दिया जिससे ये भी साफ हो गया कि इस मामले में इन संस्थाओं के जिम्मेदार लोग ही सरकार की बातों से सहमत नहीं हैं।
हालांकि नीति आयोग के उपाध्यक्ष अमिताभ कांत का कहना था कि सरकार कुछ छिपाने की कोशिश नहीं कर रही है और इस बात के बहुत सारे प्रमाण हैं कि नौकरियों का सृजन हो रहा है लेकिन यदि ये बात मान भी ली जाए तो भी यह सच्चाई तो है ही कि गुणवत्तापूर्ण रोजगार की कमी है ही।
जहां तक औपचारिक क्षेत्र में रोजगार यानी नौकरियों का सवाल है तो सरकारी दावे कतई खरे नहीं उतरते। पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा सरकारी नौकरियां देने वाले रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड और स्टाफ सेलेक्शन कमीशन में या तो नौकरियां आईं नहीं और आईं भी तो विवादों के चलते लोगों को नौकरियां मिली नहीं। जानकारों के मुताबिक, इन केंद्रीय संस्थाओं और राज्यों में ऐसी संस्थाओं और लोक सेवा आयोगों के जरिए लाखों की संख्या में लोगों को नौकरियां मिलती थीं।
वहीं सरकार का दावा है कि वो स्टार्ट अप इंडिया, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया जैसी तमाम योजनाओं के जरिए करीब सत्तर- अस्सी लाख नौकरियां पैदा कर रही है लेकिन एक तो इन नौकरियों को औपचारिक रोजगार जैसा दर्जा नहीं दिया जा सकता, दूसरे जिस तरह से देश में बेरोजगार युवाओं की संख्या बढ़ रही है, उसे देखते हुए यह पर्याप्त भी नहीं है।
पिछले कई वर्षों में यह बहस भी शुरू हुई है कि नौकरियां तो उपलब्ध हैं लेकिन कुशल यानी योग्य लोगों की ही कमी है। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक सभा में जब यही बात कह दी थी तो उनकी काफी आलोचना हुई थी लेकिन कुछ हद तक यह बात सही भी है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारत में कुशल श्रमिकों की कमी है। कौशल विकास के लिए राष्ट्रीय कौशल विकास मिशन शुरू किया गया है लेकिन इस योजना की सफलता या असफलता जैसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले उपयुक्त आंकड़ों का अभी इंतजार है।
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज शहर में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे एक छात्र अशोक कुमार कहते हैं, "सरकारी आंकड़ों की बाजीगरी से इतर यदि नौकरियों की आस लगाए छात्रों को देखें तो साफ पता चलता है कि छात्र परीक्षा, परिणाम और रोजगार चाहता है। बेरोजगार घूमती इंजीनियरों की फौज अगर कुशल नहीं है तो यह शिक्षा नीति की असफलता है न कि छात्रों की। आखिर कॉलेजों, विश्वविद्यालयों से निकलने वाला एक स्नातक छात्र यदि अकुशल या अयोग्य है तो इसमें दोष किसका है?''
उनका आरोप है कि रोजगार के प्रश्नों को कुशलता और अकुशलता के मिथक गढ़कर उन्हें दूसरी दिशा में मोड़ने का प्रयास किया जाता है ताकि सरकारी नीतियों की ओर उठने वाली उंगली, खुद नौकरी और रोजगार मांगने वालों की ओर ही उठने लगें।
रोजगार के क्षेत्र में भारत की वास्तविक स्थिति पर नजर डालें आज भी देश की पचास फीसद से ज्यादा की आबादी कृषि और उससे संबंधित गतिविधियों में लगी है, जबकि कृषि का जीडीपी में योगदान मात्र 16.4 फीसद है। कृषि के क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों की उत्पादकता बेहद कम है और निश्चित तौर पर इसी वजह से उनकी आमदनी और जीवन स्तर भी निम्न है।
कृषि क्षेत्र में ज्यादातर श्रमिक अल्प रोजगार की अवस्था में हैं यानी उनकी संपूर्ण कार्य क्षमता का इस्तेमाल नहीं हो पाता है। भारत में रोजगार के कोई निश्चित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, फिर भी ऐसा माना जाता है कि देश की कुल श्रम शक्ति का एक तिहाई अल्प रोजगार की अवस्था में है।
आर्थिक जानकारों के एक वर्ग के मुताबिक, साल 2016 में लागू हुई नोटबंदी के कारण कम से कम 35 लाख नौकरियां गई हैं और इसका सीधा असर युवाओं पर पड़ा है। और इससे श्रम बल में युवाओं की भागीदारी पर असर पड़ा है।
मौजूदा सरकार ने संकल्प लिया था कि साल 2025 तक अर्थव्यवस्था में मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान बढ़कर 25 प्रतिशत तक लाया जाएगा। 'मेक इन इंडिया' जैसे कार्यक्रमों के जरिए देश चीन और ताइवान जैसे विनिर्माण केंद्रों का अनुकरण करने की कोशिश कर रहा है ताकि महंगे आयात में कमी आए, तकनीकी आधार विकसित हो और नौकरियां पैदा हों।
हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि ढांचागत बाधाएं, जटिल श्रम कानून और नौकरशाही ने प्रगति के रास्ते को रोक रखा है। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में कई वर्ष से देश की अर्थव्यवस्था में उत्पादन क्षेत्र के योगदान में ज्यादा बदलाव नहीं आया है और ये 15 फीसद के आसपास स्थिर है।
ये आंकड़ा न सिर्फ लक्ष्य से दूर है बल्कि इसके लक्ष्य तक पहुंचने के आसार भी कम हैं। दशकों से सरकारें अर्थव्यवस्था में निर्माण क्षेत्र के योगदान को बढ़ाने की कोशिश करती रही हैं लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई है। वहीं दूसरी ओर, अन्य एशिया देशों में ये स्थिति बिल्कुल उलट है। चीन, कोरिया और जापान में मैन्युफैक्चरिंग यानी निर्माण क्षेत्र अर्थव्यवस्था का योगदान भारत से कहीं ज्यादा है।