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आइनस्टाइन की एक और भविष्यवाणी सही निकली

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, शनिवार, 13 फ़रवरी 2016 (14:42 IST)
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइनस्टाइन ने अपने सापेक्षवाद सिद्धांत में दिक-काल (स्पेस ऐन्ड टाइम) को झकझोरने वाली जिन गुरुत्वीय तरंगों (ग्रैविटेश्नल वेव) के होने की परिकल्पना की थी, उनका अस्तित्व सौ वर्ष बाद अब प्रमाणित हो गया है।
इंटरनेट में कुछ समय से अफवाहें गरम थीं कि जल्द ही एक खगोलीय सनसनी की घोषणा होने वाली है। गुरुवार 11 फरवरी को अमेरिका में वॉशिंगटन, जर्मनी में हनोवर और कुछ अन्य देशों के उन शहरों में, जहां के वैज्ञानिक गुरुत्वीय (गुरुत्व या गुरुत्वाकर्षण) तरंगों के अस्तित्व का पता लगाने के लिए अमेरिका में वर्षों से चल रहे अंतरराष्ट्रीय 'लीगो' (लेज़र- इंटरफ़ेरोमीटर ग्रैविटेश्नलवेव ऑब्ज़र्वैटोरियम) प्रयोग से जुड़े हुए हैं, एक साथ यह घोषणा की गई कि ब्रह्मांड में गुरुत्वीय तरंगों के अस्तित्व का सीधा प्रमाण मिल गया है। ''लीगो'' वेधशाला एक अरब 10 करोड़ डॉलर की लागत से बनी भारत सहित 16 देशों के लगभग एक हजार वैज्ञानिकों का मिला-जुला प्रयास है। इसलिए यह सफलता केवल अमेरिका के वैज्ञानिकों की ही नहीं, सारी दुनिया के एक हजार वैज्ञानिकों की साझी उपलब्धि है।
 
अल्बर्ट आइनस्टाइन ने, 22 जून 1916 को, बर्लिन की तत्कलीन 'प्रशियाई विज्ञान अकादमी' में दिए गए अपने एक व्याख्यान में पहली बार गुरुत्वीय तरंगों के होने की परिकल्पना की थी। किंतु, उन्हें स्वयं विश्वास नहीं था कि इन तरंगों के अस्तित्व को कभी प्रमाणित भी किया जा सकेगा। मानते तो सभी थे कि इन तरंगों का अस्तित्व होना चाहिये। पर,  पृथ्वी पर इसे प्रमाणित कर पाने में सफलता पिछले लगभग 50 वर्षों से छका रही थी।
 
खगोलविदों का मानना है कि गुरुत्वीय तरंगों की पुष्टि हो जाने के बाद अब ब्रह्मांड की उत्पत्ति के कुछ और रहस्यों पर से पर्दा उठ सकता है। इस खोज को नोबेल पुरस्कार का एक प्रबल दावेदार भी माना जा रहा है। इस खोज का मार्ग प्रशस्त करने वाले प्रयोग के कुछ उपकरण जर्मनी में बने हैं और कई जर्मन वैज्ञानिक भी ''लीगो'' वेधशाला से जुड़े हुए हैं।
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(चित्रः आइनश्टाइन का लिखा समीकरण)

जितना अधिक भार, उतनी ही प्रबल तरंग : सिद्धांततः हर ऐसी चीज़, जो त्वरण (एक्सिलरेशन) द्वारा अपनी गति को बढ़ा रही हो, गुरुत्वीय तरंग पैदा करती है– हमारा शरीर भी, हमारी कारें, ट्रेनें या विमान भी। लेकिन, उनके द्वारा पैदा की गई गुरुत्वीय तरंगें इतनी क्षीण होंगी कि उन्हें मापने लायक कोई डिटेक्टर शायद कभी बन ही नहीं पाएगा।
 
कोई चीज़ जितनी ही अधिक द्रव्यराशि वाली, अर्थात जितनी ही भारी होगी, और जितने ही अधिक त्वरण के साथ गतिशील होती जाएगी, उतनी ही बलशाली गुरत्वीय तरंगे भी पैदा करेगी। ब्रह्मांड में ये गुरुत्वीय तरंगें तब पैदा होती हैं, जब बहुत भारी-भरकम आकाशीय पिंडों (जैसे तारों) की गति– उदाहरण के लिए उनके जीवन के अंतकाल में– तेज़ी से बढ़ने लगती है, उनमें विस्फोट होता है या जब दो विराटकाय कृष्णविवर (ब्लैक होल) एक-दूसरे को खींचते हुए आपस में टकरा कर एक हो जाते हैं।
 
