जन्माष्टमी विशेष
-राजशेखर व्यास
मैं जब भी कभी कृष्ण का रासलीला वाला चरित्र देखता हूं, माखन चुराने, खाने-खिलाने वाला, गोपियां छेड़ने वाला, ढिठाई, छिछोरापन करने वाले कृष्ण तो मन में अनायास प्रश्न उठता है- क्यों नहीं, उनका महाभारत वाला रूप, कूटनीतिज्ञ, विद्वान, राजनेता और विद्रोही योद्धा वाला रूप, दिखाया-पढ़ाया जाता? पांचजन्य शंख फूंकते हुए, चक्र घुमाते हुए, अन्याय के ख़िलाफ रथ का टूटा पहिया उठाए हुए कृष्ण ! नायक कृष्ण!! सलाहकार कृष्ण!!! योद्धा कृष्ण!
यूं देखा जाए तो कृष्ण जन्मजात विद्रोही थे या कहिए नाराज योद्धा। जरा देखिए तो जन्मे कहां, पले कहां, बढ़े कहां। उनके जन्म से पहले ही भविष्यवाणियां हो गई कि वह अत्याचारी का काल है। गरीब यादव-अहीर का बेटा, तानाशाही के खिलाफ, उसके जन्म से ही एक मायाजाल बुना गया है। एक मनोविज्ञान कि उसे बचाना, उसकी रक्षा करना आवश्यक है।
जेल के द्वार अपने आप नहीं टूटे हैं, तुड़वाएं गए हैं। द्वारपाल अपने आप नहीं सोए हैं, उन्हें सुलाया गया है और योजनाबद्ध तरीकों से उसे भयावह आधी रात को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जा रहा है। विद्रोही वह जन्मजात है। अपने साथ बचपन से गरीब, विकलांग, किसान बच्चों को लेकर खेलने चला है। हर गलत बात पर लड़ता-झगड़ता, अन्याय के खिलाफ परचम उठाए। अब इसे ही ले लीजिए न, देवों की पूजा क्यों हो? ये इन्द्र कौन है? और इन्द्र की पूजा क्यों हो? उसकी पूजा बंद हो। इन्द्र का सारा भोग खुद खा गए।
कृष्ण के पहले के सारे चरित्र नायक आकाश से उतरे अवतारी पुरूष हैं, देव हैं। इसमें कोई शक नहीं कि अवतार कृष्ण से पूर्व की कल्पना है, त्रेता-युग में 'राम' निरन्तर आकाश का देव बनने की लालसा से मर्यादित हैं। उनमें ईश्वरीय देवत्त्व के गुण अधिक हैं। कृष्ण ऐसा महान नायक है, जो निरन्तर मनुष्य होना चाहता है। कृष्ण सुकुमार, अबोध और संपूर्ण मनुष्य है। भरपूर खाओ और खिलाओ। भरपूर प्यार किया भी, सिखाया भी, जन-जन की रक्षा भी की। निर्लिप्त भोग भी किया, त्याग भी।
हमारे गांव का दूध बाहर क्यों जाए? जब तक यहां रहने वाले हर नागरिक को उसकी आवश्यकतानुसार दूध न मिले। हां, बचने पर दूसरे गांव भी बेचने जाओ। पर पहले यहां की जरूरत तो पूरी करो। ऐसे ही छोटे-छोटे किन्तु विचारणीय मुद्दों पर लड़ते-लड़ते कृष्ण का बचपन बीता है। तानाशाह 'कंस', जिसने लोकतंत्र की हत्या कर अपने पिता को ही कारावास में डाल रखा है, उस आततायी-अत्याचारी का वध करके भी कृष्ण गद्दी पर नहीं बैठते। कृष्ण लोकतंत्र की स्थापना करते हैं।
