एक ताजा स्टडी कहती है कि आने वाले दशकों में भारत में कैंसर का प्रकोप बढ़ने का अंदेशा है। इनमें से उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान में इसका सबसे ज्यादा असर होगा।
यह अध्ययन जर्नल ऑफ ग्लोबल आन्कोलाजी में प्रकाशित हुआ है। कोलकाता स्थित टाटा मेडिकल सेंटर के डिपार्टमेंट ऑफ डाइजेस्टिव डिजीस के मोहनदास के मल्लाथ और किंग्स कालेज, लंदन के शोधछात्र राबर्ट डी स्मिथ की ओर से एक फेलोशिप के तहत यह अध्ययन किया गया है।
अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में हर 20 साल में कैंसर के मामले दोगुने हो जाएंगे। भारत में वर्ष 2018 में कैंसर के 11।50 लाख नए मामले सामने आए थे। वर्ष 2040 तक इस तादाद के दोगुनी होने का अंदेशा है। वर्ष 1990 से 2016 के बीच के 26 वर्षों के दौरान देश में इस बीमारी से मरने वालों की दर भी दोगुनी हो गई है।
आयुर्वेदिक काल से कैंसर
"हिस्ट्री ऑफ द ग्रोइंग बर्डेन ऑफ कैंसर इन इंडियाः फ्रॉम एंटीक्विटी टू ट्वेंटीफर्स्ट सेंचुरी” शीर्षक वाली इस अध्ययन रिपोर्ट में खास तौर पर दो पहलुओं का जिक्र किया गया है। इसमें इस मिथक को खारिज किया गया है कि कैंसर पश्चिमी सभ्यता की देन है। रिपोर्ट के मुताबिक, आम लोगों की बढ़ती औसत उम्र इस बीमारी की सबसे प्रमुख वजह है।
मल्लाथ कहते हैं, "आम लोगों में यह गलत धारणा है कि पश्चिमीकरण और आधुनिक जीवनशैली की वजह से ही देश में कैंसर की बीमारी तेजी से फैल रही है।” मल्लाथ ने स्मिथ के साथ मिलकर लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी और वेलकम कलेक्शन लाइब्रेरी में बीते दो सौ वर्षों के दौरान भारत में कैंसर से संबधित विभिन्न प्रकाशनों का अध्ययन किया।
पुराने आंकड़ों और नए अध्ययनों के तुलनात्मक अध्ययन से उनको भारत में कैंसर के सफर की एक साफ तस्वीर मिली। मल्लाथ कहते हैं कि वैज्ञानिक पहले ही यह बात कह चुके हैं कि सभ्यता नहीं बल्कि उम्र बढ़ने के साथ कैंसर के मामले भी बढ़ते हैं। लोगों की औसत उम्र बढ़ने की वजह से समाज में कैंसर का प्रकोप बढ़ना भी तय है।
मल्लाथ कहते हैं कि भारत में कैंसर की बीमारी सदियों पुरानी है। अथर्ववेद समेत कई पुराने ग्रंथों में इस बीमारी से मिलते-जुलते लक्षणों का जिक्र करते हुए बचाव के उपाय सुझाए गए हैं। लेकिन कैंसर की प्राथमिक पहचान उन्नीसवीं सदी में की गई थी। उसके बाद 1910 में इंडियन मेडिकल सर्विस ने कैंसर के मामलों का ब्यौरा भी प्रकाशित करना शुरू किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि कैंसर की बीमारी देश में आयुर्वेदिक काल से ही है। लेकिन 19वीं सदी में पश्चिमी दवाओं की स्वीकार्यता बढ़ने के बाद इस बीमारी की जांच शुरू हुई। मल्लाथ बताते हैं कि बीती सदी के दौरान भी कई विशेषज्ञों ने कैंसर के बढ़ते खतरे के प्रति चेताया था। लेकिन तब इस पर खास ध्यान नहीं दिया गया।
कुछ राज्यों पर प्रभाव ज्यादा
रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्यों में कैंसर का प्रकोप सबसे ज्यादा होगा। इसकी वजह यह है कि ये राज्य महामारी के संक्रमण काल से गुजर रहे हैं। इन राज्यों में कैंसर के इलाज की सुविधाएं नगण्य हैं।
मल्लाथ कहते हैं कि अगर इलाज में मांग और आपूर्ति के भारी अंतर को पाटने की दिशा में शीघ्र पहल नहीं की गई तो इन राज्यों को और गंभीर चुनौतियों का सामना करना होगा। मल्लाथ कहते हैं, "देश में कैंसर के इलाज का आधारभूत ढांचा बेहतर नहीं है। सरकारी अस्पतालों में ऐसी सुविधाओं का अभाव है जबकि निजी अस्पताल आम लोगों की पहुंच से दूर हैं।”
रिपोर्ट में कहा गया है कि कैंसर से बचाव के उपायों के बावजूद देश में यह बीमारी बढ़ेगी। इसकी वजह आम लोगों की औसत उम्र बढ़ना है। मिसाल के तौर पर अगर तंबाकू पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी जाए तो आम लोगों की औसत उम्र और 10 साल बढ़ जाएगी और महिलाओं में स्तन कैंसर और पुरुषों में प्रोस्टेट कैंसर जैसे ऐसे मामले बढ़ेंगे जो बढ़ती उम्र से संबंधित हैं।
मल्लाथ कहते हैं, "सरकार को कैंसर की शुरुआती दौर में पहचान और इलाज की पहल करनी चाहिए। लेकिन केंद्र और राज्य की आपसी खींचतान का खामियाजा आम मरीजों को उठाना पड़ रहा है।” विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को निजी अस्पतालों को कैंसर केयर प्रोग्राम चलाने की इजाजत नहीं देनी चाहिए। निजी क्षेत्र में इलाज का खर्च बहुत ज्यादा है और ज्यादातर लोग यह खर्च नहीं उठा सकते।
कोलकाता के एक सरकारी कैंसर अस्पाल से जुड़े डॉ. मनोहर माइती कहते हैं, "केंद्र सरकार को कैंसर के इलाज के लिए वर्ष 1946 में बनी भोरे समिति की रिपोर्ट और मुदलियार समिति की रिपोर्ट को लागू करना चाहिए।” इन दोनों समितियों ने तमाम मेडिकल कॉलेजों में बहुआयामी कैंसर ट्रीटमेंट यूनिट स्थापित करने और हर राज्य में केरल के तिररुअनंतपुरम स्थित रीजनल कैंसर सेंटर की तर्ज पर कैंसर स्पेशिलिटी अस्पताल खोलने की सिफारिश की थी।