दिगंबर जैन समाज के पर्वाधिराज 'पर्युषण पर्व' शुरू हो गए हैं। सभी दिगंबर जैन जिनालयों पर सुबह श्रीजी (भगवान) के अभिषेक, शांतिधारा, नित्य नियम पूजन के साथ प्रवचन, तत्वार्थ सूत्र का वाचन, प्रतिक्रमण, महाआरती व सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं।
पर्युषण आत्म जागृति का पर्व है। आइए जानें इस दसलक्षण पर्व से संबंधित विशेष जानकारी...
* जानें 'उत्तम क्षमा' का स्वरूप :-
क्रोध एक कषाय है। जो व्यक्ति को अपनी स्थिति से विचलित कर देती है। इस कषाय के आवेग में व्यक्ति विचार शून्य हो जाता है। और हिताहित का विवेक खोकर कुछ भी करने को तैयार हो जाता है। लकड़ी में लगने वाली आग जैसे दूसरों को जलाती ही है, पर स्वयं लकड़ी को भी जलाती है। इसी तरह क्रोध कषाय के स्वरूप को समझ लेना और उस पर विजय पा लेना ही क्षमा धर्म है।
मनीषियों ने कहा है कि क्रोध अज्ञानता से शुरू होता है और पश्चाताप से विचलित नहीं होना ही क्षमा धर्म है।
पार्श्वनाथ स्वामी और यशोधर मुनिराज का ऐसा जीवन रहा कि जिन्होंने अपनी क्षमा और समता से पाषाण हृदय को भी पानी-पानी कर दिया। शत्रु-मित्र, उपकारक और अपकारक दोनों के प्रति जो समता भाव रखा जाता है वही साधक और सज्जन पुरुषों का आभूषण है। शांति और समता आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकता।
यह बात अलग है कि कषाय का आवेग उसके स्वभाव को ढंक देता है। पानी कितना भी गरम क्यों न हो पर अंतत: अपने स्वभाव के अनुरूप किसी न किसी अग्नि को बुझा ही देता है। अज्ञानी प्राणी अपने इस धर्म को समझ नहीं पाता। कषायों के वशीभूत होकर संसार में भटकता रहता है। इसलिए अपने जीवन में क्षमा को धारण करना चाहिए और नित्य यह भावना रखनी चाहिए।
इसीलिए कहा गया है कि -
सुखी रहे सब जीव, जगत में कोई कभी ना घबरावें।
बैर, पाप, अभिमान, छोड़, जग नित्य नए मंगल गावें।
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* दया भाव ही 'उत्तम मार्दव' धर्म का मूल :-
जैसे फलों-फूलों से लदा हुआ पेड़, सहज ही झुक जाता है। वैसे ही गुणों के भार से आत्मा विनम्र होती है, झुक जाती है। अहंकार इंसान की एक बहुत बड़ी कमजोरी है। इसी अहंकार के पोषण में इंसान सब कुछ समर्पित करने को तैयार हो जाता है। सत्ता, संपदा और शक्ति को पाकर भले हम अहंकार करने लगें, पर इसका स्थायित्व नहीं है। अहंकार से हम फूल तो सकते हैं, पर फैल नहीं सकते।
भारतीय संस्कृति लघुता से प्रभुता पाने की संस्कृति है। अड़ना और अकड़ना ही जड़ से उखड़ने के कारण हैं। अहंकार एक ऐसा विष वृक्ष है जो बिना बोए ही उग कर आता है और जीवन में रहने वाले सारे के सारे सद्गुणों के उद्यान को बर्बाद कर देता है। अहंकार के वृक्ष में जो फूल लगते हैं वो देखने में भले ही सुंदर लगें लेकिन उनसे सड़ांध और दुर्गंध ही आती है।
संसार में धन, पद, यश, वैभव और बल को पाकर अहंकारी व्यक्ति इस तरह का आचरण और व्यवहार करता है जिसका धर्म से कोई संबंध नहीं। इसलिए हम सरल बनें, विनम्र बनें जिससे हमारा जीवन और आत्मा उन्नत बन सके। दया मार्दव धर्म का मूल है।
