मध्यप्रदेश में सियासी संकट के पीछे क्या बीजेपी से ज्यादा असरदार कांग्रेस के अंदरखाने चंद नेताओं के बीच बना 'गेमप्लान' रहा?
क्या यह गेमप्लान राजनीति में बेटों के और ऊंचाइयों पर जाने की राह में खड़े सबसे बड़े कांटे को बाहर निकालने का रहा? समाचार एजेंसी आईएएनएस के अनुसार इस बात से कांग्रेस से जुड़े सूत्र भी इंकार नहीं करते। उनका कहना है कि एक रणनीति के तहत सिंधिया को पार्टी से बगावत करने के लिए मजबूर कर दिया गया, नहीं तो सिंधिया ने ऐसी शर्तें नहीं रखी थीं जिन्हें पूरा करना असंभव हो।
सूत्रों का कहना है कि मुख्यमंत्री कमलनाथ और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह चाहते तो सरकार पर छाए संकट के बादल को दूर कर सकते थे। सवाल एक अदद राज्यसभा सीट का ही तो था। अगर पहली वरीयता वाली राज्यसभा सीट ज्योतिरादित्य सिंधिया को मिल जाती तो वे बागी तेवर न अपनाते। मगर इस सीट की राह में एक बार फिर दिग्विजय सिंह रोड़ा बनकर खड़े हो गए जिन पर आरोप लगते रहे कि उन्होंने ही सिंधिया को प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं बनने दिया।
मध्यप्रदेश के घटनाक्रम को देखते हुए राजनीतिक विश्लेषकों को ऐसा लगता है कि कमलनाथ ने सरकार को बचाने की उस तरह से कोशिशें नहीं कीं जिस तरह से कर सकते थे। सिंधिया को सोनिया से भी मिलने नहीं दिया गया।
इससे पहले भी कई मौकों पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को जलील करने की कोशिश हुई। उन्हें पार्टी में इतना तंग कर दिया गया कि कभी गांधी परिवार खासतौर से राहुल के बेहद वफादार रहे ज्योतिरादित्य सिंधिया को आखिरकार कांग्रेस को ठोकर मारने के लिए मजबूर होना पड़ा।
ज्योतिरादित्य के करीबियों का मानना है कि कांग्रेस छोड़ने का फैसला इतना आसान नहीं था। दरअसल, कभी राहुल गांधी की टीम के खास सदस्यों में रहे जिन ज्योतिरादित्य की पूरी कांग्रेस में तूती बोलती थी और वे अपने ही राज्य की राजनीति में खुद बेगाना हो चले थे।
पार्टी सूत्रों का कहना है कि दिसंबर 2018 में कांग्रेस विधानसभा चुनाव जीती तो इसके पीछे ज्योतिरादित्य सिंधिया की जबरदस्त कैंपेनिंग को श्रेय दिया जाने लगा। इसके बाद सिंधिया को मुख्यमंत्री पद का प्रमुख दावेदार माना जा रहा था।
क्या हुआ 'एक व्यक्ति, एक पद' की परंपरा का?
लेकिन पार्टी नेतृत्व नेतृत्व ने उन पर अनुभवी कमलनाथ को तरजीह दी। मुख्यमंत्री बनने से चूक जाने के बाद सिंधिया की नजर प्रदेश अध्यक्ष पद पर टिक गई। 'एक व्यक्ति एक पद' की परंपरा के मुताबिक फिर माना जाने लगा कि मुख्यमंत्री कमलनाथ सिंधिया के लिए प्रदेश अध्यक्ष का पद छोड़ सकते हैं। महीनों इंतजार के बाद भी वह दिन नहीं आया, जब सिंधिया पार्टी में कमजोर पड़े तो उनके समर्थक विधायक और अन्य कार्यकर्ता भी अपनी ही सरकार में उपेक्षित महसूस करने लगे।
सिंधिया समर्थकों को लगा कि ग्वालियर के 'महाराज' के हाथ प्रदेश की बागडोर आ जाने के बाद वे कमलनाथ पर दबाव बनाने में सफल हो सकते थे। दिग्विजय और कमलनाथ भी यह जानते थे कि सिंधिया के प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद उन्हें संगठन के दबाव में सरकार चलानी पड़ेगी और ऐसे में सिंधिया की कोशिश कामयाब नहीं हुई।
सिंधिया न मुख्यमंत्री बन पाए और न ही प्रदेश अध्यक्ष। अब सिंधिया को लगा कि राज्यसभा के रास्ते जाकर दिल्ली की राजनीति फिर से की जाए। मध्यप्रदेश में कुल 3 राजयसभा सीटों का 26 मार्च को चुनाव होना है। इसमें प्रथम वरीयता के वोटों से कांग्रेस और बीजेपी की 1-1 सीट पर जीत तय है और लड़ाई तीसरी सीट के लिए है।
पार्टी सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस ने सिंधिया को प्रथम वरीयता वाली सुरक्षित सीट देने से इंकार कर दिया। दूसरी सीट पर लड़ाई खतरे से खाली नहीं थी। सूत्रों का यह भी कहना है कि पार्टी ने उन्हें छत्तीसगढ़ से टिकट ऑफर किया, मगर सिंधिया वहां से जाने को तैयार नहीं हुए।
बेटों को आगे बढ़ाने का प्लान
सूत्रों का कहना है कि ज्योतिरादित्य की राह में समय-समय पर मुश्किलें खड़ी कर उन्हें पार्टी से बगावत करने को मजबूर कर दिया गया। दरअसल, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह दोनों उम्र के कारण सियासत के आखिरी दौर में हैं। दोनों नेताओं ने अपने बेटों को भले ही मध्यप्रदेश की राजनीति में स्थापित कर दिया है, मगर उनमें असुरक्षा का बोध भी है। कमलनाथ अपने बेटे नकुलनाथ को अपनी परंपरागत छिंदवाड़ा सीट से सांसद बनाकर राजनीतिक वारिस बना चुके हैं, वहीं दिग्विजय के बेटे जयवर्धन सिंह अभी की कमलनाथ सरकार में मंत्री रहे।
सूत्रों का कहना है कि कमलनाथ और दिग्विजय के रिटायर होने के बाद सिंधिया का रास्ता मध्यप्रदेश में हमेशा के लिए खुल जाता और इसका असर दोनों नेताओं के बेटों की आगे की महत्वाकांक्षाओं पर पड़ सकता था। इसलिए दूर तक नजर रखते हुए दिग्विजय और कमलनाथ ने सिंधिया की विदाई की पटकथा रच दी। कांग्रेस के कई सूत्रों और राजनीतिक विश्लेष्कों का मानना है कि अब आगे की राजनीति में नकुलनाथ और जयवर्धन के लिए मैदान खुला है।