भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव बलिदान दिवस
- शिवकुमार गोयल
वर्ष 1967 की बात है। गांधीजी के प्रमुख शिष्य आचार्य विनोबा भावे उन दिनों आचार्यों के एक समारोह में भाग लेने मुंगेर (बिहार) आए हुए थे। मुंगेर के उत्साही राष्ट्रभक्तों ने शहीद-ए-आजम सरदार भगतसिंह की प्रतिमा एक सार्वजनिक स्थल पर स्थापित करने की तैयारी की हुई थी।
कुछ युवा नेताओं ने बैठक में सुझाव रखा कि क्यों न संत विनोबाजी से ही मूर्ति का अनावरण करा दिया जाए?
एक नेता ने कहा- 'गांधीजी भगतसिंह के हिंसा के रास्ते का विरोध करते थे। शायद विनोबाजी उनकी मूर्ति का अनावरण करने की स्वीकृति न दें।
युवकों का प्रतिनिधिमंडल विनोबाजी के पास पहुंचा। हिचकिचाते हुए उनसे भगतसिंह की मूर्ति का अनावरण करने का अनुरोध किया गया। विनोबाजी उनके चेहरे को देखते ही समझ गए तथा बोले- 'गांधीजी कभी भी अपनी बात किसी पर थोपते नहीं थे। हम सबको अपनी इच्छा की पूर्ति का मौलिक अधिकार देते थे।
दूसरी बात यह है कि मैंने तो सरदार भगतसिंह की प्रेरणा से ही घर-परिवार छोड़ा था। उनकी हिंसा वीरों की हिंसा थी। मैं मूर्ति का अनावरण कर उनके ऋण से उऋण हो जाऊंगा।' और उन्होंने गर्व के साथ भगतसिंह की मूर्ति का अनावरण किया।