यह सर्वहितकारी है, सब गुणों का सार है। इसलिए जहां मादर्व धर्म नहीं है, मृदुता नहीं है, वहां न संयम है, न कोई व्रत है। उत्तम मार्दव धर्म भव का मर्दन करने वाला है, यदि जन्म-मरण से छुटकारा पाना है, तो मार्दव धर्म का पालन करना होगा। यह मार्दव धर्म मान कषाय का मर्दन करने वाला है।
मार्दव धर्म सब व्रतों का और संयम का आधार है। मार्दव धर्म आत्मा का परिणाम है तथा सम्यक दर्शन का अंग है। इस मार्दव धर्म को जानकर इसकी स्तुति करनी चाहिए। इसे आत्मा में धारण करना चाहिए। इसीलिए हमारे मन में हम निरंतर यह भावना भावें।
अहंकार का भाव न रक्खूं, नहीं किसी पर क्रोध करूं,
देख दूसरों की बढ़ती को, कभी न ईर्ष्या-भाव धरूं।
रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूं,
बने जहां तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूं।।
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* 'उत्तम आर्जव' यानी माया का अभाव : -
क्रोध और मान के पश्चात तीसरी कषाय है - माया। माया के विरुद्ध है आर्जव धर्म। आर्जव अर्थात माया का अभाव। हम देखते है कि सर्प बाहर कितना ही लहरा कर चलता होगा, किंतु जब भी वह बिल में प्रवेश करता होगा उसे सरल और सीधा होना ही पड़ेगा। इसी तरह हमारा जीवन संसार में कितना टेढ़ा-मेढ़ा बना रहे किंतु हमें अपने आत्मगृह में आने के लिए एकदम सरल-सीधा होना ही पड़ेगा। इसी सरलता की परिणति का नाम आर्जव धर्म है।
मनसा, वाचा, कर्मणा की एकरूपता ही इस धर्म की भाव, भाषा है। जैसे-जैसे मन का विकास होता है मन माया से आच्छादित होता जाता है और वही आच्छादित मन मारीच की माया का रूप लेता जाता है, किंतु हम सभी जानते हैं कि मारीच की माया ज्यादा टिकती नहीं है।
मन का मारीच यदि किसी मायाजाल को बुनता है तो अंत में उसे उसी में फंसकर मकड़ी की तरह प्राण गंवाना पड़ता है। दूसरों को ठगकर, धोखा देकर, हम भले ही थोड़ी देर के लिए आनंदित हो जाएं और अपने आपको समझदार मानने लगें किंतु यह भी ध्यान रखना जरूरी है हम दूसरों को भले ही छलें लेकिन छाले तो अपनी आत्मा पर ही पड़ेंगे।
मायावी पुरुष ऊपर से भले ही अमृत के घड़े की तरह मीठा दिखता हो लेकिन उसके अंदर तो छल का जहर भरा ही रहता है। इसलिए हमारा जीवन एकदम निश्चल और सरल होना चाहिए। हमारा प्रेम नि:स्वार्थ होना चाहिए। जिस दिन यह सरलता हमारे अंदर आ जाएगी उसी दिन से हमारे जीवन में धर्म का आनंद बरसने लगेगा। अत: परिणामों को सरल बनाते हुए निरंतर यह भावना भाएं।
रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य व्यवहार करूं।
बने जहां तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूं।
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* 'उत्तम शौच' पवित्रता का प्रतीक :-
शौच धर्म पवित्रता का प्रतीक है। यह पवित्रता संतोष के माध्यम से आती है। लोभ से इच्छा और इच्छा से तृष्णा बढ़ती है जिसकी पूर्ति कर पाना कभी संभव नहीं है। शुचिता का यह पावन धर्म इसी लोभ तृष्णा पर कुठाराघात करता है, जिसमें सफाई शुद्धता का ध्यान रखा जाता है।
यह सफाई शुद्धता सिर्फ बाहर की ही नहीं अंदर की भी करनी पड़ती है। तन को शुद्ध करना अलग बात है किंतु संतोष के जल से मन और जीवन को शुद्ध करना आज के शौचधर्म का सार है। लोभ कई तरह के होते हैं कितनी भी नदियां पहुंच जाएं फिर भी समुद्र प्यासा रहता है। कितना भी भोजन किया जाए फिर भी पेट खाली रहता है, अनगिनत शवों को भस्म करने के बाद भी श्मशान भूखा है। इसी तरह तृष्णा की खाई भी रिक्त ही रहती है।
