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मंगलवार, 15 अक्टूबर 2024
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15 अगस्त पर काव्य नाटिका : हिंसा पर अहिंसा की जय...

हमें फॉलो करें 15 अगस्त पर काव्य नाटिका : हिंसा पर अहिंसा की जय...
- सुरेन्द्र अंचल
पात्र  - दो बालक, एक बालिका
 
एक बालक- पन्द्रह अगस्त का दिन महान
समवेत- स्वतंत्रता का हुआ विहान
एक- पन्द्रह अगस्त
समवेत- जय-जय
एक- मुक्ति पर्व
समवेत- जय-जय
एक- कोटि कंठों की एक ही लय
समवेत- हिंसा पर यह अहिंसा की जय
नेपथ्य (गीत स्वर)- दे दी हमें आजादी, बिना खड्ग-ढाल।
साबरमती के संत, तूने कर दिया कमाल। 
 
दूसरा बालक- मनोज भैया हमें बताओ
क्या है सच्ची बात सुनाओ।
एक साल में दो बार क्यों
तिरंगा ध्वज हम फहराते? 
छब्बीस जनवरी मनाई तो थी
फिर पन्द्रह अगस्त यह क्यों मनाते?
 
एक हंसकर- अरे बुद्धू!
दोनों अलग-अलग राष्ट्रीय पर्व हैं
दोनों पर ही हमें गर्व है।
दूसरा यह क्यों? 
राष्ट्र पर्व हैं दो क्यों? 
एक- छब्बीस जनवरी गणतंत्र,
और स्वतंत्रता दिवस है पन्द्रह अगस्त।
बोलो हर्ष-हर्ष।
समवेत- जय-जय
एक- पन्द्रह अगस्त
समवेत-‍ जिंदाबाद! जिंदाबाद!!
एक- यह स्वतंत्रता पर्व!
समवेत-‍ जिंदाबाद! जिंदाबाद!!
 
बालिका- तमल भैया, हमें छुनाओ ना,
आजादी ती बात बताओ ना? 
 
एक (उच्छवास)- हां, हां, क्यों नहीं। तो लो सुनो।
तुम्हें पुरानी बात बताएं,
वह सन् चौदह सौ इट्ठाणु था,
कुछ पुर्तगाली व्यापारी आए,
सोने की चिड़िया था भारत, 
डच, अंगरेज शिकारी आए।
केरल के राजा 'जमेरिन' से
मात्र व्यापार की आज्ञा पाए।
ये विदेशी भारत क्या आए।
शासक बनकर हम पर छाए। 
 
बालिका- अच्छा! अले यह तो धोखा
उनतो हमने त्यों नई लोका? 
दूसरा- अरे कमाल है-
मुट्ठीभर व्यापारियों ने यों
पूरे देश को जीता कैसे? 
भारत तो वीरों की धरती
इसका बल यो रीता कैसे? 
 
एक- शाबास! कितनी अच्छी पूछी बात।
वीर भले हो कितने ही हम।
पर भाई-भाई जहां झगड़ते
वहां तीसरे की बन आती।
गीदड़ भी आ राज जताते
व्यापारी का रूप छोड़कर
फूट डाल दी यहां परस्पर
यों शासक बन वे हम पर छाए
एक-दूसरे को लड़वाकर। 
 
दूसरा- हां, बोलो फूट बहुत ही बुरी है भाई, 
हमने अपनी स्वतंत्रता खोई। 
 
समवेत- हां... फूट बहुत ही बुरी है भाई, 
हमने अपनी स्वतंत्रता खोई। 
 
एक- हां, ये अंग्रेज व्यापारी क्या आए।
शासक बनकर हम पर छाए।
 
बालिका- अच्छा! अले, सलासल धोका।
उनतो हमने क्यूं नई लोका?
बोलो भैया!
फिर हुआ त्या?
 
एक- हां, अंग्रेजी शासक की माया।
दुनियाभर में छा गई ऐसे।
पर भारत तो थी सोनचिरैया। 
पिंजरे में बंदी, छोड़े कैसे? 
जिसका सूरत अस्त न होता
ऐसी थी वह गोरी सत्ता
कैसे, फिर से आजादी पाए
कैसे तोड़े कड़ी दासता। 
 
(निसांस)- ओफ्फो...! बीत गए फिर वर्ष अनेक
धीरे-धीरे समझ सके हम
फूट छोड़कर होना एक।
संगठन में शक्ति भारी।
यों दास्ता हम देंगे फेंक। 
 
दूसरा- हां, फूट बहुत बुरी है भाई
हमने भी स्वतंत्रता खोई। 
 
बालिका- बोलो भैया...
फिल हुआ त्या? 
 
एक- जो होना चाहिए वही हुआ। 
भारत की जनता गई जाग।
धीरे, आजादी की सुलगी आग। 
सन् सत्तावन की क्रांति भभकी।
गोरी सत्ता सहसा चमकी।
झांसी रानी, तात्या टोपे
अहमद, जफर और भोंसले
अंग्रेजी सत्ता थर्राई
छाती पर चढ़ मूंग दले। 
 
साभार- देवपुत्र 

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