यूरोप में 400 साल पहले एक युद्ध शुरू हुआ जो तीस साल तक चला। धर्म और सत्ता की लड़ाई ने मध्य यूरोप को पीड़ा और तबाही में धकेल दिया। लेकिन पांच साल की वार्ताओं के बाद हुए शांति समझौते ने विवाद सुलझाने का रास्ता भी दिखाया।
प्रोटेस्टेंट कुलीन वर्ग ने 23 मई 1618 को प्राग के किले पर हमला कर दिया। वे रोमन साम्राज्य के प्रतिनिधियों से धार्मिक स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। गरमागरम बहस के बाद बोहेमिया से आए कुलीन वर्ग ने सम्राट मथियास के अधिकारियों को खिड़की से बाहर फेंक दिया। उनकी जान किसी तरह बची।
इतिहास में दर्ज इस घटना को सम्राट मथियास ने युद्ध की घोषणा माना और प्रोटेस्टेंट विरोध को बढ़ने से पहले ही दबा देने का फैसला किया। इसके साथ 30 साल तक चलने वाला युद्ध शुरू हुआ जिसने धीरे धीरे पूरे मध्य यूरोप को अपनी चपेट में ले लिया। हुम्बोल्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हेरफ्रीड मुंकलर के अनुसार इस युद्ध ने जर्मनी पर बहुत गहरी छाप छोड़ी।
धर्म का इस्तेमाल
वजहों के विस्फोटक मिश्रण ने बोहेमिया के झगड़े को अनियंत्रित आगजनी में बदल दिया। एक ओर लंबी सर्दी ने कई फसल बर्बाद कर दीं तो दूसरी ओर आम लोगों के बीच अंधविश्वास से संचालित प्रलय की आशंका घर करने लगी। धार्मिक मामलों पर विवाद बढ़ते गए। गिरजे में सुधारों और चर्च के विभाजन के सौ साल बाद कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट एक दूसरे के आमने सामने थे।
कोएर्बर फाउंडेशन की एलिजाबेथ फॉन हामरश्टाइन कहती हैं, "धर्म का राजनीतिक मकसद से इस्तेमाल किया गया।" सम्राट और कुछ प्रांतीय शासकों में इस बात का झगड़ा था कि साम्राज्य का भविष्य किसके हाथों में होगा। बाहरी ताकतें भी हस्तक्षेप कर रही थीं, फ्रेंच, हाब्सबुर्ग, स्वीडन और इंग्लैंड के अलावा उस्मानी साम्राज्य इस इलाके को अपनी सुरक्षा के लिए अहम मानते थे और उस पर प्रभाव के लिए लड़ रहे थे।
तबाही का मंजर
इतिहासकार सीरिया की मौजूदा स्थिति को उस समय की स्थिति जैसी मानते हैं। शुरू में इस अरब देश में बशर अल असद के अलावी शिया वर्चस्व के खिलाफ सुन्नी तबकों को स्थानीय विद्रोह हुआ। हामरश्टाइन कहती हैं कि ये विवाद जल्द ही छद्म युद्ध में बदल गया। सीरिया में अब ईरान, सऊदी अरब, तुर्की, रूस और अमेरिका अपने अपने हितों की रोटी सेंक रहे हैं और स्थिति को जटिल बना रहे हैं।
30 वर्ष चले युद्ध ने भी लड़ाई में दूसरे देशों के शामिल होने के बाद तबाही और दहशत का नया आयाम हासिल कर लिया। विजयी सेनाएं सारे इलाके में लूटपाट और उत्पाद मचाती घूमती रहीं। उन्होंने शहरों और गांवों में आग लगा दी, निवासियों का कत्लेआम किया, महिलाओं का बलात्कार किया और बच्चों को भी नहीं छोड़ा। बहुत से लोग भुखमरी के शिकार हुए और बहुत से प्लेग जैसी महामारियों में मारे गए। लाखों लोग बेघर हो गए।
विदेशी ताकतों का खिलौना