लोभ की पूर्ति संसार में कभी हो ही नहीं सकती। इसलिए ज्ञानी पुरुष संतोष भावना के निर्मल जल से मन में उपजे लालच के मैल को दूर करते हैं। लोग गंगा-सागर स्नान करते हैं, पुष्कर आदि तीर्थों से अवगाहन करते हैं परंतु इतने मात्र से विशुद्ध नहीं हो जाते।
जो व्यक्ति समता भाव और संतोषरूपी जल से तृष्णा और लोभरूपी मल को धोता है, वही निर्मल शौच का धारक है, यह उत्तम शौच धर्म सुख के मार्ग का सहायक है। मोक्षपद का दायक है। इस धर्म की प्राप्ति मन की शुद्धि से होती है। इस हेतु हमें निरंतर यह भावना करनी चाहिए।
कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवें या जावें
अनेक वर्षों तक जीऊं या मृत्यु आज ही आ जावे।
अथवा कोई कैसा ही भय, या लालच देने आवे,
तो भी न्याय मार्ग से मेरा, कभी न पग डिगने पावे।
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'उत्तम सत्य' की महिमा :-
जब व्यक्ति क्रोध, अहंकार, माया-चारी एवं लोभ को नियंत्रित कर लेता है, तो सहज ही उसके जीवन में सत्य का अवतरण होता है।
सत्य को धारण करने वाला हमेशा अपराजित, सम्मानीय एवं श्रद्धेय होता है। दुनिया का सारा वैभव उसके चरण चूमता है। फिर उसकी ऊर्जा कभी भी क्रोध आदि के रूप में विघ्वंसक रूप धारण नहीं करती। यह सब 'उत्तम सत्य धर्म' की ही महिमा है।
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* 'उत्तम संयम' यानी इंद्रिय को वश में रखना :
इंद्रिय को वश में रखना इंद्रिय संयम है। प्राणी पीड़ा का परिहार करना प्राणी संयम है। स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इंद्रियां हैं। इन इंद्रियों के विषयों में आसक्त हुआ यह मोही प्राणी अपने स्वभाव को भूल रहा है। अपनी ही अज्ञानता का परिणाम है कि सामर्थ्य शक्तिवान होते हुए भी इनका दास बना हुआ है।
स्पर्श इंद्रिय के वशीभूत हुआ हाथी कृत्रिम हथिनी की चाह में अपने को गड्ढे में गिरा देता है। रसना, मछली का जीवन छीन लेती है। गंधलोलुपी भ्रमर कमल पत्रों में दबकर मर जाता है।
रूप का अनुरागी पतंगा दीपक की लौ पर जलकर मर जाता है तथा स्वर संगीत में बंधा हुआ हिरण जीवन से हाथ धो बैठता है। एक-एक इंद्रिय विषयों की अधीनता का परिणाम जब इस तरह का है तब फिर पांचों इंद्रियों के वशीभूत हुए प्राणी की क्या दशा होगी? इसका विचार आप स्वयं ही कर सकते हैं।
अच्छा-अच्छा स्वाद लेना, गंध लेना, मनोहर रूप, आकृतियां देखना तथा कर्णप्रिय गीत-संगीत सुनना, इन्हीं विषयों की पूर्ति में जीवन लगा है, मन रमा है इसी में। असल में इन सबका रस लेने वाला तो मन ही है। मन के इशारे पर ही इंद्रियाँ प्रवृत्ति करती हैं। अत: मन को भी संयत बनाना जरूरी है।
मोह की मदिरा पीने वाला यह मन अनेक अनर्थ कराता ही है। अत: मन की इस प्रवृत्ति को समझकर हम इसके मालिक बनें, गुलाम नहीं। इसकी दासता से मुक्त होकर इंद्रिय जेता बनें तभी सच्चे जैन और जिन बन पाएंगे। दशधर्म की पूजन में भी कहा है।
जिस बिना नहीं जिनराज सीझे, तू रूल्यों जग कीच में।
