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बिडेन फिर से बहाल करेंगे वैश्विक सहयोग और अमेरिकी नेतृत्व

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, मंगलवार, 10 नवंबर 2020 (08:38 IST)
रिपोर्ट : जॉन शेल्टन
 
जो बिडेन ने हमेशा एकतरफा फैसलों से बचने और सहयोगियों का साथ लेने का पक्ष लिया है। लेकिन राष्ट्रपति के रूप में अमेरिकी नेतृत्व को बहाल करने के लिए उन्हें साथियों का फिर से भरोसा जीतना होगा।
    
नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बिडेन ने वादा किया है कि वे ट्रंप प्रशासन के एकतरफा फैसले लेने की प्रथा को बदलकर और पुराने अंतरराष्ट्रीय गठबंधनों पर फिर से ध्यान देकर दुनिया में अमेरिका के नेतृत्व को फिर से बहाल करेंगे। उनका कहना है कि उनका प्रशासन कूटनीति को प्राथमिकता देगा और 'शक्ति के उदाहरण' के बदले 'उदाहरणों की शक्ति' से नेतृत्व करेगा। बिडेन को विरासत में ऐसा माहौल मिला है जिसमें सहयोगी देश अमेरिका की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं।
 
नवनिर्वाचित राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल के पहले 100 दिनों में राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा हस्ताक्षरित कई कार्यकारी आदेशों को पलट कर नुकसानों को यथासंभव सुधारने का वादा किया है। राष्ट्रपति ट्रंप ने दावा किया था कि ये समझौते अमेरिका के लिए अनुचित थे और उन्होंने कार्यकारी आदेशों से अंतरराष्ट्रीय समझौतों और गठबंधनों को तोड़ दिया। आलोचकों का कहना है कि ये फैसले हानिदायक थे और इसने चीन को अमेरिका की अनुपस्थिति में अपना प्रभाव बढ़ाने की अनुमति दी। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बिडेन इन विदेश नैतिक मुद्दों पर नए फैसले लेंगे।
 
संयुक्त सम्यक एक्शन प्लान (जेसीपीओए)
 
राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान परमाणु समझौते के नाम से विख्यात जेसीपीओए के खिलाफ लगातार आवाज उठाई और उसे 'इतिहास में सबसे खराब सौदों में से एक' बताया। अमेरिका 8 मई 2018 को इस समझौते से बाहर निकाल गया। उन्होंने ईरान और उसके साथ कारोबार करने वाले लोगों के खिलाफ प्रतिबंधों को भी बहाल कर दिया। 2015 में ओबामा प्रशासन ने चीन, फ्रांस, रूस, ब्रिटेन, जर्मनी और ईरान के साथ इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। हस्ताक्षरकर्ताओं ने आर्थिक राहत के बदले में ईरान के परमाणु कार्यक्रम की निगरानी और बातचीत पर सहमति जताई। ट्रंप प्रशासन ने समझौते को कमजोर कहा और इसके बदले 'अधिकतम दबाव' की नीति अपनाई।
 
बिडेन का कहना है कि ट्रंप की नीति बेअसर रही है और उसने केवल तनाव बढ़ाने का काम किया है। उन्होंने जेसीपीओए में फिर से शामिल होने की बात कही है, लेकिन साथ ही ये भी कहा है कि वे समझौते के नियमों के सख्त पालन की पुष्टि होने पर ही ईरान पर लगे प्रतिबंध हटाएंगे। आमतौर पर, बिडेन ईरान के क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी और मध्यपूर्व में अमेरिका के सबसे बड़े अरब सहयोगी सऊदी अरब से दूरी बनाने की सोच सकते हैं। ट्रंप ने अपने कार्यकाल में सऊदी राजशाही के साथ निकट सहयोग किया और सऊदी अरब ने राष्ट्रपति के ईरान विरोधी गठबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिडेन यमन में सऊदी अरब के अलोकप्रिय युद्ध के लिए अमेरिकी समर्थन समाप्त करके उससे दूरी बनाने की शुरुआत कर सकते हैं।
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पेरिस जलवायु समझौता
 
जो बिडेन और कमला हैरिस की जोड़ी की जीत का कुछ श्रेय जलवायु परिवर्तन से लड़ने के वादे को भी जाता है। बिडेन ने लगातार कहा है कि वह सत्ता में आते ही पेरिस जलवायु समझौते में फिर से शामिल होंगे। जलवायु परिवर्तन को झूठ मानने वाले ट्रंप ने 1 जून 2017 को समझौते से बाहर हो गए थे और दावा किया था कि यह समझौता चीन को अनुचित फायदा पहुंचाता है। अमेरिका चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा प्रदूषक है और जबकि ट्रंप ने पर्यावरण संरक्षण पर जीवाश्म ईंधन के मुनाफे को चुना, बिडेन ने उत्सर्जन कम करने की महत्वाकांक्षी योजना पर अमल के लिए एक स्वच्छ ऊर्जा अर्थव्यवस्था बनाने का वादा किया है।
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ)
 