निरंकुश शासन, सत्ता के खिलाफ कृष्ण का विद्रोह जन-चेतना युक्त क्रांति है, उसमें सारे गुण क्रांतिकारियों से हैं। जैसे, सत्ता मिलने के बाद गांधी और जयप्रकाश या चेग्वेरा कुर्सी से दूर जा खड़े हुए, उनका उद्देश्य कुर्सी नहीं व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन लाना था। एक क्रांतिकारी के सारे गुण, कृष्ण में कूट-कूट कर भरे पड़े हैं।
मैं बचपन से 'रणछोड़' नाम सुन-सुन कर हंसता था तो क्या कृष्ण भी भगौड़ा था? यूं हमारे और भी नायक हैं जो अपना पराक्रम रणभूमि से भाग कर दिखा गए हैं। लड़ते-लड़ते थके शरीर को भी तो भागने का अवसर होना चाहिए। लेकिन कृष्ण हारे-थके नहीं भागे। वे भागे हैं आराम कर, एक बार फिर युद्ध करने को, उन्हें अपनी शक्ति बढ़ाने को एक मौका या एक अवसर और चाहिए।
कृष्ण की यह पहली-पहली लड़ाई आजकल के 'छापामार' युद्ध की तरह थी। वार करो और भागो। बाद के काल में शिवाजी, कमालपाशा, गेरीबाल्डी ने ऐसा ही तो किया था। अपनी रक्षा कर लोगे तभी तो दूसरा वार भी कर पाओगे। 'आजाद' ने 'भगतसिंह' को इसलिए तो बचाना चाहा था। संभवतः यही कारण है कि भारतीय क्रांतिकारियों को किसी और पुस्तक की बनिस्बत 'गीता' ने सर्वाधिक प्रभावित किया। अनेक क्रांतिकारी फाँसी चढ़ने से पूर्व 'गीता' की पोथी ही हाथ में लिए चढ़े हैं। यह तो दृष्टा की दृष्टि है किसमें क्या देखें गीता तो बच्चों का बादल है।
डॉ. राधाकृष्णन ने गीता में 'दर्शन' देखे और गांधी ने गीता में भी 'अहिंसा' खोज निकाली मगर तिलक ने गीता में भी 'कर्म' और क्रान्ति देखी।
प्रेम में भी कृष्ण-कृष्ण है। तभी तो 'अहीर' नौजवान कृष्ण को 'अहिरन' राधा ही भली लगती थी। 'यादव कुलभूषण' होकर 'क्षत्रीय योद्धा' होकर भी क्षत्राणी विदूषी 'कृष्णा' (द्रोपदी) राधा की जगह नहीं ले पाती है। न कृष्ण के मन से उस गोरी की छवि ही गिरा पाती। कृष्णा नामानुकूल सांवली थी, तेजस्वी-सुन्दरी भी रही होगी। नयन-नक्श तीखे, तेजस्वी-ओजस्वी, बुद्धि का तेज उसकी मृगनयनी आंखों में चमकता रहा होगा।
यूं भी गोरी के अपेक्षा सांवली सुंदर होती है। राधा गोरी थी, बाल कृष्ण तो राधा में रमा रहा। युवा कृष्ण के मन पर कृष्णा छाई रही....। क्या गोरी क्या सांवरी ? प्रेम के इतिहास में इससे साहस की भला बात क्या होगी कि सत्यभामा, रूक्मणी और अन्य सोलह हजार कन्याओं का पति, राधा से न सिर्फ प्रेम करता है, अपितु उसे 'जनपूज्य' भी बना देता है। राधा उसकी आराध्या, प्राणप्रिया ही नहीं, प्राणप्रेरक, प्रेरणास्रोत, 'शक्ति' भी है। कहीं भी 'सत्यभामा-कृष्ण' या 'रूक्मणी-कृष्ण' का मंदिर नहीं देखने को मिलेगा।
'राधा-कृष्ण' न सिर्फ एक नाम है, अपितु भारतीय दर्शन चिन्तन मनन और प्रेम साहित्य में संयुक्त-पूजन परंपरा है। रूक्मणी को भी लाए कृष्ण तो खुलकर, खम ठोक कर, छुपकर नहीं और रूक्मिणी भी कितने साहस से प्रेमपत्रों से अपने ही अपहरण के लिए इतना खुला उन्मुक्त उद्वाम साहसी या दुःसाहसी आमंत्रण भेजती है, जो आज भी संभव नहीं।