इक घरी मत विसरो, करो नित, आव जम-मुख बीच में।।
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* उत्तम तप' है साधना का मार्ग :-
दो तरह के मार्ग हैं। एक साधनों का मार्ग है और एक साधना का मार्ग है। साधनों का मार्ग सुख सुविधा का मार्ग है और साधना का मार्ग स्वतंत्र स्वाधीन तपश्चर्या का मार्ग है। भारतीय संस्कृति ने धर्म के लिए साधन संपन्न नहीं साधना संपन्न निरूपित किया है।
यहां भोग को नहीं योग को, त्याग को स्थान मिला है। सारा संसार विषयासक्त है। यहां पर विषय-विरक्ति और आत्म अनुरक्ति बड़ी दुर्लभ है। राग बहुल संसार में वैराग्य तपश्चरण को पाना बड़ा कठिन है। इसलिए तप आत्मशोधन का परम साधन है। तपा जाए सो तप है ऐसा तप दोषों की निवृत्ति कराता है। अग्नि में तपने पर ही स्वर्ण में शुद्धता प्रकट होती है। बल्कि सोने की कीमत से ज्यादा सोने की भस्म की कीमत मानी गई है।
धूप में फल पकते हैं तो उनमें मिठास आ जाती है, आंच में पकने पर भोजन स्वादिष्ट हो जाता है, अग्नि में पका हुआ कुंभ गर्मी में सबकी प्यास तो बुझाता ही है, सिर पर धारण किए जाने पर महान सम्मान को भी पाता है। काले कोयले को स्वच्छ धवल बनाने का तरीका सिर्फ एक ही है कि उसे आंच में तपाया/जलाया जाए।
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त आदमी आशा और निराशा में जीता है। मनुष्य के बारे में कहा गया है कि मनुष्य रोते हुए जन्मता है, अपेक्षाओं में जीता है और निराशा से मरता है। ऐसे में साधना और धर्म का मार्ग ही हमारे लिए कल्याण कराने वाला है। बारह भावना में भी कहा है।
ज्ञान दीप तप तेल भर, घर शोधे भ्रम छोर।
या विध बिन निकसे नहीं, पैठे पूरब चोर।।
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* उत्तम त्याग : प्रकृति देती है त्याग की प्रेरणा :-
त्यागना प्राणी का नैसर्गिक नियम है। वृक्ष में पत्ते, फल, फूल और वृक्ष उनका त्याग कर देता है। गाय जब तक अपने दूध का परित्याग नहीं कर देती उसे बेचैनी रहती है। संग्रह का विमोचन करने पर ही स्वस्थता और ताजगी आती है। यदि हमारे आगमन का द्वार खुला रहे और निकासी न हो तो रुका हुआ पानी सूख जाता है, सड़ जाता है। जो वृक्ष अपने फलों को लुटाते हैं उनमें बार-बार फल आते हैं और जो अपने फलों को छिपाते हैं, वे समूल नष्ट हो जाते हैं।
यह सारे प्रकृति के उदाहरण हमें त्याग करने की प्रेरणा देते हैं। संग्रह ही जीवन को दुखदायी बना देता है, जबकि त्याग जीवन को स्वस्थ और संतुलित बनाता है। भारतीय संस्कृति त्याग की, साधना की संस्कृति रही है। यहां वैभव के लिए नहीं वीतरागता के लिए सम्मान मिला है। भौतिकता से ऊपर उठकर आध्यात्मिक आनंद की खोज भारतीय साधना का मूल लक्ष्य रहा है। इसीलिए तो वैभव संपन्न सम्राट साधना संपन्न साधकों के चरणों में नतमस्तक रहे हैं।
दान-धर्म की आवश्यकताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि धन और धर्म का अपना-अपना महत्व है। किंतु धन धन ही है और धर्म धर्म ही है। धन हाथ का मैल है इसलिए उसे जीवन का सर्वस्व नहीं मानना चाहिए। धर्म हमारे लिए सिर की टोपी है और धन पांव का जूता है। जूते और टोपी की स्थिति में जितना फर्क है उतना ही बड़ा फर्क धन और धर्म में है।