बिडेन प्रशासन ने तुरंत डब्ल्यूएचओ में लौटने और कोरोनावायरस से निबटने के उसके प्रयासों का नेतृत्व करने का वादा किया है। अमेरिका इस महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्था में प्रभावी भूमिका निभाता था और उसके बजट का 15% योगदान देता था। जर्मनी का योगदान 5।6 प्रतिशत है। 7 जुलाई 2020 को राष्ट्रपति ट्रंप ने संगठन से बाहर निकलने की घोषणा की। यह एक साल बाद प्रभावी होगा। संयुक्त राष्ट्र का यह संगठन अन्य बातों के साथ-साथ विश्वभर में टीकों के परीक्षण का समन्वय कर रहा है।
 
8 नवंबर तक अमेरिका में कोरोनावायरस संक्रमण के 99,57,50 और मौतों के 2,37,567 मामले दर्ज किए गए जो किसी भी देश में सबसे बड़ी संख्या थी। दुनिया भर में संक्रमण के 4,99,48,324 मामले हुए हैं और कोविड-19 से 12,52,189 लोगों की मौत हुई है।
 
संयुक्त राष्ट्र (यूएन)
 
राष्ट्रपति ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र छोड़ने की भी धमकी दी, हालांकि अभी तक अमेरिका ने इसके केवल दो संगठनों को छोड़ा है। ये हैं मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) और शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को)। अमेरिका ने दोनों ही मामलों में अपने सहयोगी इसराइल के साथ अनुचित व्यवहार का हवाला दिया। 19 जून 2018 को संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत निकी हेली ने यूएनएचआरसी को 'एक पाखंडी और स्वयं सेवारत संगठन कहा जो मानवाधिकारों का मजाक उड़ाता है।'
 
उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संस्था के 'इसराइल के खिलाफ पुराने पूर्वाग्रह' का आरोप लगाया और मानवाधिकारों का हनन करने वाले चीन, क्यूबा और वेनेजुएला जैसे देशों की परिषद की सदस्यता पर आपत्ति जताई। अमेरिका ने इस संस्था में सुधारों की अपील की और इसराइल के बचाव में संस्था के सदस्यों से बार बार टकराया। आलोचकों का कहना है कि अमेरिका इसराइल के मानवाधिकारों के हनन पर आंखें मूंद लेता है।
 
ट्रंप प्रशासन ने जाहिरा तौर पर विश्व सांस्कृतिक विरासत स्थलों के नामकरण में विवाद का हवाला दिया और यूनेस्को पर यहूदी ऐतिहासिक संपर्कों की अनदेखी करने का आरोप लगाया। ऐतिहासिक स्थलों के नामकरण के सिलसिले में हेब्रोन के पुराने शहर और पैट्रियार्क मकबरे को फलिस्तीनी स्थल के रूप में घोषित किए जाने ने अंतरराष्ट्रीय संप्रभुता के गहरे मुद्दों को भी छुआ था। इससे पहले अमेरिका ने रोनाल्ड रीगन के शासनकाल में 1984 में यूनेस्को छोड़ दिया था और जॉर्ज डब्ल्यू बुश के शासनकाल में 2002 में फिर से वापस लौटा। ओबामा-बिडेन प्रशासन के तहत नौ साल तक अमेरिका ने सदस्यता का भुगतान नहीं किया, लेकिन अपनी सदस्यता बनाए रखी।
 
बिडेन इसराइल के मजबूत समर्थक हैं और इसराइल और उन्होंने संयुक्त अरब अमीरात के बीच हाल के समझौतों का स्वागत किया है, लेकिन उनका प्रशासन संभवतः यहूदी बस्तियों के निर्माण और विलय को रोकने के साथ ही संयुक्त राष्ट्र में फलीस्तीनियों की जरूरतों के लिए और अधिक मुखर होगा।
 
डब्ल्यूटीओ, नाटो और सीनेट
 
बिडेन को जिन मुद्दों पर ध्यान देना होगा, उनमें व्यापार संबंधों की स्थिति के साथ-साथ विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसी निकायों पर चर्चा भी शामिल होगी। उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) में बिडेन मतभेदों को दूर करने के अलावा सहयोग का विस्तार करने की मांग करेंगे, लेकिन उसका विदेश नीति वाला महत्व बना रहेगा। सवाल यह है कि क्या जो बिडेन अपने साथियों का भरोसा वापस जीत सकेंगे और अपने लक्ष्यों को पाने में सफल हो पाएंगे या फिर पिछले चार साल में दुनिया आगे निकल गई है।
 
जो बिडेन ने कई मोर्चों पर व्यापक और महत्वाकांक्षी योजनाएं सामने रखी हैं, लेकिन कार्यकारी आदेशों को तो तुरंत पलटा जा सकता है, लेकिन सीनेट में बहुमत के बिना संसद की मंजूरी वाले फैसले लेना असंभव साबित होगा। सबसे पहले उन्हें कोरोनावायरस और उसकी वजह से होने वाले आर्थिक नुकसान का सामना करना होगा।

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