उस समय लोगों की सारी चिंता किसी तरह जान बचाने की थी। हर दिन नई आशंकाएं और नई चिंताएं लेकर आता। गरीबी, लाचारी और नफरत उस पीढ़ी का पर्याय बन गए जिसने सिर्फ युद्ध की जिंदगी देखी थी। लेखक हंस याकोब फॉन ग्रिमेल्सहाउजेन ने अपने उपन्यास में उस समय की बर्बरता का जिक्र किया है। जर्मन सैनिक पेटर हागेनडॉर्फ ने अपनी डायरी में लूट के सामानों का जिक्र किया है। उसमें धन और कपड़ों के साथ खूबसूरत लड़की का भी जिक्र है।
तीस साल के युद्ध के दौरान 30 से 90 लाख लोगों के मरने की बात कही जाती है। उस समय जर्मनी की आबादी करीब डेढ़ से दो करोड़ थी। बाकी देश प्रगति कर रहे थे, जर्मनी बर्बादी और निराशा झेल रहा था। हैरफ्रीड मुंकलर कहते हैं, "सामाजिक क्षेत्र में युद्ध ने जर्मनी को दशकों पीछे धकेल दिया।" जिस युद्ध में देश की आबादी का एक चौथाई या एक तिहाई खत्म हो जाए वह लोगों की चेतना में एक मोड़ होता है। विदेशी ताकतों का खिलौना बनने की हकीकत ने जर्मनी को प्रभावित किया है।
पांच साल के बाद शांति
तीस साल के युद्ध के अंतिम सालों में युद्ध में शामिल दल थक चुके थे और जितना कुछ बच गया था उससे संतोष करने को तैयार थे। कैथोलिक मुंस्टर और प्रोटेस्टेंट ओस्नाब्रुक शहरों में पांच साल तक शांति वार्ता चली। पहली बार यूरोप के देशों में पूरे महाद्वीप के बारे मिलजुलकर सोच विचार किया। वे मिलकर जिम्मेदारी लेना चाहते थे। 24 अक्टूबर 1648 को शांति संधि पर दस्तखत हुए। वेस्टफेलिया संधि के नाम से विख्यात इस संधि को कूटनीति का कारनामा माना जाता है। इसमें धार्मिक स्वतंत्रता जैसी बातें तय की गईं।
प्रोटेस्टेंट और कैथोलिकों ने तय किया कि धार्मिक मुद्दों के हल के लिए व्यावहारिक तरीके खोजे जाएं। ईसाई समुदायों की बराबरी तय करने के साथ शांति में धार्मिक सहजीवन का आधार बना। लंबे युद्ध के बाद इसकी किसी को कोई उम्मीद नहीं थी। शांति की रक्षा के लिए गारंटी की व्यवस्था हुई। यदि कोई पक्ष संधि को तोड़ता तो बाकी को यथास्थिति बहाल करने के लिए हस्तक्षेप करने का हक था। सम्राट की ताकत काटकर प्रांतीय राजाओं को अधिक अधिकार मिले। प्रांतों के अधिकारों में इजाफा आज भी जर्मनी की संघीय व्यवस्था का आधार है।
शांति प्रयासों को प्रेरणा
वेस्टफेलिया शांति संधि को दूसरे विवादों के समाधान के लिए उदाहरण के तौर पर लिया जाता है। जर्मनी के मौजूदा राष्ट्रपति ने 2016 में कहा था कि विदेश मंत्रालय ने उस संधि की धाराओं की इस बात के लिए परीक्षा की थी कि क्या वे आज के शांति प्रयासों के लिए भी कारगर होंगे। उन्होंने खासकर संधि के पालन के लिए अंतरराष्ट्रीय गारंटियों की व्यवस्था पर जोर दिया था।
राजनीतिशास्त्री फॉन हामरश्टाइन भी वेस्टफेलिया शांति संधि को प्रेरणा का स्रोत मानती हैं। वे कहती हैं, "बहुत से आवेग, विचार रचनात्मक समाधान हैं जो शांति की ओर ले जाते हैं।" वेस्टफेलिया शांति संधि ने ये साबित किया है कि धार्मिक ताकत बनाए रखने पर लक्षित और संवेदनाओं से भरे युद्ध को भी शांतिपूर्ण तरीके से खत्म किया जा सकता है।