टोपी, सम्मान मर्यादा की प्रतीक है जिसकी सार-संभाल हम प्राणपन से करते हैं, किंतु जूता, जूता ही है उसकी कीमत पांव में पहनने और बाहर उतारने से ज्यादा नहीं है। धर्म की और राष्ट्र की रक्षा होती है। जिसने त्याग किया है संसार में उसका सम्मान हुआ है। जिसने संग्रह किया, उसका संसार में पतन हुआ है। यही कारण है कि जल का दान करने वाले मेघ सदैव ही ऊपर रहते हैं और संग्रह करने वाला समुद्र सदा ही नीचे रहता है। सोलह कारण की पूजन में भी कहा है।
दान देय मन हर्ष विशेषे,
इह भव जस, परभव सुख पेषे।।
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* 'उत्तम ब्रह्मचर्य' पर-पदार्थों का त्याग :-
उक्त क्षमा आदि-आठ धर्म-साधन रूप धर्म होते हैं, जिनके अंगीकार करने पर साध्य रूप धर्म ब्रह्मचर्य की उपलब्धि स्वयंमेव हो जाती है। जब कोई साधक क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पर-पदार्थों का त्याग आदि करते हैं और पर-पदार्थों से संबंध टूट जाने से जीव का अपनी आत्मा (जिसे ब्रह्म कहा जाता है) में ही रमण होने लगता है।
इसे ही 'उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म' कहा जाता है। यही धर्म के दशलक्षण हैं, जो पर्युषण पर्व के रूप में आकर हमें सुख-शांति का संदेश देते हैं।
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* 'उत्तम अकिंचन' यानी आत्मकेंद्रित करना :-
आकिचन्य धर्म आत्मा की उस दशा का नाम है जहां पर बाहरी सब छूट जाता है किंतु आंतरिक संकल्प विकल्पों की परिणति को भी विश्राम मिल जाता है। बाहरी परित्याग के बाद भी मन में 'मैं' और 'मेरे पन' का भाव निरंतर चलता रहता है, जिससे आत्मा बोझिल होती है और मुक्ति की ऊर्ध्वगामी यात्रा नहीं कर पाती।
जिस प्रकार पहाड़ की चोटी पर पहुंचने के लिए हमें भार रहित हल्का होना जरूरी होता है उसी प्रकार सिद्धालय की पवित्र ऊंचाइयां पाने के लिए हमें अकिंचन, एकदम खाली होना आवश्यक है। यह आत्मा, संकल्प, विकल्प रूप कर्तव्य भावों से संसार सागर में डूबती रहती है।
परिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही अकिंचन धर्म की भावधारा है। जहां पर भीड़ है, वहां पर आवाज, आकुलता और अशांति है किंतु एकाकी एकत्व के जीवन में न कोई आवाज है और न कोई आकुलता और न अशांति। हम जहां पर जी रहे हैं वह कर्तव्य तो करना ही है किंतु यथार्थता का बोध हमें रहना चाहिए।
सांझ घिरते-घिरते पक्षीगण एक तरुवर पर आकर विश्राम कर लेते हैं, किंतु सुबह होते ही अपने-अपने कार्य के लिए भिन्न-भिन्न दिशाओं में चले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार संसार में हम सभी का निवास है। पुराने किसी संयोग की वजह से आप यहां एकत्रित हुए हैं किंतु आगे की यात्रा तो आपको एकाकी करनी है।
आज का यह धर्म जीवन की यात्रा को एकाकी आगे बढ़ाने का धर्म है जिसमें अपने और पराए का भेद समझकर निर्विकल्प र्निद्वंद्व एकाकी आत्मा की अनुभूति में उतरना पड़ता है। जीवन में प्रतिदिन निरंतर यह भावना भाते रहना चाहिए जिससे एकाकीपन का बोध होता रहे।
आप अकेला अवतरे, मरे अकेला होय।
यूं कबहूं इस जीव का, साथी सगा न कोय।।