हर पग पर कठिन परीक्षा दी है श्रीकृष्ण ने ...

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महानायक श्रीकृष्ण की हर लीला में एक संदेश है 
 
संसार परमात्मा की अनूठी कृति है। वन, पर्वत, नदी, सागर, हिमालय, वनस्पति, जीव-जंतु एवं मानव यह इसकी शोभा हैं। यदि इनमें किसी भी प्रकार का विकार पैदा होता है तो परमात्मा की यह अनूठी रचना विनाश के कगार पर आ जाती है। इसी विकार को, जो वृहद् रूप ले चुका होता है, संतुलन में लाने के लिए कोई ऐसी शक्ति इस धरा में उतर आती है जिसे हम भगवान का अवतार कहते हैं, उसे पूजते हैं। उसे अपना आदर्श मानते हैं।
 
द्वापर में एक ऐसी ही विभूति भाद्रपद कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को मध्यरात्रि में अवतरित होती है जिसे 'कृष्ण' कहा जाता है। भगवान कृष्ण ने अवतार से लीला संवरण तक एक भी ऐसा कर्म नहीं किया जो मानवता के उद्धार के लिए न हो। श्रीकृष्ण जन्म का घटना क्रम भी बड़ा विचित्र था। कंस की मथुरा जेल में जहां चारों ओर कड़ा पहरा था, वहां हुआ श्रीकृष्ण का जन्म अर्थात्‌ जन्म लेने से पहले ही उन्हें मारने की सारी तैयारियां हो चुकी थीं। लेकिन महान कार्य के लिए संसार में आने वाले हर संकट को नष्ट कर अपने उद्देश्य की ओर बढ़ते रहते हैं। श्रीकृष्ण जन्म का घटनाक्रम यही संदेश देता है। जेल से वह किस प्रकार नंदभवन गोकुल पहुंचते हैं और वहां वह नंद बाबा और यशोदा के दुलार में किलकारियां भरने लगते हैं परंतु यहां भी षड्यंत्र पीछा नहीं छोड़ते।
 
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अपने वक्षस्थल पर विष लगा कर पूतना पहुंचती है परंतु वह भी समाप्त हो जाती है। ज्यों-ज्यों कृष्ण बड़े हुए आपदाएं भी बढ़ती जाती हैं। अघासुर, बकासुर, त्रणावर्त, धेनुकासुर न जाने कितने असुर उन्हें मारने आते हैं पर सभी एक-एक कर समाप्त होते गए। कंस ने नया तरीका सोचा, धनुष यज्ञ का आयोजन रचा, अक्रूर जी को भेजा और श्रीकृष्ण को मथुरा बुला लिया वहीं यज्ञ शाला में मदमस्त कुबलियापीड़ हाथी तथा मुष्टिक एवं चाणूर पहवान उन पर टूट पड़े परंतु श्रीकृष्ण ने उन्हें भी धराशायी कर दिया और कंस की छाती पर चढ़कर उसे भरी सभा में समाप्त कर अपने नाना यानी कंस के पिता उग्रसेन के हाथों मथुरा की सत्ता सौंप कर भय और भ्रष्टाचार मुक्त शासन का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

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यहां सबसे महत्वपूर्ण एक बात यह है कि उन्होंने इस बीच केवल क्रांति और मारधाड़ ही नहीं की बल्कि प्रजा के मध्य अपनी लालित्य और माधुर्यपूर्ण लीलाओं के माध्यम से स्त्री-पुरुष, बालक, वृद्ध सभी को अपनी ओर आकृष्ट भी किया जिसमें बाल लीलाओं के माध्यम से उन्होंने युवापीढ़ी को सुसंगठित कर अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ा कर दिया जिसमें गोप और गोपिकाएं दोनों ही उनके नेतृत्व में पूरे समर्पण के साथ समर्पित थे, तभी तो उन्होंने इंद्र की पूजा का मार्ग बदलकर गोवर्धन पूजन के माध्यम से प्रकृति पूजन का प्राचीन वैदिक सूत्र स्थापित किया। 
 
यह घटना इतनी आश्चर्यजनक है जिसमें सात दिन सात तक इंद्र के वज्रपात का सामना किया जिसमें सारा व्रज मंडल धैर्यपूर्वक उनके साथ अविचल खड़ा दिखाई दिया। वस्तुतः निरंकुश, उद्धत एवं अहंकारी सत्ता को ललकारने का क्रम भारतवर्ष में अनेक युगों से होता आ रहा है।
 
श्रीकृष्ण जैसा नायक मिल जाने पर द्वापर का इतिहास ही बदल गया। मथुरा से अत्याचारी कंस का साम्राज्य समाप्त हुआ, हस्तिनापुर से दुर्योधन सहित समस्त कौरवों का संहार हुआ, मगध से जरासंध का नामोनिशान मिटा दिया, चेदि नरेश, शिशुपाल पापों और अत्याचारों के साथ समूल नष्ट हुआ, पूर्वोत्तर से नरकासुर का अंत हुआ इस प्रकार अनेक अत्याचारी सत्ताधारियों का विनाश कर स्वस्थ समाज की स्थापना हुई।
 
गीता उपदेश के माध्यम से उन्होंने यह विश्वास दिलाया है कि जब-जब धर्म की हानि और अधर्म, अत्याचार और भ्रष्टाचार बढ़ता है तब तब मैं इस धराधाम में आकर इन समस्त सामाजिक विकृतियों से समाज को बचाता हूं - "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌।" 

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यहां सूत्र है कि श्रीकृष्ण के इस महान संदेश को जिसने भी स्वीकारा वह भी उनके अंश रूप में समाज उद्धारक के रूप में प्रकट होकर नई क्रांति के लिए कटिबद्ध हो जाता है और साथ ही सारा समाज उसके साथ अर्जुन सहित पांडवों की तरह यह कहता हुआ उठ खड़ा हो जाता है कि "नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत, स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव"
 
अर्थात्‌ आपकी कृपा से हमारा मोह नष्ट हो गया है हमें चेतना एवं अपने कर्तव्य की स्मृति हो आई है अतः अब हम आपकी आज्ञा का पालन कर नए युग के नव सृजन के लिए कटिबद्ध हैं। इस प्रकार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व हमें भगवान श्रीकृष्ण के उस महानायक स्वरूप की ओर सहज ही आकृष्ट करता है। हम उन्हें बार-बार प्रणाम करते हैं।
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