निर्धन कमजोरों को रोटी,
रोज बांटते मियां शकील।
सुबह-सुबह से खुद भिड़ जाते।
दो सौ रोटी रोज बनाते।
दो मटकों में बड़े जतन से,
सब्जी और दाल पकवाते।
अनुशासन की रेल दौड़ती,
होती इसमें कभी न ढील।
रोटी डिब्बे में रखवाते।
दाल बाल्टी में भरवाते।
सूखी सब्जी बड़ी लगन से,
एक टोकनी में बंधवाते।
चल देते हैं लिए साइकिल,
रोज चलें दस बारह मील।
लोगों को कुछ समझ न आता।
इन शकील को क्या हो जाता।
कठिन परिश्रम, धन बर्बादी,
इससे इनको क्या मिल पाता।
सेवा से मिलता है मेवा,
बस शकील की यही दलील।
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