कृष्ण को लिख भेजती है 'आओ, मेरा अपहरण कर लो मुझे अपने साथ ले जाओ' कृष्ण है कि रूक्मणी-हरण कर भी लाए। घर में सत्यभामा हैं ही, कृष्ण 16 हजार विधवाओं को भी अपना नाम, पत्नी का दर्जा देकर सम्मान प्रदान करते हैं तो कृष्ण द्वारा 'शील भंग' जैसे घटनाओं का भी उल्लेख 'क्षेपक' में है। उसके पीछे की तार्किक वैज्ञानिक विवेचनाएं भी अपनी जगह।
कहता हूं न कि उसने जो किया खुलकर किया, जमकर किया,लगकर किया। कृष्ण पूर्णपुरूष हैं, मर्द हैं-नायक हैं, योगी भी,भोगी भी। जो करते हैं खुलकर करते हैं, छुपकर नहीं। राम और कृष्ण में जो मौलिक अंतर है, वह यही कि राम शान्त, मीठे और सुसंस्कृत युग के नायक हैं और कृष्ण जटिले, तीखे और प्रखर बुद्धियुग के नायक हैं।
राम गम्य हैं, कृष्ण अगम्य हैं। कर्म तो कृष्ण ने राम से भी अधिक किए हैं फिर भी हमारा युग उसके कर्म के आदर्श अपनाने में घबराता रहा है। अपनाता भी है तो कूटनीति और मित्र-भेद की उपमा या वह नीति जो तब समयानुकूल सामयिक और प्रासंगिक थी, या आज भी लगती है।
असंख्य-संधि और असंख्य-विग्रह, देश-प्रदेशों के संबंध उसे बदलने पड़े, 'शठम् प्रति शाठ्य समाचरेत' नीति में भी बड़ी मेहनत और पराक्रम उसे करना पड़ता था। अपने लक्ष्य-संधान हेतु इन सारे प्रसंगों में एक और बात बेहद मजेदार है, कृष्ण कभी भी रोते नहीं, आंसू नहीं बहाते, कमजोर या भावुक नहीं होते।
'राम रोऊ चरित्र हैं' राम आपको निरंतर हाय सीता! हाय सीता!! कहते हुए, जगह-जगह आंसू टपकाते मिलेंगे। राम इतना रोए हैं कि मर्यादा पुरूषोत्तम की मर्यादा भी कभी-कभी भंग होने लगती है। कृष्ण कभी रोते नहीं, हां, आंखें जरूर उनकी डबडबा आती हैं, मगर हर उस प्रसंग पर जहां अन्याय-अत्याचार हो रहा है। जब भी किसी नन्हे बच्चे को सात-सात महा-पराक्रमी योद्धाओं ने चक्रव्यूह में घेर कर मारना चाहा है। उनकी आंखें डबडबा आईं हैं। पुरूषों के साम्राज्य में अपमानित पांच पतियों की 'अबला' द्रौपदी ने जब गुहार लगाई है तब। संसार में एक कृष्ण ही है जो दर्शन को भी 'गीत' बना देता है, गीता बना देता है। जो नर-नारी संबंधों को प्रेम बना देता है।
सम्पूर्ण संसार में नारी अगर नर के बराबर कहीं दर्जा पाती है तो ब्रज में 'कान्हा' के पास। आज भी वृन्दावन में स्त्रियां पेड़ से चुनरी का टुकड़ा बांधती हैं, क्योंकि वे ही जानती हैं कि दुष्टों द्वारा चीरहरण करने पर कृष्ण ही उनकी चुनरी अनंत करेगा। कान्हा के इन्हीं अनन्य असंख्य रूप का ही जादू है कि आज भी वे लोक लुभावन हैं, सबके लिए आकर्षक हैं।