- डॉ. रामनिवास मानव
बहो कि जैसे बहती धारा।
मगर न टूटे कभी किनारा।।
बढ़ते जाओ, कहता पानी।
दुनिया सारी आनी-जानी।।
हरदम पक्षी बनकर चहको।
फूलों सा मुस्काओ, महको।।
हो साकार सभी का सपना।
इन्द्रधनुष हो जीवन अपना।।
तितली बनकर बचपन नाचे।
और तोतली कविता बांचे।।
वैर-भाव सब पीछे छूटें।
सदा प्रेम के अंकुर फूटें।।
साभार- देवपुत्र