कृष्णविवर (ब्लैक होल) अतिशय घनत्व वाले मृत तारे होते हैं। जब कोई विशाल तारा अपने अंत की ओर पहुंचता है तो वह अपने ही भीतर सिमटने लगता है और धीरे-धीरे भारी भरकम कृष्णविवर बन जाता है। उदाहरण के लिए, पृथ्वी यदि कभी सिमटकर एक टेनिस गेंद भर रह जाए तो वह भी कृष्णविवर बन जाएगी। कृष्णविवरों का गुरुत्वाकर्षण बल इतना शक्तिशाली होता है उनके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता। प्रकाश भी उसके पास आने के बाद बाहर नहीं निकल पाता।
 
ज़मीन पर किसी बम-विस्फोट के समय हवा में पैदा होने वाली प्रघात तरंगों की तरह– जिन से आस-पास के पेड़ पौधे और मकान हिल जाते हैं– तारों में विस्फोट या कृष्णविवरों के बीच टकराव के समय पैदा होने वाली गुरुत्वीय तरंगों से करोड़ों-अरबों प्रकाशवर्ष दूर तक के पृथ्वी जैसे आकाशीय पिंड भी थर्रा जाते हैं। उनके आकार-प्रकार में क्षणिक घट-बढ़ पैदा हो जाती है।
 
यह घट-बढ़ हवा के किसी झोंके कारण नहीं (अंतरिक्ष वायुशून्य है), बल्कि इस कारण पैदा होती है कि अतिविशाल पिंडों की गति में आए त्वरण से दिक (स्पेस/अंतरिक्ष) के आकार में स्वयं गड्ढे या उभार पड़ने और खिंचाव-तनाव आने लगते हैं। गुरुत्वीय तरंगें भी प्रकाश की गति से अंतरिक्ष में उसी तरह फैलती हैं, जिस तरह किसी तालाब के स्थिर पानी में फेंके गए कंकड़ से लहरें पैदा होती और फैलती हैं।
 
दो कृष्णविवरों का विलय : अमेरिकी 'लीगो' वेधशाली के वहां के लुइज़ियाना और वाशिंगटन राज्यों में स्थित दो लेजर-डिटेक्टरों ने, 14 सितंबर 2015 के दिन, एक-दूसरे में विलीन हो गए दो विशाल कृष्णविवरों जनित ऐसी ही तरंग को दर्ज किया। वास्तव में उसी दिन जर्मनी के हनोवर नगर में स्थित माक्स प्लांक संस्थान के Geo600  इंटरफ़ेरोमीटर ने भी ऐसी ही एक प्रघटना दर्ज की।
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जर्मनी में पोट्सडाम और हनोवर में स्थित गुरुत्वभौतिकी माक्स प्लांक संस्थान के निदेशक ब्रूस एलन ने बताया, 'एक-दूसरे में विलय से पहले हमने इन दोनों कृष्णविवरों की एक-दूसरे की चार अंतिम परिक्रमाएं देखीं।'
 
जर्मन माक्स प्लांक संस्थान भी 'लीगो' प्रयोग का एक प्रमुख सदस्य है। 14 सितंबर वाले अवलोकन की घोषणा तुरंत इसलिए नहीं की गई, क्योंकि वैज्ञानिक इसे तब तक गुप्त रखना चाहते थे, जब तक हर प्रकार से यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि वे जल्दबाज़ी में कुछ ऐसा न कह जाएं, जो बाद में ग़लत सिद्ध हो। 
 
आंकड़ों के विश्लेषणों ने दिखाया कि दोनों कृष्णविवरों का विलय पृथ्वी से क़रीब एक अरब 30 करोड़ प्रकाशवर्ष दूर हुआ है। उन में से एक, सौरमंडल वाले हमारे सूर्य की अपेक्षा 29 गुना अधिक द्रव्यराशि वाला और दूसरा 36 गुना अधिक द्रव्यराशि वाला था। लेकिन,  आपस में विलय के बाद उनकी साझी द्रव्यराशि, हमारे सूर्य की तुलना में, 65 के बदले 62 गुने के ही बराबर है। तीन गुनी द्रव्यराशि की जो कमी रह गई है, वह आइनस्टाइन के 'द्रव्यराशि-ऊर्जा समानुपात' (मास-एनर्जी इक्वीवैलेंस) सिद्धांत के अनुरूप, गुरुत्वीय तरंगों के रूप में, ब्रह्मांड में विकीर्ण हो गई।
 
दिक-काल में थर्थराहट : इससे दिक-काल में जो थर्थराहट पैदा हुई, उसे– लेज़र किरणों वाली एक अचूक मापन प्रणाली ने– समकोण के रूप में ज़मीन पर बने 'लीगो'  के 4- 4 किलोमीटर लंबे दो पाइपों की लंबाई में अत्यंत सूक्ष्म घट-बढ़ के रूप में दर्ज किया। यह घट-बढ़ हाइड्रोजन गैस के नाभिक की मोटाई (व्यास) के एक हज़ारवें हिस्से के बराबर थी! दूसरे शब्दों में, वह हमारे सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी को हाइड्रोजन गैस के नाभिक की मोटाई से कुछ कम ही घटा या बढ़ा सकी होती।   
 
जर्मन गुरुत्वभौतिकी माक्स प्लांक संस्थान की अलेसांद्रा बुओनानो का कहना है कि इस प्रयोग से न केवल गुरुत्वीय तरंगों के बारे में आइनस्टाइन की भविष्यवाणी को सौ साल बाद पहली बार सीधे तौर पर सही प्रमाणित किया जा सका है, बल्कि यह भी पता चला है कि ब्रह्मांड में एक-दूसरे के फेरे लगा रहे दो तारों वाली न केवल द्वितारक प्रणालियां ही होती हैं, दो कृष्णविवरों वाली प्रणालियां भी हो सकती हैं।
 
कृष्णविवर क्योंकि कोई प्रकाशीय या विद्युतचुंबकीय विकिरण पैदा नहीं करते, इसलिए दो कृष्णविवरों वाली प्रणालियों का, सिवाय गुरुत्वीय तरंगों के, किसी और तरीके से पता ही नहीं चल सकता। नोबेल पुरस्कार योग्य खोज इससे पहले दो अमेरिकी खगोलविदों रसल एलन हल्ज़ और जोसेफ़ टेलर ने, 1974 में, एक-दूसरे की परिक्रमा कर रहे दो न्यूट्रॉन तारों वाली एक प्रणाली की खोज की थी।
 
उनकी परिक्रमा-गति लगातार कम होती जा रही थी। गति में यह गिरावट उनकी ऊर्जा में क्षय की ठीक समानुपाती पायी गयी। इसका अर्थ यह लगाया गया कि उनकी ऊर्जा गुरुत्वीय तरंगों में बदल रही होगी, इसीलिए उनकी परिक्रमा-गति घट रही है। इसे गुरुत्वीय तरंगों के अस्तित्व का परोक्ष प्रमाणन माना गया और इसके लिए दोनों अमेरिकी वैज्ञानिकों को 1993 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार भी मिला। इस बार, क्योंकि गुरुत्वीय तरंग के प्रभाव को पृथ्वी पर सीधे तौर पर मापा गया है, इसलिए इस खोज को भी नोबेल पुरस्कार का प्रबल दावेदार बताया जा रहा है।
 
इस खोज से पृथ्वी पर के हमारे दैनिक जीवन पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, पर ब्रहमांड के ऐसे रहस्यों को जानने में मदद ज़रूर मिल सकती है, जिनका सुराग न तो प्रकाश के किसी वर्णक्रम के मापन से और न विद्युतचुंबकीय तरंगों के किसी रूप के विश्लेषण से मिल सकता है। गुरुत्वीय तरंगों की पुष्टि ब्रह्मांड की अनंत गहराइयों में अतिदूर तक झांकने की एक ऐसी नई खिड़की खुलने के समान है, जो अब तक बंद पड़ी थी।
 
ब्रह्मांड में झांकने के लिए जब कभी दृश्यमान प्रकाश, अदृश्य एक्स-रे, अवरक्त (इन्फ्रारेड) या पराबैंगनी (अल्ट्रावायोलेट) किरणों और विभिन्न रेडियो तरंगों से काम बनता न दिखे, तो वैज्ञानिक गुरुत्वीय तरंगों के सहारे न्यूट्रॉन तारों या कृष्णविवरों की गतिविधियों पर नजर रखने की सोच सकते हैं। न्यूट्रॉन तारे भी ऐसे मृत तारे होते हैं, जो यदि पहले कभी हमारे सूर्य जितने बड़े रहे हों, तो सिकुड़ कर घने होते-होते केवल 20 किलोमीटर व्यास वाले रह जाएंगे। उनके बीच टक्कर का भी गुरुत्वीय तरंगे पता दे देंगी। वे ऐसी कुछ और प्रघटनाओं का पता दे सकती हैं, जिनके बारे में वैज्ञानिक आज कल्पना तक नहीं कर सकते।

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